कबीर की इस्लामी आस्था आजके आम मुसलमानों की तरह निश्चित रूप से नहीं थी।वह सूफी विचारधारा की उस क्रन्तिपूर्ण व्याख्या से प्रेरित थी जो उनके विवेक और उनकी आतंरिक अनुभूतिजन्य ऊर्जा के मंथन का परिणाम थी। सूफियों ने पृथक रूप से किसी धर्म का बीजारोपण नहीं किया। हाँ श्रीप्रद कुरआन को समझने के लिए केवल उसके शब्दों तक सीमित नहीं रहे, उसके गूढार्थ को भी समझने के प्रयास किए. श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "तुम कुरआन पर चिंतन-मनन क्यों नहीं करते, क्या तुम्हारे दिलों पर ताले लगे हुए हैं?" यह चिंतन मनन न करने वाली स्थिति मुल्लाओं की है, सूफियों की नहीं. कबीर जीवन-पर्यंत मुल्लाओं को यह सीख देने का प्रयास करते दिखायी दिए. कबीर की रचनाओं से यह संकेत नहीं मिलाता कि उनका कुरआन विषयक ज्ञान सुनी-सुनाई बातों तक सीमित था. प्रतीत होता है कि कबीर ने श्रीप्रद कुरआन को स्वयं पढ़ा भी था और उसपर सूक्ष्मतापूर्वक विचार भी किया था. अपने इन विचारों की पुष्टि में कबीर की रचनाओं से कुछ उदहारण देना उपयोगी होगा.
1. श्रीप्रद कुरआन की आयतें और कबीर की आस्था
श्रीप्रद कुरआन की सूरह लुक़मान [ सत्ताईसवीं आयत] में कहा गया है " यदि धरती पर जितने वृक्ष हैं सब लेखनी बन जाएँ और सात समुद्रों का समस्त जल रोशनाई हो जाय तो भी उसके गुण लेखनी की सीमाओं में नहीं आ सकते." कबीर ने श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को रूपांतरित कर दिया है- "सात समुद की मसि करूं, लेखनी सब बनराई./ धरती सब कागद करूँ, तऊ तव गुन लिखा न जाई" मालिक मुहम्मद जायसी ने कबीर की ही भाँति श्रीप्रद कुरआन के आधार पर इस भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - :सात सरग जऊँ कागर करई / धरती सात समुद मसि भरई. जाँवत जग साखा बन ढाखा / जाँवत केस रोंव पंखि पांखा. जाँवत रेह खेह जंह ताई / मेह बूँद अरु गगन तराई. सब लिखनी कई लिखि संसारू. / लिखि न जाई गति समुंद अपारू. [पदमावत : स्तुति खंड].
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है - "जहाँ कहीं भी तीन [सांसारिक] व्यक्ति गुप्त-वार्ता कर रहे होते हैं उनमें चौथा अल्लाह स्वयं होता है जो उनकी बातें सुनता रहता है." [सूरह अल-मुजादिला, आयत 7]. कबीर ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है- "तीन सनेही बहु मिलें, चौथे मिलें न कोई / सबै पियारे राम के बैठे परबस होई." स्पष्ट है कि प्रभु-प्रेमी यह देखकर स्वयं को कितना बेबस पाते हैं कि लोग परमात्मा की उपस्थित की चिंता से मुक्त, गुप्त योजनाएं बनाते रहते हैं. काश उन्हें ध्यान रहता कि परमात्मा सब कुछ देख और सुन रहा है तो वे ऐसी हरकतों से दूर रहते.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "अल्लाह को न ऊघ आती है न नींद" [सूरह अल-बक़रा, आयत 255]. कबीर इस आयत के साथ एकस्वर दिखायी देते हैं- "कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोई." किंतु इस 'कोई' की परिधि में नबी और वाली और साधु नहीं आते. नबीश्री की हदीस भी है "मैं निद्रावस्था में भी जागता रहता हूँ.". यह स्थिति "राती-दिवस न करई निद्रा" की है. इतना ही नहीं कबीर का यह भी विशवास है - " निस बासर जे सोवै नाहीं, ता नरि काल न खाहि."
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार " प्रत्येक वस्तु विनाशवान है सिवाय उस [प्रभु] के चेहरे के." कबीर का भी दृढ़ विशवास है-"हम तुम्ह बिनसि रहेगा सोई." श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह को पूर्व और पश्चिम सबका रब बताया गया है [ सूरह अश्शुअरा, आयत 28] और आदेश दिया गया है कि "साधुता यह नहीं है कि तुम अपने चेहरे पूर्व या पश्चिम की ओर का लो, साधुता यह है कि परम सत्ता पर दृढ़ आस्था रक्खो."[सूरह अल-बक़रा, आयत 177].कबीर आश्चर्य करते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों ने पूर्व और पश्चिम को बाँट रक्खा है. "पूरब दिशा हरी का बासा, पश्चिम अलह मुकामा." यदि खुदा मस्जिद में और भगवान मन्दिर में निवास करता है तो स्वाभाविक प्रश्न है- "और मुलुक किस केरा ?" इसलिए कबीर एक चुनौती भरा सवाल रख देते हैं - "जहाँ मसीत देहुरा नाहीं, तंह काकी ठकुराई."
श्रीप्रद कुरआन में मनुष्य की सृष्टि से सम्बद्ध अनेक आयतें हैं. एक स्थल पर कहा गया है - अल्लाह वह है जिसने पानी से मनुष्य को पैदा किया." [सूरह अल-फुरकान, आयत 54]. श्रीप्रद कुरआन की सूरह अन-नूर आयत 45, अल-मुर्सलात, आयत 20, अन-नहल, आयत 86 में भी इसी भाव को व्यक्त किया गया है. कबीर की दृष्टि में प्रभु रुपी जल-तत्व समस्त ज्ञान का स्रोत है. "पाणी थैं प्रगट भई चतुराई, गुरु परसाद परम निधि पायी." प्रभु ने इसी एक पानी से मनुष्य के शरीर की रचना की - "इक पाणी थैं पिंड उपाया." यहाँ कुरआन की ऐसी अनेक आयातों के सन्दर्भ आवश्यक प्रतीत होते हैं जिनके प्रकाश में कबीर की रचनाओं को आसानी से समझा जा सकता है. कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं -
1. हमने मनुष्य को मिटटी के सत से पैदा किया. [सूरह अल-मोमिन, आयत 12 ]
2. उसने [प्रभु ने] तुमको मिटटी से बनाया.[ सूरह अल-अन'आम, आयत 02,]
3. तुमको एक जीव से पैदा किया. [सूरह अल-ज़ुम्र, आयत 6]
4. जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा 'निश्चय ही मैं मिटटी से एक मनुष्य बनाने वाला हूँ. फिर जब मैं उसे परिष्कृत कर लूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ तो उसके आगे सजदे में गिर जाओ." [सूरह अल-साद, आयत 71-72]
कबीर ने - "एक ही ख़ाक घडे सब भांडे," "माटी एक सकल संसारा." तथा "ख़ाक एक सूरत बहुतेरी." कहकर श्रीप्रद कुरआन में अपनी आस्था व्यक्त की है. परम सत्ता ने मनुष्य के मिटटी से निर्मित शरीर में अपनी रूह फूँक कर उसे प्राणवान बना दिया. कबीर ने "देही माटी बोलै पवनां." माटी का चित्र पवन का थंमा," "माटी की देही पवन सरीरा," माटी का प्यंड सहजि उतपना नादरू ब्यंड समाना." आदि के माध्यम से श्री आदम के भीतर परम सत्ता [जो अबुल-अर्वाह अर्थात समस्त रूहों की जनक है] की फूँक का ही संकेत किया है जिसकी वजह से आदम फरिश्तों के समक्ष सजदे के योग्य ठहराए गए. सच पूछा जाय तो यही नाद-ब्रह्म की अवस्थिति है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "हिसाब-किताब के दिन प्रत्येक व्यक्ति को परम सत्ता के समक्ष अपने कर्मों का हिसाब देना होगा."[ सूरह अन-नह्व, आयत 93 ] कबीर इस आदेश पर अटूट विशवास रखते हैं. "कहै कबीर सुनहु रे संतो जवाब खसम को भरना," "धरमराई जब लेखा मांग्या बाकी निकसी भारी," "जम दुवार जब लेखा मांग्या, तब का कहिसि मुकुंदा," "खरी बिगूचन होइगी, लेखा देती बार," जब दफ्तर देखेगा दई, तब ह्वैगा कौन हवाल," 'साहिब मेरा लेखा मांगे, लेखा क्यूँकर दीजे," जैसे अनेक उदहारण कबीर की रचनाओं में उपलब्ध हैं. जिनसे 'आखिरत' के दिन पर कबीर की गहरी आस्था का संकेत मिलता है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "परम सत्ता ने आकाश को बिना स्तम्भ के खड़ा किया." [सूरह अल-राद, आयत 02 ]. एक अन्य आयत में कहा गया है " तुम आकाशों को बिना स्तम्भ के देखते हो." [सूरह लुक़मान, आयत 10]. और फिर यह भी बताया गया है कि "वही [प्रभु] आकाश और धरती को थामे हुए है." [सूरह फातिर, आयत 41].कबीर इस भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस परमात्मा ने पृथ्वी और आकाश को बिना किसी आधार के स्थिर कर रक्खा है उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए किसी साक्षी की अपेक्षा नहीं है -"धरति अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुग्धा कहै न साखी."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "अल्लाह मनुष्य को अपनी शरण देता है.उस जैसा कोई शरणदाता नहीं है." [सूरह अल-मोमिन, आयत 88].कबीर भी सर्वत्र अल्लाह की ही शरण के इच्छुक दिखाई देते हैं -"कबीर पनह खुदाई को, रह दीगर दावानेस," "कहै कबीर मैं बन्दा तेरा, खालिक पनह तिहारी," तथा " जन कबीर तेरी पनह समाना / भिस्तु नजीक राखु रहिमाना." अन्तिम उद्धरण में कृपाशील परमात्मा से बहिश्त [स्वर्ग] में अपने विशेष नैकट्य में रखने की याचना करना, कबीर की परंपरागत इस्लामी आस्था का परिचायक है. आज भी मृतक के हितैषी उसके लिए अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि अल्लाह उसे अपने ख़ास जवारे-रहमत [विशेष कृपाशील सामीप्य] में स्थान दे.
कबीर ने दाशरथ राम और नंदसुत श्रीकृष्ण की भगवत्ता स्वीकार नहीं की और कारण यह बताया कि जो जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त नहीं है,वह उनकी दृष्टि में अलह, खालिक, करता, निरंजन नहीं हो सकता. इस्लाम में अल्लाह को अविनाशी कहा गया है और "वह न तो जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त करता है, न ही उसे सांसारिक संकट घेरता है. " [सूरह अल-आराफ़, आयत 191] तथा सूरह अन-नह्व, आयत 20-22].कबीर ने इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - "जामै, मरै, न संकुटि आवै नांव निरंजन ताकौ रे" तथा "अविनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "ऐसी चीज़ की पूजा क्यों करते हो जिसे तुम्हारे हानि- लाभ पर कोई अधिकार नहिं है." [ सूरह अल-माइदा, आयत 25]. हानि-लाभ पर अधिकार न होने में भौतिक उपयोगितावादी दृष्टि का भी संकेत है. कबीर ने पाहन पूजने वालों के समक्ष इसे उदहारण के साथ स्पष्ट कर दिया है और बताया है कि यदि तुम्हारी दृष्टि उस सूक्ष्म प्रभु तक पहुँचने में सक्षम नहीं है और तुम्हारी पूजा का लक्ष्य लाभान्वित होना ही है तो घर की चक्की क्यों नहीं पूजते जिसका पिसा हुआ अनाज तुम रोज़ खाते हो - "घर की चाकी कोई न पूजै, जाको पीसो खाय." श्रीप्रद कुरआन के अनुसार नबीश्री "इब्राहीम ने मूर्तिपूजकों से प्रश्न किया कि "जब वे अपने इष्ट देवताओं से कुछ याचना करते हैं तो क्या वे उनकी याचना का कोई उत्तर देते हैं ? उन्हों ने कहा नहीं." [सूरह अश-शु'अरा, आयत 73 तथा सूरह अल-राद, आयत 14].कबीर ने "पाहन को का पूजिए, जरम न देइ जवाब" में इसी तथ्य का संकेत किया है.
इस्लामी आस्था के अनुसार मृत्योपरांत मनुष्य के शरीर को कब्र में दफना दिया जाता है. कबीर ने अनेक स्थलों पर इस आस्था का संकेत किया है - "अन्तकाल माटी मैं बासा लेटे पाँव पसारी," " माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी," एक दिनां तो सोवणा लंबे पाँव पसारि," तथा "जाका बासा गोर मैं, सो क्यों सोवै सुक्ख." स्पष्ट है कि कबीर पर श्रीप्रद कुरआन की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव था और कुछ मामलों में वे परंपरागत मुस्लिम आस्थाओं से भी जुड़े हुए थे.
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