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शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

ये असासा है गाँव का महफूज़.

ये असासा है गाँव का महफूज़.
ज़ीस्त में है अभी हया महफूज़.
बंदगी जब नहीं तो कुछ भी नहीं,
बंदगी है, तो है खुदा महफूज़.
उसकी बेगानगी सलामत हो,
मेरे हिस्से की है क़ज़ा महफूज़.
मर्कज़ीयत उसी को हासिल है,
बस उसी का है दायरा महफूज़.
आज तक वक़्त के जरीदों पर,
खुश हूँ मैं, नाम है मेरा महफूज़.
रहने पाता नहीं है शहरों में,
कोई कानूनों-कायदा महफूज़.
राम के दौर में था क्या ऐसा,
राम-सेना में जो हुआ महफूज़.
जानते हैं ये खूब दहशत-गर्द,
दीनो-दुनिया में हैं वो ला-महफूज़.
कुछ नहीं है कहीं भी उसके सिवा,
रखिये अपना मुशाहिदा महफूज़.
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