शनिवार, 17 जनवरी 2009

मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.

मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.
ज़िन्दगी की चाह इतनी क्यों है, ये समझूँ कहाँ.
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क्या तअल्लुक़ है मेरा, क्यों क़ैद हूँ इस जिस्म में,
देखना चाहूँ अगर खुदको तो मैं देखूं कहाँ.
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जानता हूँ नफ़्स का महकूम है अज़वे-बदन
नफ़्स है महकूम किसका, राज़ ये पाऊं कहाँ.
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मैं जिसे कहते हैं क्या उसकी भी कोई शक्ल है,
कुछ समझ पाता नहीं, इस मैं को मैं ढूँढूं कहाँ.
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इस जहाँ में किस कदर अदना सा है मेरा वुजूद,
मैं हिफाज़त इसकी करना चाहूँ तो रक्खूं कहाँ.
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निस्फ़ हिस्सा मेरा कहलाया अगर सिन्फे-लतीफ़,
मैं मुकम्मल क्यों नहीं पैदा हुआ, जानूँ कहाँ.
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मक़सद=उद्देश्य. तअल्लुक़=सम्बन्ध. नफ़्स=आत्मा। महकूम=अधीन/पाबन्द/आदेशित। अज़वे-बदन=शारीरिक अवयव. राज़=रहस्य. अदना=तुच्छ. निस्फ़ हिस्सा=अर्ध-भाग. सिंफे-लतीफ़=नारी. मुकम्मल=सम्पूर्ण.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.
नज़रिया अपना दबा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जहाँ भी जैसा भी होता है उसको होने दो,
निगाह अपनी हटा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जो पढ़ सको तो पढो नब्ज़ अक्सरीयत की,
वही मिज़ाज बना लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लत सहीह की परवाह करना है बेसूद,
सभी के साथ मज़ा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लाज़तें भी नज़र आयें तो ख़मोश रहो,
तुम उनपे ख़ाक न डालो, तो खुश रहेंगे सभी.
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स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.

स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.
वो सुखी हैं जिनकी हर इच्छा बहुत छोटी सी है.
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हम नहीं ले पाते कुछ निर्णय उलझते रहते हैं,
जबकि मन में जो भी है दुविधा, बहुत छोटी सी है.
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गर्भ में पीड़ा के जाकर हम कभी देखें अगर,
उसकी, मेरी, आपकी पीड़ा बहुत छोटी सी है.
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बच्चियों का लोग कर देते हैं शैशव में विवाह,
कौन समझाए, अभी कन्या बहुत छोटी सी है.
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कैसे उद्वेलित वो कर सकते हैं जनता के विचार,
जिनकी चिंतन-शक्ति की सीमा बहुत छोटी सी है.
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ज्ञान अर्जित करना भी अपने में है इक साधना,
मूर्ख हैं वो जिनकी जिज्ञासा बहुत छोटी सी है.
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जाम भी, साकी भी, मय भी और मयखाना भी मैं,
मैं सुखी हूँ, मेरी मधुशाला बहुत छोटी सी है.
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गिडगिडा कर आह भरते हैं वही सबके समक्ष,
जानते हैं खूब जो विपदा बहुत छोटी सी है.
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गुरुवार, 15 जनवरी 2009

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.
उडानें भर के मधुर कल्पनाएँ बांधते हैं.
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यथार्थ से हैं बहुत दूर इस शहर के लोग,
जो बंध न पायीं कभी वो सदाएं बांधते हैं.
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तमाम लोगों में है आत्मीयता का अभाव,
दया की डोर से संवेदनाएं बांधते हैं.
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कहीं भी ठोस धरातल नहीं विचारों का,
नए सिरे से नई श्रृंखलाएं बांधते हैं.
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सुखाते रहते हैं धो-धो के अपने आश्वासन,
वो अलगनी की तरह योजनाएं बांधते हैं.
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निगाहें डालते हैं कसमसाती बेलों पर,
नितांत छद्म से नाज़ुक लताएं बांधते हैं.
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ये मूर्तियाँ हमें मजबूर तो नहीं करतीं,
हम इनके साथ स्वयं आस्थाएं बांधते हैं.
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विचित्र होते हैं ये दाम्पत्य के रिश्ते,
ये गाँठ वो है कि देकर दुआएं बांधते हैं.
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सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती.

सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती।
ये दुनिया महज़ झूट की आदी सी है लगती।

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नफ़रत की हैं चिंगारियां जब पहले से दिल में,
जाड़े की गरम धूप भी बरछी सी है लगती।
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किस बात की दहशत है किसी को नहीं परवा,
इस शह्र की ये बस्ती तो सहमी सी है लगती।
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उस गाय को सब पालने की रखते हैं ख्वाहिश,
जो गाय बहोत ज्यादा दुधारी सी है लगती।
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ये दौर मुलम्मों का है लाजिम है सजावट,
महँगी है वही शय जो अनोखी सी है लगती।

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हर बात मैं कह देता हूँ क्यों खुल के ग़ज़ल में,
जो तंग-नज़र हैं उन्हें चुभती सी है लगती।
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करते नहीं गर आप सताइश तो न कीजे,
मुझको ये अदा आपकी अच्छी सी है लगती।
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बुधवार, 14 जनवरी 2009

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.
हमारे मुल्क का किरदार बेहिसी तो नहीं.
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दुरुस्त है कि वो कातिल है बेगुनाहों का,
मगर अकेला वही ऐसा आदमी तो नहीं.
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हमारे शह्र में रहते हैं कितने दहशत-गर्द,
अदालतों से किसी को सज़ा मिली तो नहीं.
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हजारों लोगों को जिंदा जला दिया हमने,
मगर निगाह हमारी कभी झुकी तो नहीं.
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वतन परस्त हैं, कुर्बानियों से डरते हैं,
वतन के साथ हमारी ये दोस्ती तो नहीं.
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सियासतों ने बनाया है सरबराह जिन्हें,
वो क़ायदीन भी इल्ज़ाम से बरी तो नहीं.
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हम इत्तेहाद की बातें ज़रूर करते हैं,
असर दिलों पे हो ऐसी फ़िज़ा बनी तो नहीं.
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हमारे खून भी शायद बँटे हैं फ़िरकों में,
बहा के गैरों का खूँ हमको बेकली तो नहीं।

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वो कभी इतिहास को पढ़ता नहीं.

वो कभी इतिहास को पढ़ता नहीं.
इसलिए कुछ झूठ-सच गढ़ता नहीं।

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इस सदी में भी वो कितना मूर्ख है,
दोष औरों पर कभी मढ़ता नहीं।

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झूठ को दुहराते रहिये बार-बार,
सच भी उसकी तर्ह सिर चढ़ता नहीं।

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हौसले हो जाते हैं जिसके शिथिल,
थक के फिर आगे कभी बढ़ता नहीं।

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बेल-बूटे काढते थे जो कभी,
आज उन हाथों से कुछ कढता नहीं।

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मंगलवार, 13 जनवरी 2009

वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.

वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.
देखते हैं जिन्हें सब ख़्वाबों में.
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मुझसे कहता है तरक्की का मिजाज,
सदियाँ तय करता हूँ मैं लम्हों में.
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कोई निकलेगी अमल की सूरत,
दिन गुज़र जायें न यूँ वादों में.
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मंदिरों मस्जिदों में भी वो नहीं,
उसको पाया न कभी गिरजों में.
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मैं समंदर से शिकायत करता,
वो न आता जो मेरी फ़िक्रों में.
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इस ज़मीं की ही तरह चाँद भी है,
पैकरे-हुस्न है क्यों ग़ज़लों में.
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खैरियत तक नहीं लेता कोई,
कैसी बेगानगी है शहरों में.
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सोमवार, 12 जनवरी 2009

अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.

अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.
तुमने अत्याचार ढाये, बे-सबब अच्छी तरह.
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आँधियों में पेड़ गिर जाते तो कोई दुख न था,
हमने आंखों से है देखा ये गज़ब अच्छी तरह.
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भुखमरी, दुख-दर्द, पीड़ा, आत्म हत्या से किसान,
कुछ बताओगे कि होंगे मुक्त कब अच्छी तरह.
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औपचारिकता के संबंधों में आस्वादन कहाँ,
मुझसे मिलना, प्यार जागे मन में जब अच्छी तरह.
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लक्ष्मी को पूजने का स्वाद चखने के लिए
दौड़ते हैं लोग जाने को अरब अच्छी तरह.
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हम तो गीदड़-भभकियों को भी समझ लेते थे सच,
वास्तविकता क्या है ये रौशन है अब अच्छी तरह.
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संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.

संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
पर्वा नहीं है गर मुझे समझा नहीं कोई.
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पीड़ा से जन्म लेते हैं रचनात्मक विचार,
वो रचनाकार क्या जिसे पीड़ा नहीं कोई.
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करते रहे शिकायतें बस अन्धकार की,
हमने कभी चिराग जलाया नहीं कोई.
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चिन्ता में दूसरों की गले जा रहे हैं लोग,
अपने दुखों से शह्र में दुबला नहीं कोई.
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गंभीरता से कीजिए सौहार्द पर विचार,
चिंतन का ये विषय है, तमाशा नहीं कोई.
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प्यासे हैं, गर्म रेत है, मंजिल भी दूर है,
जारी सफर है, राह में दरया नहीं कोई.
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चहरे उदास, होंठों पे पपडी जमी हुई,
पर झोंपड़ों में भूख का शिकवा नहीं कोई.
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इन बस्तियों में प्यार कभी बांटिये तो आप,
फिर कह सकें तो कहिये कि अच्छा नहीं कोई.
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