ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / समन्दरों ने कहा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / समन्दरों ने कहा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.
उडानें भर के मधुर कल्पनाएँ बांधते हैं.
*******
यथार्थ से हैं बहुत दूर इस शहर के लोग,
जो बंध न पायीं कभी वो सदाएं बांधते हैं.
*******
तमाम लोगों में है आत्मीयता का अभाव,
दया की डोर से संवेदनाएं बांधते हैं.
*******
कहीं भी ठोस धरातल नहीं विचारों का,
नए सिरे से नई श्रृंखलाएं बांधते हैं.
*******
सुखाते रहते हैं धो-धो के अपने आश्वासन,
वो अलगनी की तरह योजनाएं बांधते हैं.
*******
निगाहें डालते हैं कसमसाती बेलों पर,
नितांत छद्म से नाज़ुक लताएं बांधते हैं.
*******
ये मूर्तियाँ हमें मजबूर तो नहीं करतीं,
हम इनके साथ स्वयं आस्थाएं बांधते हैं.
*******
विचित्र होते हैं ये दाम्पत्य के रिश्ते,
ये गाँठ वो है कि देकर दुआएं बांधते हैं.
**************