मंगलवार, 2 सितंबर 2008

इतनी ही शिक्षा दी / रामप्रसाद दीक्षित

दूसरों को प्रकाश देने का अर्थ है
स्वयं को जलाना।
दीप ने केवल इतनी ही शिक्षा दी
और कहा इसको किसी से मत बताना
वरना दूसरों के लिए
छोड़ देगा तपना ज़माना।

******************

थोडी देर मुझे जलने दो / साधुशरण वर्मा

पुरवैया के मस्त झकोरों ! थोडी देर मुझे बहने दो.
अरे गगन के मंजु प्रदीपो, थोडी देर मुझे जलने दो.

तुम तो जग को जन्म-जन्म से, आलोकित करते ही आये.
नील गगन में और न जाने, कितने जनम रहोगे छाये
जीवन की है आज दिवाली, फैली मन की मादक लाली
मुझको श्वासों की बाती से, दीपित प्राण कथा कहने दो.

ओ पूनम के चाँद तुम्हें तो, सदा इसी पथ पर चलना है
लहर जगाकर उदित हुए तुम, स्वप्न सजाकर ही ढलना है.
छोटा सा जीवन पथ मेरा, चले चार पग हुआ सवेरा,
सपनों की मादक बेला में, थोडी देर मुझे ढलने दो.

********************************

सोमवार, 1 सितंबर 2008

देश के स्वप्नों का एक नक्शा / शैलेश ज़ैदी

नर्म और गुदाज़ हाथों में
गुलाबों की सुगंध तलाश करना
सैकड़ों ऐसे हाथों को नकारना है
जो काँटों की चुभन का दर्द जी कर भी
गुलाबों की खेती करते हैं
खुशबुएँ उगाते हैं
और दिन-रात मरते हैं

यह हाथ !
न कभी हँसते हैं,
न गुनगुनाते हैं
बस देखते रहते हैं
अपनी खुरदुरी, लहूलुहान हथेलियों में
अपने देश के स्वप्नों का एक नक्शा।
*****************

जाने उन आंखों में कैसी शाम थी / सलाहुद्दीन परवेज़

मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं
चाँदनी के देस में बीमार मेरा ज़ह्र है
जिसके हाथों में गुलाबी रंग हो पकडो उसे
जिसकी झीलों में शफक की ताज़गी हो
उसकी आँखें छीन लो
मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं

जाओ अब मेरा तरन्नुम
रेत की तारीकियों में डाल दो
सारी नज्में, सारी गज़लें
दास्तानें, अनगिनत प्यारी किताबें फाड दो
क्योंकि मैंने याद के सीने पे एक दिन लिख दिया
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी, नम ज़िन्दगी
सादा कापी पर कई शक्लें बनाकर सो गई
मेरे कमरे से हवा मुझको उड़ाकर ले गई
घर के आँगन से तेरी बातों की मेहँदी उड़ गई
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी।
*****************

रविवार, 31 अगस्त 2008

दर्द से रिश्ता कोई / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

दर्द से रिश्ता कोई जोड़ना कब चाहता है
ये तो फ़ितरत का तक़ाज़ा है जो रब चाहता है
गीत बिखरे हैं फ़िज़ाओं में सुनो सबको, मगर
गुनगुनाओ वही नगमा जिसे लब चाहता है
आदमी सीख के आया है अनोखा जादू
एक नया चेहरा लगा लेता है जब चाहता है
मैं हूँ जैसा भी तुझे इस से तअल्लुक़ क्या है
जानना क्यों मेरी गुरबत का सबब चाहता है
पहले रस्मन हुआ करती थी मुलाक़ात उस से
वालेहाना मेरा दिल क्यों उसे अब चाहता है
मेरे घर में कोई दौलत कोई सरमाया नहीं
नाहक़ इस घर में लगाना वो नक़ब चाहता है
********************

तमाम शह्र से / आशुफ़्ता चंगेजी

तमाम शह्र से नज़रें चुराए फिरता है
वो अपने शानों पे इक घर उठाये फिरता है
हज़ार बार ये सोचा कि लौट जायेंगे
न जाने क्यों हमें दरिया बहाए फिरता है
हुदूद से जो तजावुज़ की बात करता था
वो अपने सीने में पौदे लगाए फिरता है
थे आज तक इसी धोके में सबसे वक़िफ़ हैं
जिसे भी देखो कोई शै छिपाए फिरता है
अब एतमाद कहाँ तक बहाल रक्खेंगे
कोई तो है जो हमें यूँ नचाये फिरता है.
***********************

सारी नदियाँ पी जाता है / शैलेश ज़ैदी

सारी नदियाँ पी जाता है ,फिर भी सागर प्यासा है
उसकी भाषा पढ़कर देखो, अक्षर-अक्षर प्यासा है
आसमान से चलकर दरिया तक आना आसान नहीं
रोज़ आता है पानी पीने चाँद, निरंतर प्यासा है.
ओस चाटकर कुछ तो प्यास बुझा लेते हैं फूल मगर
सुनो कभी संगीत जो उनका, एक-एक स्वर प्यासा है
दो जुन की रोटी तो जैसे-तैसे मिल भी जाती है
थोड़ा सा आदर पाने को, श्रमिक बराबर प्यासा है
मूल प्रश्न यह है आतंकी को विशवास दिया किसने ?
प्राण अगर जाएँ, स्वागत को, जन्नत का दर प्यासा है
केसरिया बाने को, केवल एक ही चिंता रहती है
मिले विधर्मी रक्त कहीं से, धर्म का गागर प्यासा है
कोई भी शैलेश तुम्हारी, आकर हत्या कर देगा
खरी-खरी बातों से, प्राणों का, हर विषधर प्यासा है.
****************************

पिछड़ा आदमी / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूंगता रहता था,
जब सब निढाल हो सोते थे
वह शून्य में टकटकी लगाये रहता था,
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले वाही मारा गया.
*******************

दुःख / सर्वेश्वर्दाया सक्सेना

दुःख है मेरा
सफ़ेद चादर की तरह निर्मल
उसे बिछाकर सो रहता हूँ.

दुःख है मेरा
सूरज की तरह प्रखर
उसकी रोशनी में
सारे चेहरे देख लेता हूँ.

दुःख है मेरा
हवा की तरह गतिवान
उसकी बाँहों में
मैं सबको लपेट लेता हूँ.

दुःख है मेरा
अग्नि की तरह समर्थ
उसकी लपटों के साथ
मैं अनंत में हो लेता हूँ.

*****************

इतिहास का कलम / शैलेश ज़ैदी

कोमल और सुर्ख हथेलियों में
गुलाब की खुशबू तलाशने वाले लोग
बेखबर हैं
इतिहास के उस क़लम से
जो टाँकता जा रहा है उनके विरुद्ध
धूल और कीचड में सने हाथों की
मोटी-मोटी नसों में दौड़ती
तेज़ाबी बगावत।

इतिहास का क़लम
पेड़ पर बैठा कोई पक्षी नहीं है
जो बहेलियों के लासे में आ जाय
और बोलने लगे बहेलियों की भाषा

इतिहास का कलम
आज उन हाथों में है
जो मिटटी से गुलाब उगाना जानते हैं
और देश के नक्शे की
हर लकीर पहचानते हैं .
******************