सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
बिछड़ के तुझ से अजब रोग लग गया है मुझे
जो मुड के देखा तो हो जायेगा बदन पत्थर
कहानियों में सुना था, सो भोगना है मुझे
अभी तलक तो कोई वापसी की राह न थी
कल एक राहगुज़र का पता लगा है मुझे
मैं सर्द जंग की आदत न डाल पाऊंगा
कोई महाज़ पे वापस बुला रहा है मुझे
यहाँ तो साँस भी लेने में खासी मुश्किल है
पड़ाव अबके कहाँ हो ये सोचना है मुझे
सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ
तेरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे
मैं तुझको भूल न पाया यही ग़नीमत है
यहाँ तो इसका भी इमकान लग रहा है मुझे
****************
शनिवार, 30 अगस्त 2008
चुप्पी / रणजीत
मेरे भीतर उमड़ती है एक कविता
घुमड़ती है एक गाली
मैं उगल देना चाहता हूँ
एक नारे में अपनी सारी घुटन.
मेरी आत्मा कचोटती है
कहती है-कायर ! बोल
पर मैं चुप हूँ.
चुप्पी और चापलूसी में बँट गया है पूरा देश
और मैं चुप्पी चुनता हूँ
पर एक तीसरा विकल्प भी है - जेल
अपने सिर के बालों तक से
लोगों का अधिकार छिन गया है
अब पुलिस ही तय करती है कि वे रहें या न रहें
मैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली हुई
एक लम्बी-चौडी जेल में बंद हूँ
पर और छोटी जेल में जाने से डरता हूँ
क्योंकि वहाँ न जाने कितने बरसों के लिए
अलग कर दिया जायेगा मुझे
अपनी नन्ही बच्ची से
और सबसे बड़ी बात
हो सकता है मुझे आर एस एस का ही सदस्य
घोषित कर दिया जाय
सब कुछ उनके हाथ में है
सत्य भी और न्याय भी
इसलिए मैं चुप्पी चुनता हूँ
************************
घुमड़ती है एक गाली
मैं उगल देना चाहता हूँ
एक नारे में अपनी सारी घुटन.
मेरी आत्मा कचोटती है
कहती है-कायर ! बोल
पर मैं चुप हूँ.
चुप्पी और चापलूसी में बँट गया है पूरा देश
और मैं चुप्पी चुनता हूँ
पर एक तीसरा विकल्प भी है - जेल
अपने सिर के बालों तक से
लोगों का अधिकार छिन गया है
अब पुलिस ही तय करती है कि वे रहें या न रहें
मैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली हुई
एक लम्बी-चौडी जेल में बंद हूँ
पर और छोटी जेल में जाने से डरता हूँ
क्योंकि वहाँ न जाने कितने बरसों के लिए
अलग कर दिया जायेगा मुझे
अपनी नन्ही बच्ची से
और सबसे बड़ी बात
हो सकता है मुझे आर एस एस का ही सदस्य
घोषित कर दिया जाय
सब कुछ उनके हाथ में है
सत्य भी और न्याय भी
इसलिए मैं चुप्पी चुनता हूँ
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याद आयेंगे ज़माने को / फ़ारिग़ बुखारी
याद आयेंगे ज़माने को मिसालों के लिए
जैसे बोसीदा किताबें हों हवालों के लिए
देख यूँ वक़्त की दहलीज़ से टकरा के न गिर
रास्ते बंद नहीं सोचने वालों के लिए
आओ तामीर करें अपनी वफ़ा का माबुद
हम न मस्जिद के लिए हैं न शिवालों के लिए
सालहा-साल अक़ीदत से खुली रहती है
मुनफ़रिद रास्तों की गोद, जियालों के लिए
रात का कर्ब है गुल्बांगे-सहर का खलिक़
प्यार का गीत है ये दर्द, उजालों के लिए
शबे-फुरक़त में सुलगती हुई यादों के सिवा
और क्या रक्खा है हम चाहने वालों के लिए
***********************************
जैसे बोसीदा किताबें हों हवालों के लिए
देख यूँ वक़्त की दहलीज़ से टकरा के न गिर
रास्ते बंद नहीं सोचने वालों के लिए
आओ तामीर करें अपनी वफ़ा का माबुद
हम न मस्जिद के लिए हैं न शिवालों के लिए
सालहा-साल अक़ीदत से खुली रहती है
मुनफ़रिद रास्तों की गोद, जियालों के लिए
रात का कर्ब है गुल्बांगे-सहर का खलिक़
प्यार का गीत है ये दर्द, उजालों के लिए
शबे-फुरक़त में सुलगती हुई यादों के सिवा
और क्या रक्खा है हम चाहने वालों के लिए
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तनहाई के बाद / शहज़ाद अहमद
झांकता है तेरी आंखों से ज़मानों का खला
तेरे होंटों पे मुसल्लत है बड़ी देर की प्यास
तेरे सीने में रहा शोरे-बहारां का खरोश
अब तो साँसों में न गर्मी है, न आवाज़, न बास
फिर भी बाहों को है सदियों की थकन का एहसास
तेरे चेहरे पे सुकूं खेल रहा है लेकिन
तेरे सीने में तो तूफ़ान गरजते होंगे
बज़्मे-कौनैन तेरी आँख में वीरान सही
तेरे ख्वाबों के मुहल्लात तो सजते होंगे
गरचे अब कोई नहीं कोई नहीं आएगा
फिर भी आहट पे तेरे कान तो बजते होंगे
वक़्त है नाग तेरे जिस्म को डसता होगा
देख कर तुझ को हवाएं भी बिफरती होंगी
सब तेरे साए को आसेब समझते होंगे
तुझ से हमजोलियाँ कतरा के गुज़रती होंगी
तू जो तनहाई के एहसास से रोती होगी
कितनी यादें तेरे अश्कों से उभरती होंगी
ज़िन्दगी हर नए अंदाज़ को अपनाती है
ये फरेब अपने लिए जाल नए बुनता है
रक्स करती है तेरे होंटों पे हलकी सी हँसी
और जी को, कोई रूई की तरह धुनता है
लाख परदों में छुपा शोरे-अज़ीयत लेकिन
मेरा दिल तेरे धड़कने की सदा सुनता है
तेरा ग़म जागता है दिल के नेहां-खानों में
तेरी आवाज़ से सीने में फुगाँ पैदा है
तेरी आंखों की उदासी मुझे करती है उदास
तेरी तनहाई के एहसास से दिल तनहा है
जागती तू है तो थक जाती हैं आँखें मेरी
ज़ख्म जलते हैं तेरे, दर्द मुझे होता है.
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तेरे होंटों पे मुसल्लत है बड़ी देर की प्यास
तेरे सीने में रहा शोरे-बहारां का खरोश
अब तो साँसों में न गर्मी है, न आवाज़, न बास
फिर भी बाहों को है सदियों की थकन का एहसास
तेरे चेहरे पे सुकूं खेल रहा है लेकिन
तेरे सीने में तो तूफ़ान गरजते होंगे
बज़्मे-कौनैन तेरी आँख में वीरान सही
तेरे ख्वाबों के मुहल्लात तो सजते होंगे
गरचे अब कोई नहीं कोई नहीं आएगा
फिर भी आहट पे तेरे कान तो बजते होंगे
वक़्त है नाग तेरे जिस्म को डसता होगा
देख कर तुझ को हवाएं भी बिफरती होंगी
सब तेरे साए को आसेब समझते होंगे
तुझ से हमजोलियाँ कतरा के गुज़रती होंगी
तू जो तनहाई के एहसास से रोती होगी
कितनी यादें तेरे अश्कों से उभरती होंगी
ज़िन्दगी हर नए अंदाज़ को अपनाती है
ये फरेब अपने लिए जाल नए बुनता है
रक्स करती है तेरे होंटों पे हलकी सी हँसी
और जी को, कोई रूई की तरह धुनता है
लाख परदों में छुपा शोरे-अज़ीयत लेकिन
मेरा दिल तेरे धड़कने की सदा सुनता है
तेरा ग़म जागता है दिल के नेहां-खानों में
तेरी आवाज़ से सीने में फुगाँ पैदा है
तेरी आंखों की उदासी मुझे करती है उदास
तेरी तनहाई के एहसास से दिल तनहा है
जागती तू है तो थक जाती हैं आँखें मेरी
ज़ख्म जलते हैं तेरे, दर्द मुझे होता है.
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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
अपराध / लीलाधर जगूडी
जहाँ-जहाँ पर्वतों के माथे
थोड़ा चौडे हो गए हैं
वहीं-वहीं बैठेंगे
फूल उगने तक
एक दूसरे की हथेलियाँ गरमाएंगे
दिग्विजय की खुशी में
मन फटने तक
देह का कहाँ तक करें बंटवारा
आजकल की घास पर घोडे सो गए हैं
मृत्यु को जन्म देकर
ईश्वर अपराधी है
इतनी जोरों से जियें हम दोनों
कि ईश्वर के अंधेरे को
क्षमा कर सकें.
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थोड़ा चौडे हो गए हैं
वहीं-वहीं बैठेंगे
फूल उगने तक
एक दूसरे की हथेलियाँ गरमाएंगे
दिग्विजय की खुशी में
मन फटने तक
देह का कहाँ तक करें बंटवारा
आजकल की घास पर घोडे सो गए हैं
मृत्यु को जन्म देकर
ईश्वर अपराधी है
इतनी जोरों से जियें हम दोनों
कि ईश्वर के अंधेरे को
क्षमा कर सकें.
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अभी-अभी / लीलाधर जगूडी
अभी-अभी टहनियों के बीच का आकाश
किसने रचा ?
हमारे गाँव की दिशा खुली
घास की चूड़ी बनती हुई
उजली रातों की बात मुझसे करती है
मेरी छोटी बहन.
दिन फसलों के बीच फिसलता हुआ
ठीक से पाक गया
कोई पिछला समय
मकान के अहाते में पेड़ों पर
चढ़ा हुआ
एक और शुरूआत बदली
मेरी तारीखों के आस-पास
खूब लम्बी होकर
अपने पर ही ढल गई है घास.
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किसने रचा ?
हमारे गाँव की दिशा खुली
घास की चूड़ी बनती हुई
उजली रातों की बात मुझसे करती है
मेरी छोटी बहन.
दिन फसलों के बीच फिसलता हुआ
ठीक से पाक गया
कोई पिछला समय
मकान के अहाते में पेड़ों पर
चढ़ा हुआ
एक और शुरूआत बदली
मेरी तारीखों के आस-पास
खूब लम्बी होकर
अपने पर ही ढल गई है घास.
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मौत का रक़्स / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
अभी हाल में उडीसा में ईसाइयों के साथ जो कुछ घटित हुआ और उसके प्रतिरोध में कुछ नेताओं के मुखौटे पहन कर जो जुलूस निकाले गए उनसे प्रभावित होकर ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने यह नज़्म लिखी है जिसे पेश किया जा रहा है. परवेज़ फ़ातिमा
मौत का रक़्स
मौत का रक़्स अगर देखना चाहो तो मेरे साथ चलो
कुछ मनाज़िर हैं मेरी आंखों में
देखो उस शहर में पेशानियों पर मौत का पैगाम लिए
जाने पहचाने कुछ अफराद चले आते हैं
अपने सफ़्फ़ाक क़वी हाथों में समसाम लिए
उनकी आंखों में है अदवानी शराबों का खुमार
उनके चेहरों पे हैं सावरकरी तेवर के सभी नक़्शो-निगार
लोग कहते हैं कि ये मौत के हैं ठेकेदार
ये जहाँ जाते हैं होता है वहाँ मौत का रक़्स
चीखें बन जाती हैं इनके लिए घुँघरू की सदा
सुनके होते हैं मगन लाशों की बदबू की सदा
मौत के रक़्स में है इनकी ज़फर्याबी का जश्न
ये मनाते हैं बड़े शौक़ से इंसानों की बेताबी का जश्न
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मौत का रक़्स
मौत का रक़्स अगर देखना चाहो तो मेरे साथ चलो
कुछ मनाज़िर हैं मेरी आंखों में
देखो उस शहर में पेशानियों पर मौत का पैगाम लिए
जाने पहचाने कुछ अफराद चले आते हैं
अपने सफ़्फ़ाक क़वी हाथों में समसाम लिए
उनकी आंखों में है अदवानी शराबों का खुमार
उनके चेहरों पे हैं सावरकरी तेवर के सभी नक़्शो-निगार
लोग कहते हैं कि ये मौत के हैं ठेकेदार
ये जहाँ जाते हैं होता है वहाँ मौत का रक़्स
चीखें बन जाती हैं इनके लिए घुँघरू की सदा
सुनके होते हैं मगन लाशों की बदबू की सदा
मौत के रक़्स में है इनकी ज़फर्याबी का जश्न
ये मनाते हैं बड़े शौक़ से इंसानों की बेताबी का जश्न
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लाओ, हाथ अपना लाओ ज़रा / फ़हमीदा रियाज़
लाओ हाथ अपना लाओ ज़रा
छू के मेरा बदन
अपने बच्चे के दिल का धड़कना सुनो
नाफ़ के इस तरफ़
उसकी जुम्बिश को महसूस करते हो तुम ?
बस, यहीं छोड़ दो
थोडी देर और इस हाथ को
मेरे ठंडे बदन पर, यहीं छोड़ दो
मेरे ईसा ! मेरे दर्द के चारागर
मेरा हर मूए-तन, इस हथेली से तस्कीन पाने लगा
इस हथेली के नीचे मेरा लाल करवट सी लेने लगा
उँगलियों से बदन उसका पहचान लो
तुम उसे जान लो
चूमने दो मुझे अपनी ये उँगलियाँ
इनकी हर पोर को चूमने दो मुझे
नाखूनों को लबों से लगा लूँ ज़रा
इस हथेली में मुंह तो छुपा लूँ ज़रा
फूल लाती हुई ये हरी उँगलियाँ
मेरी आंखों से आंसू उबलते हुए
उनसे सींचूंगी मैं
फूल लाती हुई उँगलियों की जड़ें
चूमने दो मुझे
अपने बाल, अपने माथे का चाँद, अपने लब
ये चमकती हुई काली आँखें
मुस्कुराती ये हैरान आँखें
मेरे कांपते होंट, मेरी छलकती हुई आँख को
देख कर कितने हैरान हैं !
तुमको मालूम क्या
तुमने जाने मुझे क्या से क्या कर दिया
मेरे अन्दर अंधेरे का आसेब था
यूँ ही फिरती थी मैं
ज़ीस्त के ज़ायके को तरसती हुई
दिल में आंसू भरे, सब पे हंसती हुई
तुमने अन्दर मेरा इस तरह भर दिया
फूटती है मेरे जिस्म से रोशनी
सब मुक़द्दस किताबें जो नाज़िल हुईं
सब पयम्बर जो अब तक उतारे गए
सब फ़रिश्ते कि हैं बादलों से परे
रंग, संगीत, सुर, फूल, कलियाँ, शजर
सुब्ह दम पेड़ की झूलती डालियाँ
उनके मफहूम जो भी बताये गए
ख़ाक पर बसने वाले बशर को
मसर्रत के जितने भी नग़मे सुनाये गए
सब रिशी, सब मुनी, अम्बिया, औलिया
खैर के देवता, हुस्न, नेकी, खुदा
आज सब पर मुझे एतबार आ गया
एतबार आ गया .
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छू के मेरा बदन
अपने बच्चे के दिल का धड़कना सुनो
नाफ़ के इस तरफ़
उसकी जुम्बिश को महसूस करते हो तुम ?
बस, यहीं छोड़ दो
थोडी देर और इस हाथ को
मेरे ठंडे बदन पर, यहीं छोड़ दो
मेरे ईसा ! मेरे दर्द के चारागर
मेरा हर मूए-तन, इस हथेली से तस्कीन पाने लगा
इस हथेली के नीचे मेरा लाल करवट सी लेने लगा
उँगलियों से बदन उसका पहचान लो
तुम उसे जान लो
चूमने दो मुझे अपनी ये उँगलियाँ
इनकी हर पोर को चूमने दो मुझे
नाखूनों को लबों से लगा लूँ ज़रा
इस हथेली में मुंह तो छुपा लूँ ज़रा
फूल लाती हुई ये हरी उँगलियाँ
मेरी आंखों से आंसू उबलते हुए
उनसे सींचूंगी मैं
फूल लाती हुई उँगलियों की जड़ें
चूमने दो मुझे
अपने बाल, अपने माथे का चाँद, अपने लब
ये चमकती हुई काली आँखें
मुस्कुराती ये हैरान आँखें
मेरे कांपते होंट, मेरी छलकती हुई आँख को
देख कर कितने हैरान हैं !
तुमको मालूम क्या
तुमने जाने मुझे क्या से क्या कर दिया
मेरे अन्दर अंधेरे का आसेब था
यूँ ही फिरती थी मैं
ज़ीस्त के ज़ायके को तरसती हुई
दिल में आंसू भरे, सब पे हंसती हुई
तुमने अन्दर मेरा इस तरह भर दिया
फूटती है मेरे जिस्म से रोशनी
सब मुक़द्दस किताबें जो नाज़िल हुईं
सब पयम्बर जो अब तक उतारे गए
सब फ़रिश्ते कि हैं बादलों से परे
रंग, संगीत, सुर, फूल, कलियाँ, शजर
सुब्ह दम पेड़ की झूलती डालियाँ
उनके मफहूम जो भी बताये गए
ख़ाक पर बसने वाले बशर को
मसर्रत के जितने भी नग़मे सुनाये गए
सब रिशी, सब मुनी, अम्बिया, औलिया
खैर के देवता, हुस्न, नेकी, खुदा
आज सब पर मुझे एतबार आ गया
एतबार आ गया .
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अब किसका जश्न मनाते हो / अहमद फ़राज़
[दो शब्द : नौशेरा पाकिस्तान में 14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ वर्त्तमान उर्दू जगत के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकार किए जाते हैं. उन्होंने रूमानी यथार्थवाद को अपनी ग़ज़लों में एक नया धरातल दिया. भाषा की सादगी उन्हें जनसामान्य तक पहुँचा देती है और विचारों की कोमलता तथा उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि जनमानस में कविता की समझ के संस्कार भरती दिखायी देती है. उनकी लोकप्रियता का मूल कारण भी यही है. स्वाभाव से फ़राज़ एक गर्म खून के पठान थे. फैज़ से प्रेरणा लेकर उन्होंने हर अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया. 1980 में मिलिटरी शासन के ख़िलाफ़ बोलने के जुर्म में उन्हें पहले कारावास और फिर देशिनिकाला की सज़ा झेलनी पड़ी.वे लन्दन में रहे और अंत तक सरकार से कोई समझौता करना उन्होंने पसंद नहीं किया. इधर काफ़ी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. शिकागो में चिकित्सा हुई किंतु उसका कोई लाभ नहीं हुआ. 25 अगस्त 2008 को पाकिस्तान में उनका निधन हो गया।'
मेरा कलाम अमानत है मेरे लोगों की / मेरा कलाम अदालत मेरे ज़मीर की है.' अहमद फ़राज़ के इन शब्दों के साथ उन्हें भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक नज़्म- शैलेश जैदी]
अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ
उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं
उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा
उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं
उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में
उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें
या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में
आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए
********************************
अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ
उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं
उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा
उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं
उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में
उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें
या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में
आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए
गुरुवार, 28 अगस्त 2008
हो के बेघर जा रहे थे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
हो के बेघर जा रहे थे रेगज़ारों में कहीं
मैं भी था उन कारावानों की क़तारों में कहीं
वो तो कहिये साथ उसका था कि साहिल मिल गया
कश्तियाँ बचती हैं ऐसे तेज़ धारों में कहीं
देर तक मैं आसमां को एक टक तकता रहा
सोच कर शायद वो शामिल हो सितारों में कहीं
उसपे जो भी गुज़रे वो हर हाल में रहता है खुश
उसके जैसे लोग भी हैं इन दयारों में कहीं
ये भी मुमकिन है वो आया हो अयादत के लिए
क्या अजब शामिल हो वो भी ग़म-गुसारों में कहीं
घर से जब निकला बजाहिर वो बहोत खुश-हालथा
लौटने पर ख़ुद को छोड़ आया गुबारों में कहीं
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मैं भी था उन कारावानों की क़तारों में कहीं
वो तो कहिये साथ उसका था कि साहिल मिल गया
कश्तियाँ बचती हैं ऐसे तेज़ धारों में कहीं
देर तक मैं आसमां को एक टक तकता रहा
सोच कर शायद वो शामिल हो सितारों में कहीं
उसपे जो भी गुज़रे वो हर हाल में रहता है खुश
उसके जैसे लोग भी हैं इन दयारों में कहीं
ये भी मुमकिन है वो आया हो अयादत के लिए
क्या अजब शामिल हो वो भी ग़म-गुसारों में कहीं
घर से जब निकला बजाहिर वो बहोत खुश-हालथा
लौटने पर ख़ुद को छोड़ आया गुबारों में कहीं
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