शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

अब किसका जश्न मनाते हो / अहमद फ़राज़

[दो शब्द : नौशेरा पाकिस्तान में 14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ वर्त्तमान उर्दू जगत के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकार किए जाते हैं. उन्होंने रूमानी यथार्थवाद को अपनी ग़ज़लों में एक नया धरातल दिया. भाषा की सादगी उन्हें जनसामान्य तक पहुँचा देती है और विचारों की कोमलता तथा उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि जनमानस में कविता की समझ के संस्कार भरती दिखायी देती है. उनकी लोकप्रियता का मूल कारण भी यही है. स्वाभाव से फ़राज़ एक गर्म खून के पठान थे. फैज़ से प्रेरणा लेकर उन्होंने हर अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया. 1980 में मिलिटरी शासन के ख़िलाफ़ बोलने के जुर्म में उन्हें पहले कारावास और फिर देशिनिकाला की सज़ा झेलनी पड़ी.वे लन्दन में रहे और अंत तक सरकार से कोई समझौता करना उन्होंने पसंद नहीं किया. इधर काफ़ी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. शिकागो में चिकित्सा हुई किंतु उसका कोई लाभ नहीं हुआ. 25 अगस्त 2008 को पाकिस्तान में उनका निधन हो गया।'
मेरा कलाम अमानत है मेरे लोगों की / मेरा कलाम अदालत मेरे ज़मीर की है.' अहमद फ़राज़ के इन शब्दों के साथ उन्हें भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक नज़्म- शैलेश जैदी]
अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ

उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ

उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई

उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं

उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा

उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा

उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं

उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में

उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं

उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें

या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए

इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में

आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए
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गुरुवार, 28 अगस्त 2008

हो के बेघर जा रहे थे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

हो के बेघर जा रहे थे रेगज़ारों में कहीं
मैं भी था उन कारावानों की क़तारों में कहीं
वो तो कहिये साथ उसका था कि साहिल मिल गया
कश्तियाँ बचती हैं ऐसे तेज़ धारों में कहीं
देर तक मैं आसमां को एक टक तकता रहा
सोच कर शायद वो शामिल हो सितारों में कहीं
उसपे जो भी गुज़रे वो हर हाल में रहता है खुश
उसके जैसे लोग भी हैं इन दयारों में कहीं
ये भी मुमकिन है वो आया हो अयादत के लिए
क्या अजब शामिल हो वो भी ग़म-गुसारों में कहीं
घर से जब निकला बजाहिर वो बहोत खुश-हालथा
लौटने पर ख़ुद को छोड़ आया गुबारों में कहीं

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अफ़साना सुनाता किसे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

अफ़साना सुनाता किसे, मसरूफ़ थे सब लोग.
अफ़साना किसी शख्स का, सुनते भी हैं कब लोग
चर्चा है, कि निकलेगा सरे-बाम वो महताब
इक टक उसे देखेंगे सुना आज की शब लोग.
ये फ़िक्र किसी को नहीं क्या गुज़री है मुझ पर
हाँ जानना चाहेंगे जुदाई का सबब लोग.
राजाओं नवाबों का ज़माना है कहाँ अब
फिर लिखते हैं क्यों नाम में ये मुर्दा लक़ब लोग
लज्ज़त से गुनाहों की जो वाक़िफ़ न रहे हों
इस तर्ह के होते थे न पहले, न हैं अब लोग
यूँ मसअले रखते हैं, लरज़ जाइए सुनकर
सीख आए हैं किस तर्ह का ये हुस्ने-तलब लोग.
लोग आज भी नस्लों की फ़ज़ीलत पे हैं नाजां
बात आए तो बढ़-चढ़ के बताते हैं नसब लोग.

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वरक़-वरक़ मेरे ख़्वाबों के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

वरक-वरक मेरे ख़्वाबों के ले गई है हवा
पता नहीं उन्हें किन वादियों में डाल आए
शदीद दर्द सा महसूस कर रहा हूँ मैं
बिखर गया हूँ उन अवराक में कहीं मैं भी.
हुदूदे-जिस्म में शायद बचा नहीं मैं भी.

वो घर कि जिस में लताफत की जलतरंग बजे
मिलाये ताल तबस्सुम हया के नगमों से
सितार छेड़ रही हों शराफतें कुछ यूँ
कि हमनावाई के आहंग उभरें साजों से
वो घर भी ख़्वाबों के अवराक में रहा होगा
पढ़ा जो होगा किसी ने तो हंस दिया होगा

वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
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मेरा बचपन / दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी

किधर गया आह मेरा बचपन, निजात थी जब गमे-जहाँ से.
न दिल था हसरत-कशे-तमन्ना, न थी ज़बां आशना फुगाँ से
कहाँ गई वो बहारे-तिफली, किधर गए वो निशात के दिन
गुलाब का सा ये मेरा चेहरा, न ज़र्द था जब गमे-खिजां से
मैं खुश था दिल में की गा रही है मेरी मुहब्बत का ये तराना
खुला न था राज़ इश्के-गुल का, जो मुझ को बुलबुल की दास्ताँ से
बहोत दिनों हमसफीर तेरा रहा हूँ बचपन की सुह्बतों में
हज़ार नगमे सुना किया हूँ मैं ऐ पपीहे तेरी ज़बां से
कभी शिगूफों को चुनता था मैं, कभी था कलियों को प्यार करता
निसार मैं भी था आह बुलबुल अदाए-गुल पर हज़ार जां से
कभी तमन्ना के चाँद को मैं, घर अपने लाऊं बना के मेहमां
कभी ये हसरत के तोड़ लाऊं मैं जा के तारे को आसमां से.
कभी जो आईने में यकायक नज़र पड़ी मुझ को अपनी सूरत
रहा हूँ पहरों मैं महवे-हसरत, की प्यारी शक्ल आई ये कहाँ से
लबों पे बचपन की क्या न आएगी अब वो मासूम मुस्कराहट
अधूरे अल्फाज़ ऐ जवानी वो क्या न निकलेंगे अब ज़बां से
नसीम देने को मुझ को लोरी, न शाम-फुरक़त में आएगी क्या
जिगर के टुकड़े उडेंगे कबतक, हवा में आहे-शरर-फिशां से
न थी गिरांबारिए-मशागिल न थी ये पाबंदिये-अलायक
असीरे-जंजीरे-गम न था मैं, निजात थी शोरिशे जहाँ से
मेरा घरौंदा था मेरा आँगन, उसी में मेहमां था मेरा बचपन
तुझे बुलाया था किसने जालिम शबाब तू आ गया कहाँ से.
हज़ार झगडे हैं ज़िन्दगी के हज़ार दुनिया के हैं बखेडे
सुरूर सदमे उठें तो क्योंकर उठें ये इक मुश्ते-नातवाँ से।
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बुधवार, 27 अगस्त 2008

तितलियाँ पकड़ने को / नोशी गीलानी

कितना सह्ल जाना था खुशबुओं को छू लेना
बारिशों के मौसम में, शाम का हरेक मंज़र
घर में क़ैद कर लेना
रौशनी सितारों की मुट्ठियों में भर लेना
कितना सह्ल जाना था, खुशबुओं को छू लेना
जुगनुओं की बातों से, फूल जैसे आँगन में
रोशनी सी कर लेना
उसकी याद का चेहरा ख्वाबनाक आंखों की
झील के गुलाबों पर, देर तक सजा रखना
कितना सह्ल जाना था.

ऐ नज़र की खुशफ़हमी ! इस तरह नहीं होता
तितलियाँ पकड़ने को दूर जाना पड़ता है।

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पहली बारिश / सफ़दर हाशमी

रस्सी पर लटके कपडों को सुखा रही थी धूप
चाची पीछे आँगन में जा फटक रही थी सूप
गैया पीपल की छैयां में चबा रही थी घास
झबरू कुत्ता प्यार से लेटा हुआ था उसके पास

राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा
अम्मा दीदी को संग लेकर गई थीं राशन लाने
आते में खुत्रू मोची से जूते थे सिलवाने
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाये
सबसे पहले शुरू हुई कुछ टप-टप बूंदाबांदी
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आंधी

मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अन्दर
गैया उठकर खड़ी हो गई, झबरा भागा भीतर
राज मिस्त्री ने गारे पर ढक दी फ़ौरन टाट
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी-फूटी खाट
हो गए चौडम-चौडा सारे धूप में सूखे कपड़े
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे
पलंग के नीचे जा लेटी, बिजली के डर के मारे
झबरू ऊंचे सुर में भौंका, गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने
अम्मा दीदी आयीं दौडी सिर पर रक्खे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले

सबने बारिश को कोसा और आँख भी खूब दिखायी
पर हम नाचे बारिश में और मौज भी खूब मनाई
मैदानों में भागे-दौडे, मारीं बहुत छलांगें
तब ही वापस घर लौटे जब थक गयीं दोनों टांगें
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कब कहा मैंने / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

कब कहा मैंने कि वो लालो-गुहर मांगता है.
इश्क़ की राह में मुझसे मेरा सर मांगता है.
इस ज़मीं पर नहीं उसकी कहीं कोई भी मिसाल
वो मगर हुस्न परखने की नज़र मांगता है.
शेर-गोई में सभी होते नहीं गालिबो-मीर
ये वो फ़न है जो ख़ुदा-दाद हुनर मांगता है.
एक रफ़्तार से चलते हुए थक जाता है वक़्त
और अफ़्लाक से कुछ ज़ेरो-ज़बर मांगता है.
घर में जब था तो कहा दिल ने कि सहरा में चलो
और सहरा में जब आया तो ये घर मांगता है.
इन्क़लाबात की बातें तो हैं आसान मगर
इन्क़लाबात का रुजहान शरर मांगता है.
ज़िन्दगी उसने मुझे दी है तो है फ़र्ज़ मेरा
उसको लौटा दूँ खुशी से वो अगर मांगता है.
मंजिलें होंगी सब आसान वो गर साथ रहे
उससे बस इतना ही दिल ज़ादे-सफ़र मांगता है
दिल की गहराइयों से निकलें तो कुछ बात बने
मुझसे जाफ़र वो दुआओं में असर मांगता है.
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हम अकेले ही सही / अजमल नियाज़ी

हम अकेले ही सही शह्र में क्या रखते थे
दिल में झांको तो कई शह्र बसा रखते थे
अब किसे देखने बैठे हो लिए दर्द की ज़ौ
उठ गए लोग जो आंखों में हया रखते थे
इस तरह ताज़ा खुदाओं से पड़ा है पाला
ये भी अब याद नहीं है कि खुदा रखते थे
छीन कर किसने बिखेरा है शुआओं की तरह
रात का दर्द ज़माने से छुपा रखते थे
ले गयीं जाने कहाँ गर्म हवाएं उनको
फूल से लोग जो दामन में सबा रखते थे
ताज़ा ज़ख्मों से छलक उटठीं पुरानी टीसें
वरना हम दर्द का एहसास नया रखते थे.
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अपना सारा बोझ / इफ़्तेख़ार नसीम

अपना सारा बोझ ज़मीं पर फ़ेंक दिया
तुझको ख़त लिक्खा और लिख कर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
हरकत की ख्वाहिश थी, पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यों खाली-खाली लगती हैं
किसने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने क्यों मुझ पे समंदर फेंक दिया
वो कैसा था, उसको कहाँ पर देखा था
अपनी आंखों ने हर मंज़र फेंक दिया
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