अफ़साना सुनाता किसे, मसरूफ़ थे सब लोग.
अफ़साना किसी शख्स का, सुनते भी हैं कब लोग
चर्चा है, कि निकलेगा सरे-बाम वो महताब
इक टक उसे देखेंगे सुना आज की शब लोग.
ये फ़िक्र किसी को नहीं क्या गुज़री है मुझ पर
हाँ जानना चाहेंगे जुदाई का सबब लोग.
राजाओं नवाबों का ज़माना है कहाँ अब
फिर लिखते हैं क्यों नाम में ये मुर्दा लक़ब लोग
लज्ज़त से गुनाहों की जो वाक़िफ़ न रहे हों
इस तर्ह के होते थे न पहले, न हैं अब लोग
यूँ मसअले रखते हैं, लरज़ जाइए सुनकर
सीख आए हैं किस तर्ह का ये हुस्ने-तलब लोग.
लोग आज भी नस्लों की फ़ज़ीलत पे हैं नाजां
बात आए तो बढ़-चढ़ के बताते हैं नसब लोग.
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गुरुवार, 28 अगस्त 2008
वरक़-वरक़ मेरे ख़्वाबों के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
वरक-वरक मेरे ख़्वाबों के ले गई है हवा
पता नहीं उन्हें किन वादियों में डाल आए
शदीद दर्द सा महसूस कर रहा हूँ मैं
बिखर गया हूँ उन अवराक में कहीं मैं भी.
हुदूदे-जिस्म में शायद बचा नहीं मैं भी.
वो घर कि जिस में लताफत की जलतरंग बजे
मिलाये ताल तबस्सुम हया के नगमों से
सितार छेड़ रही हों शराफतें कुछ यूँ
कि हमनावाई के आहंग उभरें साजों से
वो घर भी ख़्वाबों के अवराक में रहा होगा
पढ़ा जो होगा किसी ने तो हंस दिया होगा
वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
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पता नहीं उन्हें किन वादियों में डाल आए
शदीद दर्द सा महसूस कर रहा हूँ मैं
बिखर गया हूँ उन अवराक में कहीं मैं भी.
हुदूदे-जिस्म में शायद बचा नहीं मैं भी.
वो घर कि जिस में लताफत की जलतरंग बजे
मिलाये ताल तबस्सुम हया के नगमों से
सितार छेड़ रही हों शराफतें कुछ यूँ
कि हमनावाई के आहंग उभरें साजों से
वो घर भी ख़्वाबों के अवराक में रहा होगा
पढ़ा जो होगा किसी ने तो हंस दिया होगा
वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
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मेरा बचपन / दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी
किधर गया आह मेरा बचपन, निजात थी जब गमे-जहाँ से.
न दिल था हसरत-कशे-तमन्ना, न थी ज़बां आशना फुगाँ से
कहाँ गई वो बहारे-तिफली, किधर गए वो निशात के दिन
गुलाब का सा ये मेरा चेहरा, न ज़र्द था जब गमे-खिजां से
मैं खुश था दिल में की गा रही है मेरी मुहब्बत का ये तराना
खुला न था राज़ इश्के-गुल का, जो मुझ को बुलबुल की दास्ताँ से
बहोत दिनों हमसफीर तेरा रहा हूँ बचपन की सुह्बतों में
हज़ार नगमे सुना किया हूँ मैं ऐ पपीहे तेरी ज़बां से
कभी शिगूफों को चुनता था मैं, कभी था कलियों को प्यार करता
निसार मैं भी था आह बुलबुल अदाए-गुल पर हज़ार जां से
कभी तमन्ना के चाँद को मैं, घर अपने लाऊं बना के मेहमां
कभी ये हसरत के तोड़ लाऊं मैं जा के तारे को आसमां से.
कभी जो आईने में यकायक नज़र पड़ी मुझ को अपनी सूरत
रहा हूँ पहरों मैं महवे-हसरत, की प्यारी शक्ल आई ये कहाँ से
लबों पे बचपन की क्या न आएगी अब वो मासूम मुस्कराहट
अधूरे अल्फाज़ ऐ जवानी वो क्या न निकलेंगे अब ज़बां से
नसीम देने को मुझ को लोरी, न शाम-फुरक़त में आएगी क्या
जिगर के टुकड़े उडेंगे कबतक, हवा में आहे-शरर-फिशां से
न थी गिरांबारिए-मशागिल न थी ये पाबंदिये-अलायक
असीरे-जंजीरे-गम न था मैं, निजात थी शोरिशे जहाँ से
मेरा घरौंदा था मेरा आँगन, उसी में मेहमां था मेरा बचपन
तुझे बुलाया था किसने जालिम शबाब तू आ गया कहाँ से.
हज़ार झगडे हैं ज़िन्दगी के हज़ार दुनिया के हैं बखेडे
सुरूर सदमे उठें तो क्योंकर उठें ये इक मुश्ते-नातवाँ से।
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न दिल था हसरत-कशे-तमन्ना, न थी ज़बां आशना फुगाँ से
कहाँ गई वो बहारे-तिफली, किधर गए वो निशात के दिन
गुलाब का सा ये मेरा चेहरा, न ज़र्द था जब गमे-खिजां से
मैं खुश था दिल में की गा रही है मेरी मुहब्बत का ये तराना
खुला न था राज़ इश्के-गुल का, जो मुझ को बुलबुल की दास्ताँ से
बहोत दिनों हमसफीर तेरा रहा हूँ बचपन की सुह्बतों में
हज़ार नगमे सुना किया हूँ मैं ऐ पपीहे तेरी ज़बां से
कभी शिगूफों को चुनता था मैं, कभी था कलियों को प्यार करता
निसार मैं भी था आह बुलबुल अदाए-गुल पर हज़ार जां से
कभी तमन्ना के चाँद को मैं, घर अपने लाऊं बना के मेहमां
कभी ये हसरत के तोड़ लाऊं मैं जा के तारे को आसमां से.
कभी जो आईने में यकायक नज़र पड़ी मुझ को अपनी सूरत
रहा हूँ पहरों मैं महवे-हसरत, की प्यारी शक्ल आई ये कहाँ से
लबों पे बचपन की क्या न आएगी अब वो मासूम मुस्कराहट
अधूरे अल्फाज़ ऐ जवानी वो क्या न निकलेंगे अब ज़बां से
नसीम देने को मुझ को लोरी, न शाम-फुरक़त में आएगी क्या
जिगर के टुकड़े उडेंगे कबतक, हवा में आहे-शरर-फिशां से
न थी गिरांबारिए-मशागिल न थी ये पाबंदिये-अलायक
असीरे-जंजीरे-गम न था मैं, निजात थी शोरिशे जहाँ से
मेरा घरौंदा था मेरा आँगन, उसी में मेहमां था मेरा बचपन
तुझे बुलाया था किसने जालिम शबाब तू आ गया कहाँ से.
हज़ार झगडे हैं ज़िन्दगी के हज़ार दुनिया के हैं बखेडे
सुरूर सदमे उठें तो क्योंकर उठें ये इक मुश्ते-नातवाँ से।
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बुधवार, 27 अगस्त 2008
तितलियाँ पकड़ने को / नोशी गीलानी
कितना सह्ल जाना था खुशबुओं को छू लेना
बारिशों के मौसम में, शाम का हरेक मंज़र
घर में क़ैद कर लेना
रौशनी सितारों की मुट्ठियों में भर लेना
कितना सह्ल जाना था, खुशबुओं को छू लेना
जुगनुओं की बातों से, फूल जैसे आँगन में
रोशनी सी कर लेना
उसकी याद का चेहरा ख्वाबनाक आंखों की
झील के गुलाबों पर, देर तक सजा रखना
कितना सह्ल जाना था.
ऐ नज़र की खुशफ़हमी ! इस तरह नहीं होता
तितलियाँ पकड़ने को दूर जाना पड़ता है।
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पहली बारिश / सफ़दर हाशमी
रस्सी पर लटके कपडों को सुखा रही थी धूप
चाची पीछे आँगन में जा फटक रही थी सूप
गैया पीपल की छैयां में चबा रही थी घास
झबरू कुत्ता प्यार से लेटा हुआ था उसके पास
राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा
अम्मा दीदी को संग लेकर गई थीं राशन लाने
आते में खुत्रू मोची से जूते थे सिलवाने
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाये
सबसे पहले शुरू हुई कुछ टप-टप बूंदाबांदी
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आंधी
मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अन्दर
गैया उठकर खड़ी हो गई, झबरा भागा भीतर
राज मिस्त्री ने गारे पर ढक दी फ़ौरन टाट
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी-फूटी खाट
हो गए चौडम-चौडा सारे धूप में सूखे कपड़े
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे
पलंग के नीचे जा लेटी, बिजली के डर के मारे
झबरू ऊंचे सुर में भौंका, गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने
अम्मा दीदी आयीं दौडी सिर पर रक्खे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले
सबने बारिश को कोसा और आँख भी खूब दिखायी
पर हम नाचे बारिश में और मौज भी खूब मनाई
मैदानों में भागे-दौडे, मारीं बहुत छलांगें
तब ही वापस घर लौटे जब थक गयीं दोनों टांगें
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चाची पीछे आँगन में जा फटक रही थी सूप
गैया पीपल की छैयां में चबा रही थी घास
झबरू कुत्ता प्यार से लेटा हुआ था उसके पास
राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा
अम्मा दीदी को संग लेकर गई थीं राशन लाने
आते में खुत्रू मोची से जूते थे सिलवाने
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाये
सबसे पहले शुरू हुई कुछ टप-टप बूंदाबांदी
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आंधी
मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अन्दर
गैया उठकर खड़ी हो गई, झबरा भागा भीतर
राज मिस्त्री ने गारे पर ढक दी फ़ौरन टाट
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी-फूटी खाट
हो गए चौडम-चौडा सारे धूप में सूखे कपड़े
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे
पलंग के नीचे जा लेटी, बिजली के डर के मारे
झबरू ऊंचे सुर में भौंका, गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने
अम्मा दीदी आयीं दौडी सिर पर रक्खे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले
सबने बारिश को कोसा और आँख भी खूब दिखायी
पर हम नाचे बारिश में और मौज भी खूब मनाई
मैदानों में भागे-दौडे, मारीं बहुत छलांगें
तब ही वापस घर लौटे जब थक गयीं दोनों टांगें
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कब कहा मैंने / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
कब कहा मैंने कि वो लालो-गुहर मांगता है.
इश्क़ की राह में मुझसे मेरा सर मांगता है.
इस ज़मीं पर नहीं उसकी कहीं कोई भी मिसाल
वो मगर हुस्न परखने की नज़र मांगता है.
शेर-गोई में सभी होते नहीं गालिबो-मीर
ये वो फ़न है जो ख़ुदा-दाद हुनर मांगता है.
एक रफ़्तार से चलते हुए थक जाता है वक़्त
और अफ़्लाक से कुछ ज़ेरो-ज़बर मांगता है.
घर में जब था तो कहा दिल ने कि सहरा में चलो
और सहरा में जब आया तो ये घर मांगता है.
इन्क़लाबात की बातें तो हैं आसान मगर
इन्क़लाबात का रुजहान शरर मांगता है.
ज़िन्दगी उसने मुझे दी है तो है फ़र्ज़ मेरा
उसको लौटा दूँ खुशी से वो अगर मांगता है.
मंजिलें होंगी सब आसान वो गर साथ रहे
उससे बस इतना ही दिल ज़ादे-सफ़र मांगता है
दिल की गहराइयों से निकलें तो कुछ बात बने
मुझसे जाफ़र वो दुआओं में असर मांगता है.
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इश्क़ की राह में मुझसे मेरा सर मांगता है.
इस ज़मीं पर नहीं उसकी कहीं कोई भी मिसाल
वो मगर हुस्न परखने की नज़र मांगता है.
शेर-गोई में सभी होते नहीं गालिबो-मीर
ये वो फ़न है जो ख़ुदा-दाद हुनर मांगता है.
एक रफ़्तार से चलते हुए थक जाता है वक़्त
और अफ़्लाक से कुछ ज़ेरो-ज़बर मांगता है.
घर में जब था तो कहा दिल ने कि सहरा में चलो
और सहरा में जब आया तो ये घर मांगता है.
इन्क़लाबात की बातें तो हैं आसान मगर
इन्क़लाबात का रुजहान शरर मांगता है.
ज़िन्दगी उसने मुझे दी है तो है फ़र्ज़ मेरा
उसको लौटा दूँ खुशी से वो अगर मांगता है.
मंजिलें होंगी सब आसान वो गर साथ रहे
उससे बस इतना ही दिल ज़ादे-सफ़र मांगता है
दिल की गहराइयों से निकलें तो कुछ बात बने
मुझसे जाफ़र वो दुआओं में असर मांगता है.
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हम अकेले ही सही / अजमल नियाज़ी
हम अकेले ही सही शह्र में क्या रखते थे
दिल में झांको तो कई शह्र बसा रखते थे
अब किसे देखने बैठे हो लिए दर्द की ज़ौ
उठ गए लोग जो आंखों में हया रखते थे
इस तरह ताज़ा खुदाओं से पड़ा है पाला
ये भी अब याद नहीं है कि खुदा रखते थे
छीन कर किसने बिखेरा है शुआओं की तरह
रात का दर्द ज़माने से छुपा रखते थे
ले गयीं जाने कहाँ गर्म हवाएं उनको
फूल से लोग जो दामन में सबा रखते थे
ताज़ा ज़ख्मों से छलक उटठीं पुरानी टीसें
वरना हम दर्द का एहसास नया रखते थे.
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दिल में झांको तो कई शह्र बसा रखते थे
अब किसे देखने बैठे हो लिए दर्द की ज़ौ
उठ गए लोग जो आंखों में हया रखते थे
इस तरह ताज़ा खुदाओं से पड़ा है पाला
ये भी अब याद नहीं है कि खुदा रखते थे
छीन कर किसने बिखेरा है शुआओं की तरह
रात का दर्द ज़माने से छुपा रखते थे
ले गयीं जाने कहाँ गर्म हवाएं उनको
फूल से लोग जो दामन में सबा रखते थे
ताज़ा ज़ख्मों से छलक उटठीं पुरानी टीसें
वरना हम दर्द का एहसास नया रखते थे.
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लेबल:
ग़ज़ल / अजमल नियाज़ी
अपना सारा बोझ / इफ़्तेख़ार नसीम
अपना सारा बोझ ज़मीं पर फ़ेंक दिया
तुझको ख़त लिक्खा और लिख कर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
हरकत की ख्वाहिश थी, पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यों खाली-खाली लगती हैं
किसने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने क्यों मुझ पे समंदर फेंक दिया
वो कैसा था, उसको कहाँ पर देखा था
अपनी आंखों ने हर मंज़र फेंक दिया
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तुझको ख़त लिक्खा और लिख कर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
हरकत की ख्वाहिश थी, पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यों खाली-खाली लगती हैं
किसने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने क्यों मुझ पे समंदर फेंक दिया
वो कैसा था, उसको कहाँ पर देखा था
अपनी आंखों ने हर मंज़र फेंक दिया
******************************
लेबल:
ग़ज़ल / इफ़्तेखार नसीम
दर्द का सूरज / अख्तर लखनवी
अब दर्द का सूरज कभी ढलता ही नहीं है।
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
********************************
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
********************************
लेबल:
ग़ज़ल / अख्तर लखनवी
मंगलवार, 26 अगस्त 2008
सूर दास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 6]
[36]
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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