सोमवार, 23 जून 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / भूमिका

सोई रसना जो हरि गुन गावै
आचार्य वल्लभ के भक्ति-दर्शन को केन्द्र में रख कर सूर-काव्य को व्याख्यायित एवं विवेचित करने की अपनी एक समृद्ध परम्परा है. किंतु यह परम्परा सूर के अध्ययन को इतना सीमित कर देती है कि विशुद्ध काव्य-सौन्दर्य के अनेक महत्त्वपूर्ण आयाम पाठक की दृष्टि से न केवल छूट जाते हैं, अपितु सूर की प्रासंगिकता पर भी अनेक प्रश्न-चिह्न लगा देते हैं. मैं समझता हूँ कि सूर के जो अध्येता वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में दीक्षित नहीं हैं, और जिन्होंने आचार्यश्री की कृतियों का अपेक्षित अध्ययन नहीं किया है, उन्हें भी सूर-काव्य न केवल अपने सशक्त चुम्बकीय गुणों के साथ आकृष्ट करता है, अपितु अपनी प्रभावक अभिव्यक्ति, नाटकीय प्रस्तुति, गतिशील चित्रात्मकता, सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि, रंगों, बिम्बों, ध्वनियों और आकारों की अंतरंग एकस्वरता और उनकी अर्थ-विस्तार क्षमता के कारण अपना अदभुत प्रशंसक बना देता है.
मध्ययुगीन इतिहास के विवादास्पद बिन्दुओं को गहराकर सूर के विभिन्न आलोचकों ने एक विशेष दृष्टिकोण को जिस प्रकार बारम्बार रेखांकित करने का प्रयास किया है, उससे मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की सौहार्दपूर्ण वैचारिकता लगभग लड़खड़ा सी जाती है. जीव, जगत और ब्रह्म के अंतर्संबंधों को विवेचित करने की प्रत्येक जाति, धर्म और देश में एक लम्बी परम्परा रही है. सिद्ध और नाथ कवियों ने इस परम्परा को केवल बौद्धिकता के स्तर पर मूल्यांकित करने का प्रयास किया. सूफी संतों के प्रादुर्भाव से विशुद्ध ज्ञान की इस परम्परा में प्रेम के रस की चाशनी कुछ इस प्रकार घुल-मिल गई कि सम्पूर्ण चिंतन जीवंत हो उठा. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम को शब्द और अर्थ देने की सूफी परम्परा ने सगुण ब्रह्म की उपासना के लिए न केवल उर्वर भूमि तैयार कर दी अपितु वैष्णव चिंतन को लोकप्रिय बनाने में सशक्त भूमिका का निर्वाह किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह मान्यता यदि स्वीकार कर ली जाय कि श्री वल्लभाचार्य ने अपने पुष्टिमार्ग का प्रदर्शन बहुत कुछ देश काल देख कर किया तो इस तथ्य को सहज ही नकारा नहीं जा सकता कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ई0) तथा उनके शिष्यों द्वारा स्थापित एवं प्रचारित समा (सूफियों का आध्यात्मिक गायन-वादन) की गोष्ठियों में निरंतर गहराते प्रेम-मूलक भक्ति के भाव से श्री वल्लभाचार्य प्रभावित अवश्य हुए. पुष्टिमार्ग में लौकिकता को अलौकिकता का साधन, माध्यम या प्रतीक मानने के पीछे कहीं-न कहीं परंपरागत सूफी भावना काम कर रही थी, जो प्रेमी, प्रेम और प्रेय को एक दूसरे से पृथक नहीं मानती.
मध्ययुग तक आते-आते कबीर का निर्गुण राम, सूफी प्रेम-मूलक भक्ति की मर्यादित परम्परा का प्रभावगत कोमल स्पर्श पाकर सगुण ब्रह्म के रूप में मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की रामानंदीय छवि के साथ प्रतिष्ठित हो गया.किंतु रामकाव्य की परम्परा ब्राह्मणवादी चिंतन की सिद्धान्तगत संकीर्ण परिधियों को लांघकर अन्य धर्मावलम्बियों के मध्य अपने लिए स्थान नहीं बना सकीं. इसके विपरीत कृष्ण के रूप में सगुण ब्रह्म की स्वछन्द लीलाओं का गुणगान, क्षेत्र और धर्म की परिधियों से निकलकर सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में इस प्रकार रच-बस गया कि हिन्दुओं से इतर अनेक प्रतिष्ठित मुस्लमान कवियों ने कृष्ण के रूप-सौंदर्य के विवेचन में स्वयं को पूरी तरह निमज्जित पाया. इसका एक कारण यह भी था कि सूफियों की सौंदर्यमूलक प्रेमाभक्ति, जिसकी आधारशिला ही इस हदीस पर थी कि परमात्मा सौन्दर्यशील है और वह सौंदर्य को प्रिय रखता है, कृष्ण-भक्ति-काव्य में अपनी पर्याप्त गूँज महसूस कर रही थी.
शास्त्रीय चिंतन जहाँ अपने सैद्धांतिक पक्ष के कारण छोटे-छोटे खेमों में बटा दिखाई देता है, वहीँ आध्यात्मिक विचारधारा एक निरंतर प्रवाहित सरिता की भांति अपना विस्तार नापती रहती हैं. भक्ति-काव्य के मूल में यही सौंदर्यमूलक आध्यात्मिक वैचारिकता है जो न केवल इसे अर्थ प्रदान करती है, अपितु जाति, धर्म, देश,काल और भाषा से ऊपर उठकर, इसके आस्वादन के लिए प्रेरित करती है. कदाचित यही कारण है कि सूर के विनय के गीति पदों में और सूफियों की नातिया रचनाओं में अनेक स्थलों पर जो भाव-साम्य दिखाई देता है वह धर्मगत आस्थाओं की विभाजन रेखाओं को मेरे लिए तोड़ देता है. सूफी चिंतकों ने हज़रात मुहम्मद के जन्म के बहुत पूर्व,सृष्टि के आरम्भ के ही उनकी दिव्य-ज्योति के अस्तित्व को स्वीकार किया है. इसास्था की बुनियाद में नबी श्री की दो हदीसें 1. 'परमात्मा ने सबसे अफल मेरी ज्योति पैदा की" तथा 2. "मैं उस समय भी था जब आदि पुरूष आदम अस्तित्व धारण करने की स्थिति में थे." स्वीकार की गई हैं. इस प्रकार सभी नबी हज़रात मुहम्मद के ही अंशभूत हैं.फ़ारसी के प्रसिद्द कवि एवं सूफी चिन्तक महमूद शाबिस्त्री (मृ0 1320 ई0) के अनुसार अहमद (नबीश्री) तथा अहद (परब्रह्म) में केवल एक मीम अक्षर का अन्तर है और इसी एक मीम के भीतर सम्पूर्ण जगत समाहित है –
ज़ 'अहमद' ता 'अहद', यक 'मीम' फ़र्क़ अस्त
जहाने अन्दराँ यक 'मीम', ग़र्क़ अस्त

'अहमद' और 'अहद' के इसी ऐक्य को शेख अब्दुलकुद्दूस गंगोही (ज0 1456 ई0) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है -"महमद महमद जग कहै, चीन्है नाहीं कोय / अहमद मीम गँवाइया, कह क्यों दूजा होय." पदमावत (1540 ई0) में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना को नबीश्री मुहम्मद की प्रीती का परिणाम बताया गया है-"प्रथम ज्योति बिधि तेहि कै साजी / औ तेहि प्रीती सिस्टि उपराजी."
सूफी चिंतन नबीश्री के गुणतत्त्वों के प्रकाश में उन्हें पूर्ण पुरूष (इन्साने-कामिल) मानता है. पुष्टिमार्ग में इसी उच्चतम तत्त्व को पुरुषोत्तम स्वीकार किया गया है. ब्रह्मवाद, समस्त देवों सहित जगत का पुरुषोत्तम से प्रकट होना स्वीकार करता है. सूर ने "कृशनहि ते यह जगत प्रकट है, हरि में लय ह्वै जावै" के माध्यम से इसी तथ्य का संकेत किया है. मुहम्मद अव्वल भी हैं, आख़िर भी और इस दृष्टि से अनंत, अनुपम और अविनाशी भी हैं. सूरदास श्रीकृष्ण के पुरुषोत्तम रूप का निरूपण इन्हीं शब्दों में करते हैं -"अविगत, आदि, अनंत, अनुपम, अलख,पुरूष, अविनाशी"
नबीश्री को श्रीप्रद कुरआन में 'मुदस्सिर' (चादर ओढ़ने वाला) और 'मुज़म्मिल' (कमली ओढ़ने वाला) कहा गया है. सूर के आराध्य कृष्ण पीताम्बर धारी भी हैं और कमली धारी भी. नबीश्री 'हिरा' पर्वत के भीतर प्रवेश करके और श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को धारण कर के अपने विराट रूप से साक्षात्कार करते हैं. मुहम्मद का सौन्दर्य अद्वितीय है. सभी नबियों में जो सौन्दर्य पृथक-पृथक था वह सब का सब नबीश्री में एक साथ एकत्र हो गया है. सूर के आराध्य कृष्ण का सौन्दर्य अनुपम और अदभुत है. वे सुन्दरता के ऐसे सागर हैं जिन का विवेचन बुद्धि-बल और विवेक-बल के आधार पर नहीं किया जा सकता. उस सौन्दर्य का आनंद मन-ही-मन लिया जा सकता है.
मैं ने 1984 ई0 में जिस समय राम-काव्य (अब किसे बनवास दोगे) की रचना की, मेरे चिंतन के मूल में राम के सम्पूर्ण चरित्र को एक सांस्कृतिक किरणबिन्दु के भीतर से विकसित करने का उद्देश्य था. मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ इसका अनुमान मैं इस तथ्य के प्रकाश में सहज ही कर सकता हूँ कि पण. बद्री नारायण तिवारी अबतक मानस संगम कानपुर से इसके तीन संस्करण प्रकाशित कर चुके हैं. वस्तुतः यह सांस्कृतिक किरण बिन्दु वैष्णव अथवा गैर वैष्णव न होकर मिली-जुली संस्कृति का विशुद्ध भारतीय किरण-बिन्दु था जिसके कथा-बीज में मेरी सौन्दर्य-मूलक चेतना अपना विस्तार तलाश रही थी.
मैं विगत तीस-पैंतीस वर्षों से सूर-काव्य का स्वान्तः सुखाय अद्ययन करता रहा हूँ. मुझे सूर काव्य में भारतीय ओके-संस्कृति की जिस भीनी-भीनी कस्तूरी सौगंध का बोध हुआ उसपर मैं पूरी तरह मुग्ध हो उठा. सूर द्वारा प्रतिपादित श्रीकृष्ण का गुणातीत, निर्विशेष, कर्त्ता, निर्विकार एवं संसार के सब धर्मों से रहित स्वरुप मुझे मेरी आस्था के साथ एकस्वर दिखायी दिया. कदाचित इसीलिए मुझे रूपांतर करते समय भी मूल रचना के आनंद की प्रतीति हुई. मुझे महसूस हुआ कि सूर वास्तव में अंधे नहीं थे. उनका अंधापन उस सांसारिकता के प्रति था जो आराध्य से दृष्टि हटाकर भक्त को भटकाव की स्थिति में छोड़ देती है. जगत की परिणति निश्चय ही ब्रह्म से भिन्न नहीं है. सूर के पदों का अनुवाद मेरे लिए श्रीकृष्ण के लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक ब्रह्म को पहचानने और उसके प्रति समर्पित हो जाने का एक प्रयास है.
मुझे इस बात का दुःख है कि भारत में मुसलामानों के प्रवेश को मुस्लिम शासकों की आक्रामक पृष्ठभूमि में ही सदैव मूल्यांकित किया गया. जबकि तथ्य यह है कि गोरी और ग़ज़नवी से बहुत पहले उत्तरी भारत में मुस्लिम सूफी साधक एक बड़ी संख्या में आ चुके थे और सौम्य स्वाभाव एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार के कारण पर्याप्त लोकप्रिय भी हो चुके थे. दक्षिण भारत में तो व्यापारिक संबंधों के कारण भाईचारे का वातावरण बहुत पहले से बनने लगा था. वहाँ किसी मुस्लिम शासक का कोई आक्रमण कभी नहीं हुआ. स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति का प्रचार-प्रसार किसी मुस्लिम साम्राज्य द्बारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचार, आतंक अथवा दबाव का परिणाम नहीं था. भक्ति की स्वच्छंद धारा किसी आतंक अथवा अत्याचार के वातावरण में स्वच्छ शीतल निर्झर की भांति प्रवाहित भी नहीं हो सकती थी.
मध्ययुगीन मानसिकता में रूढिवादिता और जड़ता को देखना आंशिक सत्य को उजागर करता है. मुस्लिम शास्त्रचार्यों अथवा पंडितों की रूढिवादिता के समानान्तर नाथपंथियों, संतों और सूफ़ियों के प्रगतिशील असहमतिमूलक आक्रोश को जड़ता का नाम नहीं दिया जा सकता. भारतीय जनमानस मुल्लाओं और पंडितों की अपेक्षा नाथपंथियों, सूफ़ियों और संतों से कहीं अधिक निकट से जुड़ा हुआ था. कृष्णभक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग के सभी प्रेममूलक रंगों को अपने भीतर समाहित किया. फलस्वरूप सूफी संतों ने भी विष्णुपदों के लालित्य के साथ एकरंगता महसूस की, जिसकी ध्वनि अकबरकालीन सूफ़ी चिन्तक मेरे अब्दुलवाहिद बिलग्रामीकृत 'हक़ायक़े -हिन्दी' नामक ग्रन्थ में अनुभव की जा सकती है, जिसमें लेखक ने विष्णुपदों की शब्दावली की सूफ़ीपरक व्याख्या प्रस्तुत की है (यह ग्रन्थ नगरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है). सैयद गुलाम अली 'रसखान' और बरकतुल्लाह 'पेमी' की रचनाओं को इसी के प्रकाश में व्याख्यायित किया जाना उपयुक्त है. सच पूछा जाय तो कृष्णभक्ति काव्य भारतीय जनमानस को विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य कर रहा था. सूरदास का इस दिशा में अविस्मरणीय योगदान स्वीकार किया जाना चाहिए.
सूर का काव्य कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अदभुत है. उसमें उन्मेषशालिनी प्रतिभा भी है और बिम्ब-संयोजन की कलात्मक क्षमता भी. सूर के सौन्दर्य-बोध को मानसिक और कल्पनाशील स्वीकार करना और तुलसी के सौन्दर्य-बोध को लौकिक और जीवन-सापेक्ष समझाना सूर के साथ अन्याय करना है. द्रष्टव्य यह है कि सूर का काव्य-लोक जीवन से किसी स्टार पर भी कटा हुआ नहीं है. बल्कि यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि तुलसी की तुलना में सूर की लोकजीवन-दृष्टि कहीं अधिक पैनी है. उसका फलक ग्रामीण जीवन के सहज क्रिया-कलापों से ऊर्जा प्राप्त करता है, मथुरा से सम्बद्ध कृष्ण की समस्त गतिविधियों का शांत मन से अवलोकन करता है, उद्धव और गोपियों के संवाद के माध्यम से युगीन सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक और आस्थागत मुद्दों का जायज़ा लेता है और काव्य-संगीत के लयात्मक आरोह-अवरोह से जन्मी प्रकाशयुक्त जीवन तरंगों पर तैरता है.
सूर युगीन फ़ारसी ग़ज़ल अपनी कोमल मधुर शब्दावली, अद्भुत कल्पनाशीलता,सहज दो-टूक संप्रेषण क्षमता और सूक्ष्म युगबोध की कलात्मक प्रस्तुति के कारण भारतीय भाषाओं के लिए एक चुनौती बनी हुई थी. दोहे की कविता में ग़ज़ल के शेरों का गुण अवश्य था जो उसे जन सामान्य में लोकप्रिय बनाए हुए था, किंतु ग़ज़ल की विभिन्न रागों में ढल जाने वाली आकर्षक लयात्मकता से वे पूरी तरह वंचित थे.सूर ने विभिन्न भरतीय रागों पर आधारित गीति-पदों की रचना कर के ब्रज भाषा काव्य को फ़ारसी ग़ज़ल के सामानांतर खड़ा कर दिया. मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, जायसी, तुलसी आदि फ़ारसी की मसनवी के समकक्ष अवधी कथा-काव्य परम्परा को समृद्ध कर चुके थे. सूर काव्य में भक्ति की चाशनी के साथ ग़ज़ल का लालित्य सहज ही इस प्रकार समाविष्ट हो गया कि उसका प्रभाव निरंतर गहराता गया और सूर युगीन फ़ारसी कवि भी गीति-पद की ओर आकृष्ट हुए बिना न रह सके.
सूर के काव्य में रूप-सौन्दर्य की मूर्त्त रमणीय अभिव्यक्ति है. नैसर्गिकता, स्वच्छन्दता, असाधारणता और कल्पनाशीलता का अनुकूल सहयोग पाकर, यह अभिव्यक्ति और भी स्पन्दनशील हो उठती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मर्यादा-ग्रस्त पैमाना सूर द्वारा प्रस्तुत राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंगों को मूल्यांकित करने के लिए छोटा पड़ जाता है. उनकी स्थूल दृष्टि बाह्यार्थ-निरूपक तत्त्वों से टकराकर वापस लौट आती है. वे लीला-प्रसंगों में अंतर्मुखी-अनुभूति की तरलता और तीव्रता को महसूस करने में असमर्थ हैं. कवि और पात्रों की अनुभूति, अभिव्यंजना के औचित्य का स्पर्श पाकर ऐन्द्रिय-सौन्दर्य जगत से आत्मिक-सौन्दर्य जगत में कब और किस समय अनायास चली जाती है, शुक्ल जी इस तथ्य का आभास नहीं कर सके हैं. सूर का रूप-सौन्दर्य केवल भौतिक ऐन्द्रिय-सौन्दर्य नहीं है, उसमें सौन्दर्य के बाह्य एवं अभ्यंतर पक्षों के बारीक-से-बारीक पहलुओं की स्थिति-जन्य गतिशील अभिव्यंजना सहज ही देखी जा सकती है.
सूर काव्य के सांस्कृतिक पक्ष का सूर के अध्येताओं ने सविस्तार विवेचन किया है, किंतु सूर की सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया है. कारण शायद यह है कि विद्वानों ने यह पहले से ही स्वीकार कर लिया है कि सूर की वैचारिक परिधियों में सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों के लिए कोई स्थान नहीं है. किंतु ध्यान पूर्वक देखने पर सूर काव्य में जहाँ वाक्चातुर्य से लैस संवादों की प्रभावक प्रस्तुति है, बाल सुलभ चेष्टाओं की विनोदपूर्ण नट-खट सजीव अभिव्यंजना है, ममत्व का परिस्थिति-जन्य आह्लादमय आस्वादन है, नन्द और यशोदा के संवेदनशील मन की वात्सल्य रस से सिक्त छटपटाहट है, रूठना, मनाना, खीझना-रीझाना, नाचना-झूमना,उलाहने देना, ताने कसना, बात से मुकर जाना आदि अनेक मानव मनोविज्ञान से जुड़े प्रसंग हैं, वहीं युग, समाज और व्यवस्था पर कहीं हलकी, कहीं तीखी चोट करते रहना सूर के गीति-पदों की एक विशिष्ट पहचान है.
उद्धव के साथ गोपियों के संवाद का फलक, यदि बारीकी से देखा जाय, तो राजनीतिक स्थितियों के व्यंग्यात्मक चित्रों से भरा हुआ मिलेगा. सूर युगीन दुर्बल प्रशासनिक व्यवस्था पर गोपियाँ उद्धव को संबोधित कर के पैनी चोट करती हैं -
ऊधौ ! तुम्हारा तौर तरीका भी खूब है
राजा भी खूबतर है, रिआया भी खूब है
तुम जैसा उनका अफ़्सरे-आला भी खूब है
आमों को काट कर के लगाते हो तुम बबूल
चंदन को ख़त्म कर के उडाते हो सिर्फ़ धूल
तुम शाह को पकड़ते हो चोरों को छोड़ कर
नज़रों में हैं तुम्हारी चुगलखोर मोतबर
ऐ 'सूर' कैसे होगा भला इस तरह निबाह
सरकार बेलगाम है, जनता है सब तबाह.

सूर की दृष्टि में 'अंधाधुंध' सरकार के साथ निर्वाह कर पाना बड़ा ही कष्टसाध्य कार्य है. और वह भी ऐसी स्थिति में, जब चुगली करने वाले विश्वसनीय समझे जाएँ और अपराधियों को मुक्त कर के सीधे-सच्चे लोगों को अपराधी ठहराकर बंदी बनाया जाय. राजा को तो वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि उसकी प्रजा हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार से मुक्त हो -
राजा का 'सूर' फ़र्ज़ तो होता है बस यही
जौरो-सितम से उसकी रिआया न हो दुखी

किंतु सूर के युग की विचित्र विडम्बना है -
ऐ 'सूर' हैं ये सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ
मिलाता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ

सच पूछिए तो "सूरदास यह जग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत" की स्थिति सूर युगीन समाज की तुलना में आज कहीं अधिक प्रासंगिक है. प्रेमचन्द ने जिस समय महाजनी सभ्यता पर निबंध लिखा और महाजनों तथा साहूकारों क्र अत्याचार के चित्र कथा-साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किए, वामपंथी आलोचकों ने उनकी प्रगतिशीलता को एक ख़ास नज़रिए से मूल्यांकित किया. सूर महाजनी सभ्यता के इस रुख से अच्छी तरह परिचित थे. स्थिति यह थी कि महाजन क़र्ज़ का पैसा वापस न मिलने के बदले में मवेशी तो खोल ही ले जाता था, घर में बचे-खुचे चारा-पानी को भी हज़म कर जाने की इच्छा उसमें पर्याप्त बलवती थी -
पहले तो 'सूर' खोले महाजन ने जानवर
अब चारा हज़्म करने पे आमादा है लईं

ज़मीनदारों और पटवारियों के अत्याचार की कथाएं प्रेमचंद साहित्य में पर्याप्त महत्त्व रखती हैं. सूर का किसान प्रेमचंद के किसान से कुछ कम पीड़ित नहीं है. गाँव की ऊसर ज़मीन पर खेती करने से कितनी उपज हो सकती है यह सहज ही महसूस किया जा सकता है. पंचजन यदि कारकुन से मिलकर मन-ही-मन षड़यंत्र रचें और ज़मीनदार खेत के कागजात माँगने लगे,तो बेचारे किसान की कितनी दयनीय स्थिति होगी ( विस्तार के लिए देखिये सीताराम चतुर्वेदी संपादित सूर ग्रंथावली, खंड 4, पद 4491 )
सूरदास के पदों का काव्यानुवाद करते समय मैंने इस बात का विशेष ध्यान रक्खा है कि कवि का प्रतिनिधि साहित्य पाठकों तक पहुँचा सकूँ. विनय, वात्सल्य और श्रृंगार से इतर, अनेक ऐसे प्रसंगों को भी मैं ने समेटने का प्रयास किया है, जिन से सूर के काव्य-फलक की सीमाएं समझी जा सकें. सूर सागर के विभिन्न संपादित संस्करणों में जो पाठ भेद हैं उन से मुझे बड़ी कठिनाई हुई है. फिर भी मैं ने स्तरीय पाठ को ही आधार बनाया है.
प्रारंभ में जब मैं ने कुछ पदों के अनुवाद किए तो मेरे वरिष्ठ विभागीय सहयोगी प्रो. गोवर्धन नाथ शुक्ल ने उनकी जिन शब्दों में प्रशंसा की उस से मुझे कल्पनातीत प्रोत्साहन मिला. उन्हीं दिनों मित्रवर लल्लन प्रसाद जी व्यास ने कुछ काव्यानुवाद 'विश्व हिन्दी दर्शन' में प्रकाशित किए जिन्हें पाठकों ने बहुत अधिक सराहा. किंतु अनेक पारिवारिक परीशानियों से घिरा होने के कारण मैं वर्षों इस कार्य की ओर ध्यान न दे सका. इधर मेरे अग्रज प्रो. कैलाशचंद्र भाटिया ने मुझे बार-बार टोक कर इस कार्य के लिए पुनः प्रेरित किया. मुझे प्रसन्नता है कि मैं सूरदास के एक सौ एक पदों का काव्यानुवाद करने के अपने संकल्प को पूरा कर सका. वैसे तो मैं ने बहुत ही ईमानदारी से मनोयोग पूर्वक इस कार्य को संपन्न करने का प्रयास किया है, फिर भी कहीं मैं यदि सूर जैसे महान कवि की भावनाओं को यथावत रूपांतरित नहीं कर सका हूँ, तो इसका कारण मेरी अपनी काव्य-प्रतिभा की कमी ही हो सकती है. मुझे विशवास है कि सूर के पाठक मेरे दोषों के लिए मुझे क्षमा कर देंगे
10 जून, 1998 प्रो. शैलेश ज़ैदी
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय

रविवार, 22 जून 2008

पसंदीदा शायरी / शहरयार

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
जिंदगी जैसी तमन्ना थी, नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है पहली सी नहीं, कुछ कम है
[ 2 ]
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो गर्के-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरया उतर गया यारो
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो
[ 3 ]
हम पढ़ रहे थे ख्वाब के पुर्जों को जोड़ के
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख्वाब की सूरत दिखायी दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
[ 4 ]
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तर्ह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने
[ 5]
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबां मिली है मगर हम-ज़ुबां नहीं मिलता
बुझ सका है भला कौन वक्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता
********************

शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / बशीर बद्र

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो
वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो दुआ में मेरी असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महवे-ख्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब् के फूल को चूम के
यूँही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे खराबे की रोशनी, कभी बे-चराग़ ये घर न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो
[ 2]
अभी इस तरफ़ न निगाह कर, मैं ग़ज़ल की पलकें संवार लूँ
मेरा लफ्ज़-लफ्ज़ हो आइना, तुझे आइने में उतार लूँ
मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब् का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
अगर आस्मां की नुमाइशों में, मुझे भी इज़ने-क़याम हो
तो मैं मोतियों की दूकान से, तेरी बालियाँ, तेरे हार लूँ
कई अजनबी तेरी राह के, मेरे पास से यूँ गुज़र गए
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई, तेरा नाम ले के पुकार लूँ
[ 3 ]
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबखाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फाख्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की जिंदगी में आयेगी
कितनी देर लागती है उसको भूल जाने में
[ 4 ]
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहोत तलाश किया कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
बहोत अजीब है ये कुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैं ने
बस एक शख्स को माँगा मुझे वही न मिला
[ 5 ]
यूँही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की एक किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तेहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सूना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो, ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो
ये खिज़ां की ज़र्द सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो
नहीं बेहिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मिए-शौक़ से, बड़ी देर तक न तका करो
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पसंदीदा शायरी / 'जिगर' मुरादाबादी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई

[ 2 ]
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

[ 3 ]
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले

[ 4 ]
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं

[ ५ ]
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

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शुक्रवार, 20 जून 2008

पुरानी शराब / हैदर अली ‘आतिश’ दिहलवी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझको खल्क़े-खुदा गाइबाना क्या
ज़ेरे-ज़मीं से आता है गुल, सोज़ ज़रबकफ़
क़ारूं ने रास्ते में लुटाया ख़ज़ाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्ते-ख़ाक
बामे-बलंद, यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ़ से सूरते-जानां हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना-खाना क्या
तब्लो-अलम है पास न अपने है मुल्को-माल
हम से ख़िलाफ़ होके करेगा ज़माना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
आतिश गज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या
[ 2 ]
इंसाफ़ की तराजू में तोला, अयाँ हुआ
यूसुफ़ से तेरे हुस्न का पल्ला गराँ हुआ
मादूम दागे-इश्क़ का दिल से निशाँ हुआ
अफ़सोस, बे-चराग़ हमारा मकाँ हुआ
देखा जो मैं ने उसको समंदर की आँख से
गुलज़ार आग हो गई, सुम्बुल धुंवां हुआ
तू देखने गया लबे-दरया जो चाँदनी
उस्द्तादा तुझको देख के आबे-रवां हुआ
इन्सां को चाहिए के न हो नागवारे-तब'अ
समझे सुबुक उसे जो किसी पर गराँ हुआ
अल्लाह के करम से बुतों को किया मुतीअ
ज़ेरे-नगीं क़लम-रवे-हिन्दोस्तां हुआ
क़ातिल की तेग़ से रहे-मुल्के-अदम मिली
आहन हमारे वास्ते संगे-निशाँ हुआ
फ़िकरे- बलंद ने मेरी ऐसा किया बलंद
आतिश ज़मीने-शेर से पस्त आसमां हुआ
[ 3 ]
वहशते-दिल ने किया है वो बियाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरते-इन्सां पैदा
दिल के आईने में कर जौहरे-पिन्हाँ पैदा
दरो-दीवार से हो सूरते-जानां पैदा
बाग़ सुनसान न कर इनको पकड़ कर सैयाद
बादे-मुद्दत हुए हैं मुर्गे-खुश-इल्हाँ पैदा
रूह की तर्ह जो दाखिल हो वो दीवाना है
जिसमे-खाकी समझ उसको जो हो ज़िन्दाँ पैदा
बे-हिजाबों का मगर शहर है अक्लीमे-अदम
देखता हूँ जिसे, होता है वो उरयां पैदा
एक गुल ऐसा नहीं होवे खिज़ाँ जिसकी बहार
कौन से वक्त हुआ था ये गुलिस्ताँ पैदा
मूजिद इसकी है सियह-रोज़ी हमारी 'आतिश'
हम न होते तो न होती शबे-हिजरां पैदा
[ 4 ]
तेरी मस्ताना आंखों पर न गर्दिश का असर देखा
मए-गुलरंग से सौ-सौ तरह पैमाना भर देखा
मुसाफ़िर ही नज़र आया, नज़र आया जो दुनिया में
जिसे देखा, उसे आलूदए- गर्दे-सफ़र देखा
नया ग़म्ज़ा किया सैयाद ने अपने असीरों से
किया आज़ाद उसे, जिस मुर्ग़ को बे बालो-पर देखा
ख़बर इक दिन न ली, पूछा न हाल अपने फ़क़ीरों का
वो शाहे-हुस्न, हमने बादशाहे-बेखबर देखा
तड़पते देख कर मुझको कहा हंस कर ये उस बुत ने
खुदा के दोस्त को रंजो-अलम में बेशतर देखा
बदख्शां-ओ-यमन छाना, लगाए गोते दरया के
न लब सा लाल, ऐ 'आतिश', न दंदां सा गुहर देखा
[ 5 ]
आशियाना, न क़फ़स औ न चमन याद आया
आँख खुलने भी न पायी थी कि सैयाद आया
एक दिन हिचकी भी आई न मुझे गुरबत में
मैं कभी तुमको न ऐ अहले-वतन याद आया
सोज़िशे-दिल मेरी क्या बनके क़लम लिक्खेगा
मोम हो हो के है बह जाने को फ़ौलाद आया
सज्दए-शुक्र ज़मीं पर न करूँ मैं क्योंकर
आसमां से है मेरा रिज़के-खुदादाद आया
देखले फिर ये तमाशा नज़र आने का नहीं
सामने आंखों के है आलमे-ईजाद आया
दर्गहे-यार मुरादों की महल है 'आतिश'
शाद याँ से है गया, जब कोई नाशाद आया
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गुरुवार, 19 जून 2008

मुक्तिबोध ने कहा था

1. जनता का साहित्य'

जनता का साहित्य', जनता को तुरत समझ में आने वाला साहित्य हरगिज़ नहीं. अगर ऐसा होता तो किस्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते. साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं. सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलंदी, बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनाने या पढने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है. वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार. किंतु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वाराताभी सम्भव है जब स्वयं सुनाने वाला या पढने वाले की अवस्था शिक्षित की हो. [ फरवरी 1953 ]

2. 'प्रगतिशीलता' और मानव-सत्य

'मनुष्य-सत्य' का अनादर करने वाले साधारण रूप से दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों से आते है. एक वे, जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खड़ा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं - जो उसमें फिट हो जाय वह प्रगतिशील, और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी. यह उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रस्तुत और अप्रस्तुत, मुखर और गोपनीय निर्णय होता है. ये लोग उत्पीडित मध्य-वर्ग के जीवन के तत्त्वों से दूर अलग-अलग होते हैं. भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबी के कितने ही हिमायती क्यों न हों, इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध, अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की बहुमुखी प्रवृत्तियों से निपीडित होता है. बोधहीन बौद्धिकता का शिकार, यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है, उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता.

दूसरे क्षेत्र के प्रतिनिधि कष्टग्रस्त जीवन के कारण कवि में उतपन्न हुई अंतर्मुखता का उपयोग अपने लिए करना चाहते हैं. वे उस अंतर्मुखता के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर, उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं की वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूट कर अलग हो जाय.

[नई दिशा, मई 1955]

बुधवार, 18 जून 2008

आंखों से जुड़ी कुछ ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सावन की घटा बन के बरसती हुई आँखें
भीगा हुआ मौसम हैं ये भीगी हुई आँखें
ख़्वाबों में उतर आती हैं चुप-चाप दबे पाँव
दोशीज़ए-माजी की चमकती हुई आँखें
ये सोचके जाता नहीं मयखाने की जानिब
आजायें न फिर याद वो भूली हुई आँखें
इस दौर में क्या जाने कोई क़द्र गुहर की
दो बेश-बहा सीप हैं सोई हुई आँखें
रुक कर मेरी नज़रें किसे पहचान रही हैं
शायद हैं ये पहले कभी देखी हुई आँखें
सायल की तरह आई हैं दरवाज़ए-दिल पर
कश्कोले-तमन्ना लिए सहमी हुई आँखें
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दमकते चाँद से रुख पर बड़ी-बड़ी आँखें
बला का रखती हैं अंदाजे-दिलबरी आँखें
मैं जानता हूँ के होती हैं किस क़दर शीरीं
हसीन पलकों के शीशे में शरबती आँखें
किसी को नफ़रतें देती हैं प्यार के बदले
किसी से करती हैं इज़हारे-दोस्ती आँखें
गुलाबी शोख़ लिफ़ाफ़ों में है वफ़ा के खुतूत
छुपी हैं पर्दए-मिज़गाँ में प्यार की आँखें
सहर का नूर भी हैं, रात की सियाही भी
हयातो-मौत की तस्वीर खींचती आँखें
दिलों के बंद खज़ानों को खोल कर अक्सर
जवाहरात परखती हैं जौहरी ऑंखें
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गुफ्तुगू निगाहों की एतबार आंखों का
दिल पे हो गया आख़िर इख्तियार आंखों का
मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है
ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का
आंसुओं के दरया में डूब-डूब जाता हूँ
ज़िक्र जब भी आता है अश्कबार आंखों का
मस्तिए-शराब इतनी देर-पा नहीं होती
नश'अ और ही कुछ है बावक़ार आंखों का
किस तरह मैं ठुकरा दूँ तुम ही कुछ कहो जाफर
दावतें हैं नज़रों की इन्केसार आंखों का
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आरजूओं का जहाँ हैं आँखें
तशना ख्वाबों की ज़बां हैं आँखें
भीग जाएँ तो समंदर कहिये
वरना साहिल की फुगाँ हैं आँखें
ये नहीं हैं तो जहाँ है तारीक
दौलते- माहवशां आँखें
जिनमें गुम हो गया माजी मेरा
कौन जाने वो कहाँ हैं आँखें
कैसे गम अपना छुपाये कोई
तर्जुमाने-दिलो-जाँ हैं आँखें
क्या हुआ आपको जाफर साहब
किस लिए अश्क-फ़िशां हैं आँखें
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अपने दामन में लिए शहरे तमन्ना ऑंखें
देखती रहती हैं दुनिया का तमाशा आँखें
यादें बादल की तरह ज़ेह्न पे छा जाती हैं
और अश्कों का बहा देती हैं दरया आँखें
दूर से इन पे समंदर का गुमाँ होता है
पास आने पे नज़र आती हैं तशना आँखें
इनमें सुर्खी भी, सियाही भी, सफेदी भी है
हू-ब-हू अक्स हैं तिरबेनी का गोया आँखें
आँखें मिलती हैं तो बढ़ जाता है कुछ और भी गम
लोग कहते हैं के होती हैं मसीहा आँखें
काम लेते हो हर इक लम्हा तुम इनसे जाफर
हो न जाएँ कहीं बाज़ार में रुसवा आँखें
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'चाँद के पत्थर' (1970) काव्य-संग्रह से साभार

रसलीन और बिहारी के दोहे / काव्यानुवाद

अमी, हलाहल, मद भरे, स्वेत, श्याम, रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार
आबे-हयात, ज़हरे-हलाहल, शराबे-नाब
छलके है चश्मे-सुर्खो-सियाहो-सफ़ेद से
जी उट्ठे, जाँ हलाक करे, खो दे अक़्लो-होश
जिसकी तरफ़ वो शोख़, नज़र भरके देख ले
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कहत, नटत, रीझत,खिजत, हिलत-मिळत, लजियात
भरे भौन में करत हैं , नयनन ही तें बात
असरार, ज़िद, फ़रेफ्त्गी , खफ़्गिए-कमाल
इजहारे-इश्क, शर्मो-हया का मज़ाहिरा
खुर्दो-कलां हैं घर में सभी इसके बावजूद
जारी है गुफ्तुगू का निगाहों से सिलसिला
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; शैलेश ज़ैदी

सोमवार, 16 जून 2008

प्रतिष्ठित कुरआन की सूरह 'अल-अस्र' का काव्यानुवाद / शैलेश ज़ैदी

युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि है सम्पूर्ण मानव-जाति घाटे में
बचे हैं बस वही,प्रतिबद्ध जिनकी आस्थाएं हैं
सजग हैं कर्म के प्रति जो
ह्रदय की पूरी निष्ठा से
किसी क्षण जो, कभी सच्चाइयों के मार्ग से
विचलित नहीं होते
परिस्थितियाँ भले प्रतिकूल हों,
जो धैर्य मन का खो के, उत्तेजित नहीं होते
युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि ऐसे लोग,
घाटों से कभी ग्रंथित नहीं होते.

*****************

बचपन का सैर सपाटा / ज़ोहरा दाऊदी

इस्मत चुगताई को अपने लड़की होने का दुःख पहली बार आगरे की गलियों में हुआ जब लड़कों की तरह उछल-कूद करने और कुलांचें भरने पर पास-पड़ोस और सगे संबंधियों के आक्रोश और टीका टिप्पणियों का निशाना उनको अपनी अम्मा के माध्यम से बनना पड़ा.
मुझे अपने लड़की या बिहारी महिलाओं की शब्दावली में 'बेटी-ज़ात' होने का आभास और दुःख छे वर्ष की अवस्था में पहली बार बग्घी गाड़ी पर बैठने के क्षणों में हुआ.
पटना से नगर नह्सा अपने ननिहाल जाते हुए मुझे बंद बग्घी गाड़ी पर अम्माँ के साथ बैठना पड़ा. भइया ऊपर कोचवान के साथ ठाठ से बैठे. और तो और कोचवान के हाथ से चाबुक लेकर मुझे जलाने के लिए बार-बार उसे लहराते भी थे. मैं ने भइया के साथ बैठने की ज़िद की तो अम्माँ की दांत पड़ी कि कहीं बेटी ज़ात भी लड़कों की तरह कोचवान के साथ बैठते अच्छी लगती है. तभी मैं ने दिल से प्रार्थना की कि अल्लाह मुझे लड़की से लड़का बना दे कि बग्घी की छत पर कोचवान के बराबर बैठ कर चाबुक लहरा सकूं. लेकिन तुरत ही अपनी इस प्रार्थना की स्वीकृति की संभावनाओं से दिल दहल उठा. अगर जो समुच में अल्लाह ने लड़का बना दिया तो फिर भइया की तरह पढ़ना पड़ेगा और पाठ याद न होने की स्थिति में या जी लगा कर न पढने पर पिटाई. क्योंकि उस छोटी सी उम्र में भी इतनी बात तो पता थी ही कि मैं चूँकि लड़की हूँ इस लिए ज़्यादा पढ़ाई लिखाई ज़रूरी नहीं है.बड़ी हुई, शादी हुई और वारे-नियारे हुए. अच्छे 'भाग' और अच्छे 'पति-परमेश्वर' की कृपा से. उन दिनों पैदाइश के साथ ही यह पाठ भी लड़की को पढाया जाता था.
बेटी ज़ात को नोकरी थोडी करना है जो सुबह शाम उसे पढाने के लिए लेकर बैठ जाती हो ? मेरी फुफियाँ अम्माँ को शर्म दिलाया करतीं. सो पढ़ने से जान तो न बचती थी कि अम्माँ को भी धुन थी कि बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाय. लेकिन भइया की तरह पिटाई भी न होती थी. इसलिए मैं ने मन की पूरी गहराई के साथ पहली प्रार्थना में यह परिवर्तन किया कि अल्लाह बग्घी गाड़ी में बैठने के वक्त मुझे लड़का बना दे ताकि भइया की बराबरी और कोचवान की निकटता प्राप्त हो सके और पढने के वक्क्त लड़की रहने दे कि पिटाई से बच सकूं. पता नहीं फरिश्तों ने किस उकताहट में मेरी दोनों प्रार्थनाएं नोट कीं कि अल्लाह मियाँ के यहाँ ये कुछ उलटी-सीधी होकर पहुंचीं. स्वीकृति तो प्राप्त हुई, मगर लड़की होने का खमियाज़ा तो आम लड़कियों और फिर औरतों की तरह भुगतना ही पड़ा, लेकिन लड़कों की तरह पापड़ बेल कर पढ़ाई और फिर मर्दों की तरह कमाई भी करनी पड़ी. अशरफ भइया जो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के प्रथम पंक्ति के मार्गदर्शकों में शुमार हुए मुझ पर बड़ा रॉब झाडा करते थे. एक तो बेटा ज़ात दूसरे उम्र में मुझसे बड़े.अम्माँ की नज़रों में उन्हें मुझपर दुहरी वरीयता प्राप्त थी. पढाते तो मुझे ख़ाक न थे लेकिन पढाने के नाम पर अपने ज्ञान का रोब ज़रूर डालते थे. एक बार मुझे नीचा दिखाने के लिए अचानक मेरी परीक्षा ले ली.
'अच्छा बताओ - भेड़ और भेडिया में क्या अन्तर है ?
डर के मारे मेरी जान निकल गई कि अब ग़लत जवाब देने पर अम्माँ से ज़रूर शिकायत होगी कि जी लगा कर पढ़ती भी नहीं है. अपनी समझ से मजाक में बात टालने के ख़याल से मैं ने कहा -
'भेडिया खाता है, भेड़ खाते हैं.'
उम्मीद के बिल्कुल विपरीत भइया बहुत खुश हुए और खूब ही खूब शाबाशी दी. शायद भइया को अपने स्कूल के मास्टरों पर रोब जमाने के लिए अच्छा सा वाक्य हाथ लग गया था.
होनी कुछ ऐसी हुई कि यही तीखे कंटीले भइया मेरे राजनीतिक गुरु भी बने. मार्क्स का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो मैं ने पहली बार उन्हीं की पुस्तकों में से चुराकर पढ़ा और जब उसका एक-एक शब्द मन और मस्तिष्क में घर करने लगा तो मैं ने सच्चे अर्थों में भइया की वरीयता स्वीकार कर ली. यद्यपि इस वरीयता की बुनियाद न उनका लड़का ज़ात होना था न उम्र में मुझ से बड़ा होना. क्योंकि बड़कपन अक्ल से आता है न कि उम्र से. मज़े की बात यह है कि तब से लेकर आज तक मैं उनकी वरिष्टता, योग्यता और श्रेष्ठता को मानती चली आ रही हूँ.
उर्दूनामा से साभार रूपांतरित : परवेज़ फ़ातिमा