ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / दूर इंसानों से दरया था रवां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / दूर इंसानों से दरया था रवां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग.
वक़्त ने रहने दिया उसको कहाँ सब से अलग.
*******
अब किसी के सामने दिल खोलते डरते है लोग,
कर दिया हालात ने सबको यहाँ सब से अलग.
*******
नफ़रतों की भीड़ में, उल्फ़त की बातें हैं फ़ुज़ूल,
आओ चलकर बैठते हैं हम वहाँ सब से अलग.
*******
अब हमारे शह्र में भी है इलाक़ाई चुभन,

अब हमारे शह्र की भी है जुबां सब से अलग.
*******
मस्लकों, सूबों, ज़बानों से है कुछ ऐसा लगाव,
एक लावारिस सा है हिन्दोस्ताँ सब से अलग.
*******
ख़ुद मेरे अन्दर किसी लमहा हुआ ये हादसा,
रूह को देखा तड़पते, जिस्मो-जाँ सब से अलग.
**************