शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर

फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर ।
हैराँ है आसमान कोई झील देख कर ॥

मुझ में ही रह के मुझ से है वो महवे-गुफ़्तुगू,
ख़ुश हूं मैं आर्ज़ूओं की तकमील देख कर ॥

नाज़ाँ है वो दरख़्त ख़ुद अपने वुजूद पर,
अपनी जड़ों की क़ूवते-तरसील देख कर ॥

मुमकिन है लौट जाऊं मैं फिर बचपने की सम्त,
यादों के सर पे ख़्वाबों की ज़ंबील देख कर ॥

नाकामयाबियों में भी वो टूटता नहीं,
हर मरहले की एक नई तावील देख कर ॥

इरफ़ाने-नफ़्स कुछ तो हुआ है मुझे ज़रूर,
ख़ालिक़ को अपनी ज़ात में तहलील देख कर्॥

नैज़े की नोक पर भी रहा हक़ ही सर बलन्द,
हासिल हुआ ये जग की तफ़सील देख कर ॥
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फ़रशे-ज़मीं=धरती, क़्न्दील=दीपक, तकमील= पूर्ण होन, वुजूद=अस्तित्त्व, क़ूवते-तरसील=संप्रेषण-क्षमता, ज़ंबील=पिटारी, मरहले=कठिन काम, तावील=स्पष्टीकरण, इरफ़ाने-नफ़्स=आत्मज्ञान, तहलील=घुला हुआ,

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

लाजवाब गज़ल के लिये धन्यवाद्