मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
मनुष्य हूँ, ये मेरी साधना से निकलेगी.
नहा के आया हूँ मंदाकिनी के तट से अभी,
कला संवर के मेरी हर सदा से निकलेगी.
वो द्रौपदी थी जिसे पांडव थे हार चुके,
न कोई महिला कभी यूँ सभा से निकलेगी.
कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.
कहा था सपनों में 'ल्यूनार्दो' ने मुझसे कभी,
ये 'कैथारीना' ही 'मोनालिज़ा' से निकलेगी.
करेंगे यज्ञ युधिष्ठिर कि मुक्त पाप से हों,
दुआ शगुन की, दलित आत्मा से निकलेगी.
मिथक के बिम्ब नहीं हैं कहीं त्रिवेणी में,
बस एक श्रद्धा की छाया फ़िज़ा से निकलेगी.
****************
Sunday, March 29, 2009
मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.
WESE TO HAR SHE'R APNE AAP ME MUKAMMAL HAI MAGAR IS SHE'R KE BAARE ME KYA KAHUN ,,.....
ARSH
'मैं शिव नहीं हूँ…'
'वो द्रौपदी थी…'
'कटा हुआ वो अंगूठा…'
बहुत ख़ूब! एक से बढ़ कर एक।
बधाई
क्या हुआ साहब? बहुत दिन हो गये।
कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं…:)
अद्भुत ग़ज़ल शैलेश साब...एकदम नायाब
एक-एक शेर हट के!
एकलव्य वाला तो खैर है ही बेमिसाल और ल्योनार्दो की मोनालिसा का जिक्र यूं ग़ज़ल में तो शायद पहली बार हुआ हो...
Post a Comment