मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
के उसका होना यहाँ बे-समर हुआ कैसे.
कोई लगाव यक़ीनन था इससे भी, वर्ना,
पुकारता हमें इस तर्ह बुतकदा कैसे.
मजाज़ और हकीकत अलग-अलग तो नहीं,
छुपे खजाने का दुनिया है आइना कैसे.
ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए,
करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे.
धड़क रहा था मेरे दिल की वो सदा बनकर,
मैं उसका खाका बनाता भी तो भला कैसे.
अभी-अभी तो मेरे सामने था हुस्न उसका,
अभी-अभी पसे-दीवार छुप गया कैसे.
वो आजतक तो मेरी बात सुनती आई थी,
तगैयुर उसमें ये आया मेरे खुदा कैसे.
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Thursday, March 12, 2009
मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
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2 comments:
'ज़रा सा फ़ासला …।'
बहुत ख़ूब!
"ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए/करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे"
ओहोहो...क्या बात है शैलेश जी...क्या बात है
अच्छी गज़ल है सर
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