रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल/ शैलेश ज़ैदी / मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है

मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है।
कि पग-पग पर यहाँ कोई कथावाचक सा लगता है॥
खरा खोटा नहीं उपयोगिता की दृष्टि से कुछ भी,
समय पर काम जो आये वही साधक सा लगता है॥
तुम्हारे रूप की कुछ रश्मियाँ जब साथ होती हैं,
उजाला ज़िन्दगी का मेरे संवाहक सा लगता है॥
कबीरी तेवरों में छुप के मेरे दिल की धड़कन में,
न जाने कौन है, पढता हुआ बीजक सा लगता है॥
सभी सौन्दर्य के प्रतिमान हैं निज स्वार्थ आधारित,
ये वो बाज़ार है जिसमें हरेक गाहक सा लगता है॥
नहीं होता कभी उन्मुक्त मन से सोचना संभव,
विचार अपना भी कुछ कुछ इन दिनों बंधक सा लगता है॥
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शाम से पहले : ज़ैदी जाफ़र रज़ा का ग़ज़ल-सग्रह / डा0 परवेज़ फ़ातिमा

शाम से पहले : ज़ैदी जाफ़र रज़ा का ग़ज़ल-सग्रह
डा0 परवेज़ फ़ातिमा
ज़ैदी जाफ़र रज़ा आज से पैंतीस-चालीस वर्ष पूर्व उर्दू शायरों में अपनी एक विशेष पहचान रखते थे। प्रो0 एह्तिशाम हुसैन जैसे प्रख्यात उर्दू आलोचक ने साहित्य अकादमी की पत्रिका इन्डियन लिटरेचर में उनके काव्य-सग्रह "चाँद के पत्थर" को केन्द्र में रखक्रर 1971 में एक महत्वपूर्ण आलेख भी लिखा था।प्रो0 करामत अली ने अपनी आलोचना पुस्तक "इज़ाफ़ी तनक़ीद" में ज़ैदी साहब की शायरी को समकालीन उर्दू शायरी की पहचान के रूप में देखा। उर्दू की पत्रिकाएं "तहरीक", "शायर", "सुबहे नौ""अवराक़" शब्ख़ून आदि उनकी रचनाएं सम्मान पूर्वक छापती थीं।किन्तु ज़ैदी जाफ़र रज़ा का कहना है कि उर्दू लेखन उनके कैरियर में बाधक था। हिन्दी में एम0ए0 पी-एच0डी0 करने और कई पुस्तकों के लेखक होने के बाद भी तत्कालीन विभागाधयक्ष ने उनकी तुलना में बिना पी-एच0डी, केवल द्वितीय श्रेणी में एम0ए0 करने वालों की नियुक्तियां कर लीं और ज़ैदी साहब नौकरी में बहुत पीछे हो गये।कहा जाता था कि वे उर्दू से विशेष मोह रखते हैं और उर्दू के लेखक हैं।उस ज़माने में हिन्दी वाले उर्दू के प्रति आजकी तरह स्नेह भाव नहीं रखते थ।हर स्तर पर उर्दू का विरोध ही उनका लक्ष्य था।
ज़ैदी जाफ़र रज़ा जो हिन्दी लेखन में शैलेश ज़ैदी के नाम से जाने जाते हैं, हिन्दुस्तानी त्रैमासिक, सम्मेलान पत्रिका, नागरी प्रचारिणी पत्रिका आदि में अपने उच्च-स्तरीय आलेखों के कारण 1963 से निरन्तर छप रहे थे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अधिकतर अधयापकों की लेखन में कोई रुचि नहीं थी। कविता में रवीन्द्र भरमर की पहचान ज़रूर थी और शोध तथा आलोचना में प्रो0 कैलाश्चन्द्र भाटिया तथा डा0 अम्बाप्रसाद सुमान प्रख्यात थे। ज़ैदी साहब के शोधपूर्ण आलेखों से इन महानुभावों के अतिरिक्त किसी को प्रसन्नता नहीं होती थ॥और ये लोग मात्र प्रवक्ता थे , इसलिए विभागीय प्रशासन में इनकी विशेष भूमिका नहीं थी।भाटिया जी ने अलीगढ छोड़ दिया और पद तथा लेखन दोनों ही दृष्टियों से सम्मान प्राप्त करने में सफल हुए। अम्बाप्रसाद सुमन रीडर पद से आगे नहीं बढ सके और सेवामुक्त हो गये। 1966 में डा0 ज़ैदी ने यूजीसी की पोस्ट डाक्टरल फ़ेलोशिप के लिए जब अप्लाई किया तो तत्कालीन विभागाधयक्ष प्रो0 हरबंशलाल शर्मा ने ये कहक्र्र उनका फ़ार्म बिना हस्ताक्षर किये मेज़ से फेंक दिया कि यह फ़ेलोशिप आजतक अलीगढ में किसी को मिली है जो तुम्हें मिल जायेगी। इसके लिए चार फ़र्स्ट क्लास अपेक्षित हैं और तुम्हारे पास एक भी नहीं हैं ।ड़ा0 ज़ैदी से गुस्ताख़ी ये हुई कि उन्होंने अतिरिक्त निवेदन, याचना या आग्रह करने के बजाय उत्तर यह दिया की इसमें "आर स्टैन्डर्ड पब्लिश्ड वर्क " भी तो माँगा गया है।बहर हाल बिना विभागाधयक्ष के हस्ताक्षए के फ़ार्म डा0 ज़ैदी ने रजिस्टरार के हस्ताक्षरों से यूजीसी भिजवा दिया। इस फ़ेलोशिप के लिए डा0 नामवर सिंह ने भी उसी वर्ष आवेदन पत्र दिया था।किन्तु यूजीसी में वामपथ का वर्चस्व न होने के कारण यह फ़ेलोशिप शैलेश ज़ैदी को मिल गयी। धयान रहे कि पूरे भारत में यह फ़ेलोशिप विज्ञान, समाजशास्त्र और मानविकी में केवल तेईस लोगों को दी जाती थी। इतना सब होने पर भी 1969 से पूर्व डा0 ज़ैदी की नियुक्ति प्रवक्ता के रूप में न हो सकी। रोचक बात ये है कि फ़ेलो के रूप में डा0 ज़ैदी ने जिन छात्रों को 1962 से पढाया था, वे तक अधयापक हो चुके थे।
1971 में जब ज़ैदी साहब का उर्दू काव्य-सग्रह "चाँद के पत्थर" प्रकाशित हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया डा0 ज़ैदी ने हिन्दी विभाग में बहुत अच्छी नहीं महसूस की।फलस्वरूप ज़ैदी साहब ने उर्दू में अपनी कोई चीज़ छपने के लिए भेजना बन्द कर दिया और वे उर्दू जगत से पूरी तरह कट गये। अड़तीस वर्षों के अन्तराल के बाद ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने फिर से उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया है। उनका ग़ज़ल सग्रह "शाम से पहले" इसी की एक कड़ी है।यह संग्रह 2009 के अन्त में एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। ज़ैदी साहब का मानना है कि हर भाषा के अपने संस्कार होते हैं, उर्दू के सस्कार अस्सलाम अलैकुम या राम-राम या प्रणाम के नहीं हैं, उर्दू के संस्कार आदाब अर्ज़ के हैं। यानी विशुद्ध गंगा-जमुनी संस्कार हैं।यह भाषा धर्म से नहीं, तहज़ीब से नियंत्रित होती है। और यह तहज़ीब एक दिन में नहीं बनती। धर्म के हस्तक्षेप से भाषा में कृत्रिमता आती है और उसकी सांस्कृतिक ऊर्जा धूमिल पड़ जाती है।ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ग़ज़लें उर्दू संस्कार की ग़ज़लें हैं जिसका चेहरा ही नहीं आत्मा तक धर्म निर्पेक्ष है। ये ग़ज़लें कभी संवाद की स्थितियाँ बनाती हैं तो कभी समाज की ज़मीनी सच्चाइयों में गहरे उतर कर उनकी नब्ज़ पर धड़कती ज़िन्दगी को समेटने की कोशिश करती हैं। ये ग़ज़लें चूंकि मैंने ही संकलित की हैं और विगत अड़तीस वर्षों में ये कब कब कही गयीं यह निश्चय न हो पाने के कारण इन्हें उर्दू के अकारादिक क्रम में रखा गया है।आरा विश्वविद्यालय से शैलेष ज़ैदी के रचना संसार पर पी-एच0 डी0 करने के दौरान यह सब कार्य मैं ने किया था। सग्रह की पहली ही ग़ज़ल अन्तरात्मा में होने वाले संवाद को मुखर और गतिशील सप्रेष्णात्मक ऊर्जा से भर देती है। यह "सेल्फ़" और "नाट-सेल्फ़" के टकराव की स्थिति है। कवि सर्वत्र स्व से मुक्त रहता है।कुछ शेर द्रष्टव्य हैं
कहा था उसने हक़-गोई से अपनी बाज़ आ जाओ,
कहा था मैने मैं पत्थर को हीरा मान लूं कैसे॥
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है,
कहा मैं ने के सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे॥
कहा उसने के चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो,
कहा मैं ने के मैं इन्सान हूं पत्थर बनूं कैसे॥
कहा उसने के तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को,
कहा मैं ने के दुनिया की तरह मैं भी चलूं कैसे॥
संवाद की यह स्थिति जब वैयक्तिक चरित्र का विस्तार करती है और सामाजिक परिवेश को उसमें समाहित कर देती है तो दायित्त्व का फलक आयाम और दिशाएं सहज ही तय कर लेता है।प्रस्तुत हैं चन्द अशआर-
कहा मैं ने वफ़ाओं का तुम्हारी क्या भरोसा है,
कहा उसने के सब कुछ रख के मुझपर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने किसानों की तबाही से है क्या हासिल,
कहा उसने तबाही का ये मंज़र देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने के मेरे गाँव में सब फ़ाक़ा करते हैं,
कहा उसने के तुम उजड़े हुए घर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने त अल्लुक़ तुम से रख कर जाँ को ख़तरा है,
कहा उसने के नादानों के तेवर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने के लगता है कोई तूफ़ान आयेगा,
कहा उसने के तुम खिड़की से बाहर देखते क्यओं हो॥
उर्द के प्रबुद्ध आलोचक प्रो0 शाफ़े क़िदवाई का विचार है के ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने विशेष धयान में रखे गये एह्सासों और अभिव्यक्तियों के सुपरिचित अनुभवों को एक ठोस धरातल प्रदान किया है। उनकी ग़ज़ल का सत इकहरे खयाल से नहीं उठा है, उनके लिए जगत का प्रत्येक दृष्य एक ही समय में आवरण में भी है और आवरण से मुक्त भी।उनकी चेतना उस शून्य में भी विचरण करना जानती है जो दैहिक जगत से परे है-
मेरे श ऊर को है नक़्शे-ला-मकाँ की तलाश,
जहाँ न अरज़ो-समाँ हैं न जिस्मे-ख़ाकी है॥
ज़ैदी जाफ़र रज़ा हरे-भरे पेड़ को सत्य और पारलौकिक ज्ञान का प्रतीक मानते हैं जिसने हज़रत मूसा के जीवन की दिशा और लक्ष्य को निर्धारित कर दिया।इस्के सान्निधय से अज्ञान का परदा हट जाता है-
सरसब्ज़ पत्तियों से निकलती हो जिसके आग,
मुद्दत से एक ऐसे शजर की तलाश है॥
अथवा
दिखलाई दी शजर की हरी पत्तियों में आग,
जब गुफ़्तुगू हुई तो जो परदा था हट गया॥
प्रो0 सैयद अमीन अशरफ़ ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ग़ज़लों में एक ऐसा जादू देखते हैं जो पाठक की चेतना को वैचारिकता के लिए आमंत्रित करता है,मन को छूता हैं और दृष्टि को शीतलता प्रदान करता है।अधिक विस्तार में न जाकर मैं इस लेख को यहीं समाप्त करती हूं। ब्लाग जगत के पाठक प्रबुद्ध भी हैं और साहित्यिक प्रतिमानों से सपन्न भी। ज़ैदी जाफ़र रज़ की ग़ज़लें वो इस ब्लाग पर पढते ही रहते हैं।इसलिए उनके निर्णयों पर कुछ और थोपना समीचीन न होगा।
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / प्रशंसाओं से अपनी मुग्ध होकर बोल उठता है

प्रशंसाओं से अपनी मुग्ध होकर बोल उठता है।
पिघल जाती है प्रतिमा और पत्थर बोल उठता है॥

ये उजले-उजले कपड़ों वाले मीठे राजनेता सब,
कभी जब बात करते हैं निशाचर बोल उठता है॥

ग़ज़ल मेरी उड़ा देती है उनकी रात की नींदें,
मेरे शब्दार्थ का अन्तरनिहित स्वर बोल उठता है॥

कहाँ, किस घाट से लायेंगी अब ये गोपियाँ पानी,
कन्हैया तोड़ देते हैं तो गागर बोल उठता है॥

तुम्हारे रूप का लावन्य कर देता है स्तंभित,
मनोभावों का मेरे अक्षर-अक्षर बोल उठता है॥
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हिन्दी ग़ज़ल /तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं

तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं॥
मैं जिस से मिलता हूं केवल गुणों को देखता हूं॥
तुम्हारे रूप में फूलों की मुस्कुराहट है,
चलो जिधर भी उधर तितलियों को देखता हूं॥
तुम्हारे मुझसे हैं संबन्ध ये पता है मुझे,
सदैव स्वप्नों की कुछ धज्जियों को देखता हूं॥
जड़ों से मिलता है पेड़ों को नित नया जीवन,
मैं उन में उगती नयी कोपलों को देखता हूं॥
तुम्हारी मांग में रख कर गुलाब पंखुरियाँ,
भविष्य रचती हुई सरहदों को देखता हूं॥
तुम्हारी आँखों में संभावनाएं बोलती हैं,
तुम्हारे होंठों पे संचित सुरों को देखता हूं॥
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी

मैं कि था निःशब्द फिर भी कोई मुझमें था मुखर।
मेरे अन्तस में थी मेरी अपनी ही पीड़ा मुखर ॥
कल्पना मेरी बना लेती है आकृतियाँ कई,
रंग मैं जो भी भरूं रहता है वो मुखड़ा मुखर्॥
बस्तियाँ गोकुल की पल भर में बसा लेता हूं मैं,
कृष्ण , राधा, गोपियाँ हो जाते हैं सहसा मुखर्॥
मन में कोई भी महाभरत उभर आती है जब,
चेतना के मंच पर पाता हूं मैं गीता मुखर ॥
व्यावहारिक रूप संकल्पों को जब देता हूं मैं,
हो नहीं पाती मेरे मन में कोई दुविधा मुखर्॥
होती है नैराश्य में नीरव निशा की कालिमा,
रश्मियाँ सूरज की लेकर र्है सदा आशा मुखर्॥
घर की दीवारें सिमट कर घेर लेती हैं मुझे,
देखती हैं जब कि मुझ में है कोई विपदा मुखर्॥
कैसे कह दूं भीड़ में स्तब्ध सा रहता हूं मैं,
कैसे बतलाऊं कि है एकान्त में क्या क्या मुखर्॥
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले।

लोग हैं सर्द बहोत दिल में तपिश कैसे मिले॥

दुश्मनी दौरे-सियासत की दिखावा है फ़क़त,

मस्लेहत पेशे-नज़र हो तो ख़लिश कैसे मिले॥

बर्क़-रफ़्तार शबो-रोज़ हैं, ठहराव कहाँ,

वज़अदारी-ओ-मुहब्बत की रविश कैसे मिले॥

किस ख़ता पर हैं लगाये गये उसपर इल्ज़ाम,

राज़ खुलता नहीं रूदादे-दबिश कैसे मिले ॥

साहबे-रुश्दो-कमालात कहाँ से लायें,

मकतबे-दानिशो-इरफ़ानो-अरिश कैसे मिले॥

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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे ।
हाथों से माँ खिलाए तो लुक़्मे लज़ीज़ थे॥

लह्जे में उसके होता था यूं प्यार का नमक,
अल्फ़ाज़ उसके लब पे जो आये, लज़ीज़ थे॥

चटख़ारे ले के सुनते थे हम देर रात तक,
माँ ने सुनाये जितने भी क़िस्से लज़ीज़ थे॥

करते थे हम शरारतें कुछ ऐसी चटपटी,
पड़ते थे गाल पर जो तमाचे लज़ीज़ थे॥

होती थी ख़ान्दानों में उल्फ़त की चाशनी,
आपस की इस मिठास के रिश्ते लज़ीज़ थे॥
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तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ

तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ ।
उपनिषदों में तलाशो हमें के हम हैं वहाँ ॥

बलंदियाँ वो जिन्हें पाने की तमम्ना है।
हमारे जैसों के कितने ही सर क़लम हैं वहाँ ॥

न तुम से पार कभी होगा इश्क़ का दरिया।
के तश्नालब कई गिर्दाबे-चश्मे-नम हैं वहाँ॥

वो जंगलात जहाँ क़ैस का बसेरा है,
वहाँ न जाना, हज़ारों ही पेचो-ख़म हैं वहाँ॥

तलाश जारी है सी मुर्ग़ की परिन्दों में,
ये जानते हुए ख़तरात दम-ब-दम हैं वहाँ॥

बशर के रिश्ते से मेराजे-अब्दहू हैं हम,
रुबूबियत है जहाँ मिस्ले-नूर ज़म हैं वहाँ॥

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं ।
इज़हारे-हक़ की आज तमन्ना कहीं नहीं॥

छोटी बड़ी हैं कितनी महाभारतें यहाँ,
तीरों से छलनी भीष्म पितामा कहीं नहीं॥

दुर्योधनों के क़ब्ज़े में है द्रोपदी का हुस्न,
मुश्किल-कुशाई के लिए कान्हा कहीं नहीं॥


लैलाएं महमिलों में हैं तस्वीरे-इज़्तेराब,
खोया है जिसमें क़ैस वो सहरा कही नही॥

मिट जाये उसके और मेरे दर्मियाँ का फ़र्क़,
मेरी हयात में ये करिश्मा कहीं नहीं ॥
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फ़िरऔन=मिस्र का अहंकारी सम्राट जिस् ने ख़ुदाई का दावा किया।मूसा= मुसलमानों और ईसाइयों के नबी और यहूदियों के पथ-प्रदर्शक जिन्होंने फ़िरऔन का सर्वनाश किया।,इज़हारे-हक़=सत्य की अभिव्यक्ति । मुश्किलकुशाई=सकट दूर करना । महमिलों=ऊँट पर बाँधने की वह डोली जिसमें स्त्रियाँ बैठती हैं। क़ैस=मजनूं । सहरा=जगल ।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू ।

दिल को महसूस हुई उसकी सदा की ख़ुश्बू॥

रेग़ज़ारों में नज़र आया जमाले-रुख़े-यार,

कोहसारों में मिली रंगे-हिना की ख़ुश्बू॥

हम ने देखा है सराबों में लबे-आबे-हयात,

माँ की शफ़्क़त में है मरवाओ-सफ़ा की ख़ुश्बू॥

लज़्ज़ते-हुस्न की मुम्किन नहीं कोई भी मिसाल,

लज़्ज़ते-हुस्न में होती है बला की ख़ुश्बू॥

पलकें उठ जयें तो बेसाख़्ता बिजली सी गिरे,

पलकें झुक जायें तो भर जाये हया की ख़ुश्बू॥

हुस्ने-मग़रूर पे छा जाये मुहब्बत का ख़ुमार,

दामने-इश्क़ से यूं फूटे वफ़ा की ख़ुश्बू॥

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रेगज़ारों=मरुस्थलों, जमाले-रुखे-यार=महबूब का रूप-सौन्दर्य,

कोहसारों=पहाड़ों, रंगे-हिना=मेहदी का रग, लज़्ज़ते-हुस्न=सौन्दर्य का आस्वादन, बे-साख्ता=सहज,

हुस्ने-मगरूर=घमंडी सौन्दर्य,