शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.

हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.
आवाज़ आ रही है कि साजन पराया है.
शब्दों को ज़ेवरों की तरह छीन ले गया,
व्यवहार उसने मुझसे पुराना निभाया है.
आवारगी का रख दिया इल्ज़ाम मेरे सर,
आवारगी में जब कि स्वयं वो नहाया है.
मुझमें वो खोज लेता है अश्लीलता की बात,
बदनाम करने का ये नया ढंग लाया है.
कितनी ही सदियाँ हैं मेरे किरदार की गवाह,
ये ऐसा सत्य है जिसे सबने छुपाया है.
इतिहास मेरा भूल के, अपनों ने ही मुझे,
भाषा के कारावास में बंदी बनाया है.
मैं अपने संस्कारों से जीवित हूँ आज तक,
मुझको युवा समाज ही पहचान पाया है.
सच बोलियेगा, ऐसी कहीं मिल सकी मिठास,
गालिब को आपने भी बहुत गुनगुनाया है.
मैं चुप हूँ बस ये सोच के, आयेगा एक दिन.
देखेंगे सब कि मेरा ही वर्चस्व छाया है।
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.
प्यार में लेकिन समय आता नहीं अवसान का.
इस अवस्था में, कि जब एकांत है मेरी नियति,
मोह विह्वल कर रहा है किस लिए संतान का.
दर्द, पीड़ा उलझनें, बेचैनियाँ, आवारगी,
ये तो बस पहला सबक़ है इश्क़ के सोपान का.
उसकी घूँघरदार अलकें प्रेम की ज़ंजीर हैं,
और मैं क़ैदी हूँ उसके रेशमी परिधान का.
खुल अगर जाये कभी सौन्दर्य का उसके रहस्य,
आदमी, दीवाना हो जाये, अनूठी शान का.
ये वो कारागार है जिससे नहीं मिलता फ़रार,
हर समय पहरा यहाँ रहता है उसके ध्यान का.
कौन सत्ता में है ये 'कमलेश्वर' को था पता,
कथ्य देता है गवाही 'कितने पाकिस्तान' का.
दोपहर की चिलचिलाती धूप में निकला हूँ मैं,
ध्यान आया जब मुझे तेरे सरोसामान का.
मुझसे अच्छे भी न जाने कितने आयेंगे अभी,
आखिरी गायक नहीं मैं इश्क के पादान का.
कौन लेता है युवावस्था में जिम्मेदारियां,
घर चलाना काम है बूढों के धर्म-ईमान का.
होश की बातें जो करते हैं न समझेंगे कभी,
मेरी मदहोशी, कथानक है मेरी पहचान का।
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मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.

मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.
खुशबू-बदन-लिबास की फरहत चुराते हैं.
जो अब्र बारिशों की हैं तह में छुपे हुए,
तेरा मिजाज, तेरी तबीअत चुराते हैं.
तेरे लबो-दहन का नमक चख चुके हैं जो,
एहसास में, ये कीमती दौलत चुराते हैं.
देखा है जाहिदों को तसौवुर से जाम के,
बेसाख्ता शराब की लज्ज़त चुराते हैं.
ये मेहरो-माह भी तो गिरफ़्तारे-इश्क हैं,
ये सुब्हो-शाम तेरी फ़ज़ीलत चुराते हैं.
नज़रों से इस जहान की अब तंग आ चुके,
लो आज हम भी अपनी शराफत चुराते हैं।
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बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.
अब ये सीने की जलन बाइसे-ग़म होती नहीं.
बात इक शब की है, लेकिन नहीं मिलते अल्फाज़,
दास्ताँ, जैसी कि थी, मुझसे रकम होती नहीं.
चन्द लम्हों की मुलाक़ात का इतना है असर,
उसके चेहरे से जुदा, दीदए- नम होती नहीं.
अब पिला देता है ख़ुद से वो मुझे जाम-पे-जाम,
अब तो पीने में ये गर्दन भी क़लम होती नहीं.
मुझमें और उसमें कोई फ़ास्ला बाक़ी न रहे,
ऐसी सूरत, किसी सूरत भी बहम होती नहीं.
कितने फ़नकारों ने तस्वीरें बनायीं उसकी,
एक तस्वीर भी हमरंगे-सनम होती नही
मेहरबाँ होके न होने दिया उसने मुझे दूर,
ज़िन्दगी मिस्ले-शबे-रंजो-अलम होती नही
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बाइसे-ग़म=दुख का कारण, अल्फाज़=शब्द, दास्ताँ=कथा, रक़म=लिखना, दीदए-नम=भीगी आँखें, क़लम होना=काटा जाना, बहम=एकत्र, फनकारों=कलाकारों, हमरंगे-सनम=महबूब के स्वभाव की, मेहरबाँ=कृपाशील, मिस्ले-शबे-रंजो-अलम=दुख और पीड़ा की रात जैसी.

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.
देखते ही शबे-फ़ुर्क़त का जनाज़ा निकला.
साफ़ दो साए गुज़रते नज़र आए मुझको,
वह्म था मेरा, वहाँ मैं तने-तनहा निकला.
क़फ़से-जिस्म में रहना इसे मंज़ूर नहीं,
नफ़्स उड़ने को तड़पता सा परिंदा निकला.
सुब्ह की ठंडी हवाओं ने लिए क्या बोसे,
शाख़ पर फूल जो निकला, तरो-ताज़ा निकला.
वक़्त बहरूपिया है, रोज़ बदल लेता है भेस,
कल फ़रिश्ते सा लगा, आज दरिंदा निकला.
हर तरह दिल ने किया उसकी बुजुर्गी का लिहाज़,
सामने उसके कोई लफ्ज़ न बेजा निकला.
मोतबर, आजकल अहबाब में कोई न रहा,
कैसी उम्मीद थी उस शख्स से, कैसा निकला.
अक़्ल से फ़िक्र को हासिल है तवाजुन का वक़ार,
फ़ने-तहरीर में हर शख्स अधूरा निकला.
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शबे-फुरक़त=वियोग की रात, वह्म=भ्रम, तने-तनहा=अकेला, क़फ़से-जिस्म=शरीर का पिंजरा, मंज़ूर=स्वीकार, नफस=आत्मा, बोस=चुम्बन, दरिंदा=हिंसक पशु, बेजा=अनावश्यक, मोतबर= विश्वसनीय, अहबाब=मित्र, शख्स=व्यक्ति, अक्ल=विवेक, तवाजुन=संतुलन, वकार=मान-मर्यादा, फने-तहरीर=लेखन-कला,

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.
चख लीजिये, गर आपका एह्सास है मुखर.
रिन्दों की तर्ह, किसने किया है, खुदा को याद,
जायें न दूर आप, कि इतिहास है मुखर.
तनहाई में जब आया है, उसका मुझे ख़याल,
महसूस ये हुआ है, कोई, पास है मुखर.
चिंता ये है, कि देखूं मैं अन्याय, किस तरह,
चुप भी रहूँ, तो ज़ुल्म का आभास, है मुखर.
जनता को, अपनी बातों से, बहला न पाओगे,
जिस युग में जी रहे हो, अनायास है मुखर,
किस तर्ह हो रही है गरीबों के धन की लूट,
हर एक, राजनेता का आवास, है मुखर.
मुझको, किसी को पढ़के, न ऐसा लगा कभी,
गोदान जैसा, कोई उपन्यास, है मुखर.
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दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया

दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया
दुख ये है मेरी आंखों पे कुहरा सा छा गया.
जुगराफ़ियाई दूरियों का कोई ग़म नहीं,
ग़म ये है दिल को तोड़ के वो मह्लक़ा गया.
मजबूरियाँ थीं ऐसी, मैं कुछ भी न कर सका,
वक़्त आया ऐसा भी, मुझे देकर सज़ा गया.
मैं उसके दर की ख़ाक पे सज्दा न कर सका,
बारिश हुई कुछ ऐसी, कि सारा मज़ा गया.
कोई नहीं जो दफ़्नो-कफ़न की करे सबील,
रुखसत का, इस जहान से, अब वक़्त आ गया.
रंजो-अलम के दौर में भी, हूँ मैं नग़मा-रेज़,
हालात ऐसे देख के, जी थरथरा गया.
मय के हर एक घूँट में था ज़िन्दगी का राज़,
साक़ी ये जामे-वस्ल पिलाकर चला गया.
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रविवार, 8 फ़रवरी 2009

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं / बाक़र ज़ैदी

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं.
हम अजब लोग हैं ज़हनों पे असर करते हैं.
बंदिशें हमको किसी हाल गवारा ही नहीं,
हम तो वो लोग हैं दीवार को दर करते हैं.
वक़्त की तेज़-खरामी हमें क्या रोकेगी,
जुम्बिशे-किल्क से सदियों का सफ़र करते हैं.
नक्शे-पा अपना कहीं राह में होता ही नहीं,
सर से करते हैं, मुहिम जब कोई सर करते हैं.
क्या कहें हाल तेरा, ऐ मुतमद्दिन दुनिया,
जानवर भी नहीं करते जो बशर करते हैं.
हमको दुश्मन की भी तकलीफ गवारा न हुई,
लोग अहबाब से भी सरफे-नज़र करते हैं.
मर्क़दों पर तो चरागाँ है शबो-रोज़ मगर,
उम्र कुछ लोग अंधेरों में बसर करते हैं.
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ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.

ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.
मैं ऐसे वक़्त में पैदा हुआ तो हासिल क्या.
नुजूमियों की हैं पेशीन-गोइयाँ बेसूद.
नसीब होता है एह्सासो-फ़िक्र से पैदा,
मुझे रहा न कोई खौफ मुह्तसिब का कभी,
पिलाया साक़ी ने मुझको, मैं खूब पीता गया.
उरूज पाते हैं जिस दौर में भी रक़्सो-तरब,
ये लाज़मी है कि हो क़त्लो-खून भी बरपा.
मैं सोचता हूँ कि ऐसी जगह चला जाऊं,
कि जिसका हो न अज़ीज़ और अक़रुबा को पता.
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ज़ुहल=शनि, मुश्तरी=बृहस्पति, बुर्ज=गुम्बद/राशियों का घर, यकजा=एकत्र, हासिल=प्राप्त, [ कहा जाता है कि जब शनि और बृहस्पति एक ही बुर्ज में हों, उन क्षणों में जो जन्म लेता है, बहुत प्रतापी और तेजस्वी होता है]. नुजूमियों=ज्योत्षियों, पेशीनगोइयाँ=भविष्यवाणियाँ, बेसूद=व्यर्थ, नसीब=भाग्य, एह्सासो-फ़िक्र=अनुभूति और चिंतन,मुह्तसिब=मधुशाला की निगरानी करने वाला, उरूज=तरक्की/उन्नति, रक्सो-तरब=नृत्य और संगीत, लाज़मी=अनिवार्य, अज़ीज़=प्रिय-जन, अक़रुबा=निकट सम्बन्धी.

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.
आत्म-गौरव की प्रतिष्ठा का हमें अच्छा है ज्ञान.
हर समय सुनता हूँ मैं अन्तर में कुछ ऐसा निनाद
जैसे पंडित शंख फूँके, जैसे मुल्ला दे अज़ान.
मेरी इस गतिशीलता ने लक्ष्य को सम्भव किया,
मार्ग में आते रहे मेरे, निरंतर व्यावधान.
इतने सारे भेद-भावों को जिलाकर एक साथ,
एकता मुमकिन नहीं है, खोजते रहिये निदान.
हर समय स्वच्छंद रहकर भी हो साहिल से बंधा,
बन न पाया मन का ये विस्तार दरया के समान.
सबकी इच्छा है कि हर अच्छा-बुरा करते रहें,
और दामन पर न आये एक भी काला निशान.
लोग बचने के लिए बारिश से, जब आये यहाँ,
मन ने धीरे से कहा छोटा है घर का सायबान.
एक ही धरती पे, अपने-अपने सब धर्मानुरूप,
चाहते हैं संस्थापित करना, अपने संविधान.
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