बुधवार, 17 दिसंबर 2008

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.
जिनसे आशाएं हैं, देंगे फिर हमें धोखा वही.
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जैसी घटनाओं की आशंका थी पहले से हमें,
मूक दर्शक बनके हमने दृश्य सब झेला वही.
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आदमी की जान का अब मूल्य ही क्या रह गया,
आज की दुनिया में शायद सबसे है सस्ता वही.
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अपने षड्यंत्रों से जिसने हमको आतंकित किया,
भेद खुलने पर हुआ संसार में रुसवा वही.
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सबके मन-मस्तिष्क में घर कर गया वो हादसा,
रात-दिन रहती है घर बाहर महज़ चर्चा वही.
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कम न था आतंक रावण का, हुआ उसका विनाश,
आज़मा कर देखिये ब्रह्मास्त्र का नुस्खा वही.
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आज भी गाँवों में है गोदान प्रासंगिक बहुत,
खेत-खलिहानों में हैं, होरी वही, धनिया वही.
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छप्परों में साँस गिनते-गिनते मर जायेंगे वो,
उनका दुख वो जानते हैं जिनपे है बीता वही.
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हर क़दम पर जिसने हमको आपको धोखा दिया,
उस पुरस्कृत पंक्ति में आगे मिला बैठा वही,
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सोमवार, 15 दिसंबर 2008

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.
राह कैसी है, समय कहता है ये पूछो नहीं.
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डगमगाएं पाँव तो, अच्छा है घर में ही रहो,
चल पडो तो, मुडके फिर पीछे कभी देखो नहीं.
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वह महत्त्वाकांक्षी है तो बुरा लगता है क्यों,
आगे बढ़ने की तमन्ना सच कहो किसको नहीं.
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दुख भरी इस रात में तुमने दिया है मेरा साथ,
रात भर जागे हो तारो, और अब जागो नहीं.
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हम में क्या अनुबंध था सब पर प्रकट करते हो क्यों,
कुछ भरम रक्खो, रहस्यों को तो यूँ बांटो नहीं.
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बात कड़वी भी हो तो सोचो है उसमें तथ्य क्या,
भावनाओं के तराज़ू पर उसे तोलो नहीं.
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कृष्ण ने दारिद्र्य का द्विज के किया कितना ख़याल,
प्रेम संबंधों को समझो, अर्थ से आंको नहीं.
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गैर कहकर उसको ठुकरा दोगे तो पछताओगे,
उसको अपना लो, करो मत देर, कुछ सोचो नहीं.
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रविवार, 14 दिसंबर 2008

ग़ज़ल : शैलेश ज़ैदी : उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.

उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.
जो पैमाना था उनका, बस वो पैमाना लगा अच्छा.
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वतन कहते थे जब हम, आतंरिक सद्भाव था उसमें,
हुए हम औपचारिक, राष्ट्र कहलाना लगा अच्छा.
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ज़माने ने दिखाए राजनीतिक दाव-पेच ऐसे,
हमें बनवास भाया और वीराना लगा अच्छा.
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हैं रखते राजनेता साँप अपनी आस्तीनों में,
उन्हें प्रतिद्वंदियों को उनसे डसवाना लगा अच्छा.
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सभी वैदिक-ऋचाएं सागरों के सीप जैसी हैं.
मुझे उनमें छुपे मोती का हर दाना लगा अच्छा.
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मिलाना आँख तथ्यों से असंभव हो गया ऐसा,
उसे हर-हर क़दम पर हमसे कतराना लगा अच्छा.
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वही हिंसक भी है, हिंसा विरोधी स्वर भी उसका है,
समय के साथ उसका स्वांग अपनाना लगा अच्छा.
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वो घायल था, मैं लेकर जा रहा था हस्पताल उसको,
मुझे इस तेज़-रफ़तारी का जुर्माना लगा अच्छा.
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मैं अपने भाग्य की रेखाओं को ख़ुद से बनाता हूँ,
ये कहता था मेरे भीतर जो दीवाना, लगा अच्छा.
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बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.

बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.
कुछ समंदर की कहानी और कुछ साहिल की बात.
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मैं उफक पर देखता हूँ सारी बातें साफ़-साफ़,
मैं समझता था रहेगी राज़ उस महफ़िल की बात.
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आजकल जालिम भी होते हैं बज़ाहिर पुर-खुलूस,
दोस्तों के ही लबो-लहजे में थी क़ातिल की बात.
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तजरुबे से ही समझ सकता है कोई ज़िन्दगी,
रखती थी गहराइयां उस गाँव के जाहिल की बात.
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कर दिया बेदार सुबहों ने सभी को ख्वाब से,
फिरभी वो सोता रहा क्या कीजिये गाफ़िल की बात.
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वो समर्क़न्दो-बुखारा तक खुशी से दे गया,
आ गई उस खुश-अदा माशूक के जब तिल की बात.
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इल्म का इज़हार लायानी है कम-इल्मों के बीच,
कितनी मानी-खेज़ है उस सूफ़िए-कामिल की बात.
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कुछ तकल्लुफ भी है कुछ कहना भी है वो चाहता,
क्या करे, उसके लिए है आ पड़ी, मुश्किल की बात.
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हम थे हक़ पर, हमसे दुनिया ने किया है इत्तेफ़ाक,
वो हुआ रुसवा हुई उर्यां जब उस बातिल की बात.
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शनिवार, 13 दिसंबर 2008

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.
देखता है क्यों उन्हें इतिहास शक के रूप में.
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अब वो आदम सेतु हो या सेतु हो श्री राम का,
दोनों ही जीवित हैं साँसों की महक के रूप में.
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खुल के पाकिस्तान बातें कर नहीं सकता कभी,
व्यक्त दुर्बलताएं उसकी हैं झिझक के रूप में.
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लोग भावुकता में आकर जो भी जी चाहे कहें,
एक हैं सब तैल-चित्रों के फलक के रूप में.
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भभकियां देते हैं वो भीतर से जो होते हैं रिक्त,
हाल दीपक का हुआ ज़ाहिर भभक के रूप में.
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अर्चना, पूजा, अज़ानें, दाढियां, रोचन तिलक,
धर्म, मज़हब के दिखावे हैं सनक के रूप में,
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पेड़ पर आता है जब भी फल तो झुक जाता है पेड़,
ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है लचक के रूप में.
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मन में हो संतोष तो सत्कर्म में ही स्वर्ग है,
मन कलुष हो जब तो है जीवन नरक के रूप में.
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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.
उस धरती की मिटटी से कुछ परिचित से हम लगते हैं.
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केश हैं उसके सावन-भादों, मुखडा है जाड़े की धूप,
जितने भी मौसम हैं उसके, प्यार के मौसम लगते हैं.
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सब माँओं के चेहरे गोद में जब बच्चे को लेती हैं,
सौम्य हुआ करते हैं इतने मुझको मरियम लगते हैं.
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हवा में जब भी नारी के आँचल उड़कर लहराते हैं,
चाहे जैसा रंग हो उनका देश का परचम लगते हैं.
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मैं उसका सौन्दर्य बखानूँ कैसे अपने शब्दों में,
मेरे ज्ञान में जितने भी हैं शब्द बहुत कम लगते हैं.
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घिसे-पिटे भाषण सुनता हूँ जब भी मैं नेताओं के,
निराधार, निष्प्राण, तर्क से खाली, बेदम लगते हैं.
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सम्प्रदाय अनगिनत हैं धर्मों के भी हैं आधार अलग,
किंतु ध्यान से देखें सबके एक ही उदगम लगते हैं.
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.

मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.
वह भी सागर ही है, वह प्रत्येक पल सागर में है.
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मुख्य धारा में कभी मोती कोई मिलाता नहीं,
गहरे उतरोगे तो पाओगे वो उसके तल में है.
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गर्भ में सागर के पलते हैं कई ज्वाला मुखी,
और तूफानों का इक संसार वक्षस्थल में है.
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देखिये आकाश से धरती के रिश्तों को कभी,
ज़िन्दगी सागर की हर पानी भरे बादल में है.
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लहरें सागर की सुनामी हों तो निश्चित है विनाश,
कितने गहरे रोष की अभिव्यक्ति इस हलचल में है.
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देखना आसान है साहिल से सागर का बहाव,
साहसी है वो जो लहरों के सलिल आंचल में है.
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बुधवार, 10 दिसंबर 2008

जिस शिखर पर तुम खड़े हो

जिस शिखर पर तुम खड़े हो, कल्पनाओं का शिखर है.
जान लो यह भ्रष्ट कुत्सित श्रृंखलाओं का शिखर है.

तुमने इस धरती की ऊर्जा, को कभी समझा नहीं है.
मर्म में इसके सहजता से, कभी झाँका नहीं है.

धर्म की संकीर्णताओं से नहीं सम्बन्ध इसका.
भक्तिमय अनुशासनों के साथ है अनुबंध इसका.

प्रेम है आधार इसकी सात्त्विक ओजस्विता का.
चिह्न है पारस्परिक सौहार्द इसकी अस्मिता का.
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दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.

दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
उससे इतने प्यार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मेरे मित्रों ने लगा दी आग जब घर को मेरे,
फिर किसी घर-बार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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अब दया करुणा की बातें हो चुकी हैं अर्थ-हीन,
तुमसे इस व्यवहार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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क्या परिस्थितियाँ बनीं जो मैं अकेला हो गया,
शायद इस संसार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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वह सलिल सा है तरल, इतना तो मैं था जानता,
स्नेहमय सत्कार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मैं ही दरया, मैं ही नाविक और मैं ही नाव था,
राह में मंझधार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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चाहने वालों का उसके मुझको अंदाज़ा तो था,
किंतु इस भरमार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.

खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
कुछ खरोचें भी पड़ी थीं सुब्ह के रुखसार पर.
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घर के बीचों-बीच मेरी लाश थी रक्खी हुई,
एक सन्नाटा सा तारी था दरो-दीवार पर.
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अम्न के उजले कबूतर आये आँगन में मेरे,
उड़ गये, दामन में मेरे छोड़ कर दो-चार पर.
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वो मुहब्बत का था सौदाई, खता इतनी थी बस,
दुश्मनों ने प्यार के, उसको चढाया दार पर.
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दानए-तस्बीह पर वो नक़्श कर देता था ओम,
आयतें कुरआन की लिखता था वो ज़ुन्नार पर,
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हमसे वाबस्ता किए जाते हैं सारे ही गुनाह,
जुर्म कुछ आयद नहीं होता कभी सरकार पर.
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लोग अपने ही ख़यालों में रहा करते हैं गुम,
क्यों तरस खाएं किसी बन्दे के हाले-ज़ार पर.
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