मंगलवार, 12 अगस्त 2008

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी

चांदनी की ओट में श्वेताम्बरा आयी थी कल
था ये शायद स्वप्न कोई अप्सरा आयी थी कल
स्नेह पर संदेह उसके मैं करूँ, सम्भव नहीं,
मेरे दुःख पर आँख उसकी भरभरा आयी थी कल
मलमली कोमल फुहारें उड़ रही थीं हर तरफ़
मौसमी बारिश पहन कर घाघरा आयी थी कल
एक प्रेमी के निधन की सूचना देकर हवा
उसको आधी रात में जाकर डरा आयी थी कल
देखिये बनवास अब मिलाता है किस आदर्श को
राजनीतिक-मंच पर इक मंथरा आयी थी कल
थी सफलता की मुझे आशा, मगर इतनी न थी
मेरी ये उपलब्धि ही, मुझको हरा आयी थी कल
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सोमवार, 11 अगस्त 2008

अब ये बेहतर है कि हम तोड़ दें सारे रिश्ते / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[ 1 ]
अब ये बेहतर है कि हम तोड़ दें सारे रिश्ते
देर-पा होते नहीं प्यार में झूठे रिश्ते
अपने हक़ में कोई मद्धम सा उजाला पाकर
रास्ता अपना बदल लेते हैं कच्चे रिश्ते
कुछ भी हालात हों, हालात से होता क्या है
दिल भले टूटे, नहीं टूटते दिल के रिश्ते
थक के मैदानों से जाओ न पहाड़ों की तरफ़
जान लेवा हैं, चटानों के ये ऊंचे रिश्ते
जिन में गहराई मुहब्बत की मिलेगी तुम को
देखने में वो बहोत होते हैं सादे रिश्ते।
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किसी ने पुकारा / ऐन ताबिश

किसी ने पुकारा
घनेरे सियह बादलों से
अँधेरी सिसकती हुई रात के आंचलों से
ख़मोशी में डूबे हुए
सर्द एहसास के जंगलों से

एक मज़बूत पुख्ता मकां के सुतूनों में
लर्जिश हुई
देखते देखते रक्स करती ज़मीं थम गई
आसमां से उदासी की बारिश हुई
एक लम्हे को ख्वाहिश हुई
छोड़कर सारा ज़ोमे-सफ़र
बीच रस्ते में रुक कर, ज़रा ठह्र कर
जानी-पहचानी आवाज़ के लम्स को
अपने अन्दर कहीं
फिर से ज़िन्दा करूँ
एक भूला-भुलाया हुआ क़िस्सए जाँफ़िज़ा
फिर से ताज़ा करूँ
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रविवार, 10 अगस्त 2008

निदा फाज़ली की दो नज़्में

1. फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं.

नदी में स्नान कर के सूरज
सुनहरी मलमल की पगड़ी बांधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है.
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

हवाएं सरसब्ज़ डालियों में
दुआओं के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियां
सोते रास्तों को जगा रही हैं
घनेरा पीपल, गली के कोने से
हाथ अपना हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

फ़रिश्ते निकले हैं रोशनी के
हर एक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है, ज़मीं का हर ज़र्रा
मां के दिल सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं

2. जो हुआ सो हुआ
उठके कपडे बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ.

जब तलक साँस है
भूक है प्यास है
ये ही इतिहास है.
रख के काँधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ

खून से तर-ब-तर
करके हर रहगुज़र
थक गए जानवर
लड़कियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ.

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल.
जो हुआ सो हुआ

मंदिरों में भजन
मस्जिदों में अजाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ
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सहारे / वामिक़ जौनपुरी

पहली मई, यौमे-मज़दूर के तअल्लुक़ से
बढे चलो बढे चलो
यही निदाए-वक़्त है
ये कायनात, ये ज़मीं
निज़ामे-शम्स का नगीं
ये कहकशां सा रास्ता,
इसी पे गामज़न रहो
ये तीरगी तो आरजी है, मत डरो
यहाँ से दूर
कुछ परे पे सुब्ह का मुक़ाम है
सलाए-बज्मे-आम है
क़दम क़दम पे इस कदर रुकावटें हैं अल-अमां
मगर अजीब शान से ये कारवां रवां-दवां
चला ही जाएगा परे
उफक से भी परे कहीं
तुम्हारे नक्शे-पा में जिंदगी का रंग
हंस रहा है
ताके पीछे आने वालों को
पता ये चल सके
कि इस तरफ़ से एक कारवां गुज़र चुका है कल
और अपने जिस्मो-जान हमको वक्फ कर चुका है कल
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आजकी ग़ज़ल

अख्तर इमाम रिज़वी
अश्क जब दीदए-तर से निकला
एक काँटा सा जिगर से निकला
फिर न मैं रात गए तक लौटा
डूबती शाम जो घर से निकला
एक मैयत की तरह लागता था
चाँद जब क़ैदे-सहर से निकला
मुझको मंजिल भी न पहचान सकी
मैं की जब गुर्दे-सफर से निकला
हाय दुनिया ने उसे अश्क कहा
खून जो ज़ख्मे-नज़र से निकला
इक अमावस का नसीबा हूँ मैं
आज ये चाँद किधर से निकला

अनवर मसऊद
जो बारिशों में जले, तुंद आँधियों में जले
चराग वो जो बगोलों की चिमनियों में जले
वो लोग थे जो सराबे-नज़र के मतवाले
तमाम उम्र सराबों के पानियों में जले
कुछ इस तरह से लगी आग बादबानों को
की डूबने को भी तरसे जो कश्तियों में जले
यही है फैसला तेरा की जो तुझे चाहे
वो दर्दो-करबो-अलम की कठालियों में जले
दमे-फिराक ये माना वो मुस्कुराया था
मगर वो दीप, कि चुपके से अंखडियों में जले
वो झील झील में झुरमुट न थे सितारों के
चराग थे कि जो चांदी की थालियों में जले
धुंआ धुंआ है दरख्तों की दास्ताँ अनवर
कि जंगलों में पले और बस्तियों में जले
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गुरुवार, 7 अगस्त 2008

होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बातें इधर-उधर की उडाने में बेवक़ूफ़
कुर्सी पे ऐंठ अपनी जताने में बेवक़ूफ़
गिरते हैं दूसरों को गिराने में बेवक़ूफ़
माहिर हैं चोट खाने खिलाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

पूरा कभी हुआ न कोई जिंदगी का खब्त
रहता है बात-बात पे बस बरहमी का खब्त
कजरव हैं, फिर भी रखते हैं आला-रवी का खब्त
ख़ुद नाचते हैं सबको नचाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मक्खन लगाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
नखरे उठाये जो भी समझते हैं उसको दोस्त
पास आए-जाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
डूबे हैं ऐसे दोस्त बनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

फिसले कभी इधर कभी उस सिम्त जा पड़े
आका के गुनगुनाने पे ख़ुद गुनगुना पड़े
हमदर्द कोई टोके, तो क़ह्रे-खुदा पड़े
रहते हैं बंद अपने की खाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

गुड़हल का फूल उनकी नज़र में गुलाब है
जो है फुजूल उनकी नज़र में गुलाब है
हर बे-उसूल उनकी नज़र में गुलाब है
मसरूफ हैं गुलाब उगाने में बेवक़ूफ़
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

यूँ तो खुदा की शान है नादाँ की बात-चीत
लेकिन अज़ाबे-जान है नादाँ की बात-चीत
बेछत का इक मकान है नादाँ की बात-चीत
फिर भी मगन हैं ख़ुद को गिनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मैदाने-बेवकूफी में जो बे-मिसाल है
इस दौर में दर-अस्ल वही बा-कमाल है
उसके ही इक़्तिदार का हर सिम्त जाल है
कुदरत के भर गए हैं खज़ाने में बेवक़ूफ़.
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़
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ओबैदुल्लाह अलीम की ग़ज़लें

अज़ीज़ उतना ही रक्खो कि जी संभल जाए
अब इस कदर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मी हैं यूँ तो बहोत, आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मिए-अनफ़ास से पिघल जाए
मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
जाहे वो दिल जो तमन्नाए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाए
मैं वो चरागे-सरे-रहगुज़ारे-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाए
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खयालो-ख्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी
न शब् को चाँद ही अच्छा न दिन को मेह्र अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़यामतें कैसी
वो साथ था तो खुदा भी था मेहरबाँ क्या क्या
बिछड़ गया तो हुई हैं अदावतें कैसी
हवा के दोश पे रक्खे हुए च़राग हैं हम
जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी
जो बे-ख़बर कोई गुज़र तो ये सदा दी है
मैं संगे-राह हूँ, मुझ पर इनायतें कैसी
नहीं कि हुस्न ही नैरंगियों में ताक़ नहीं
जुनूँ भी खेल रहा है सियासतें कैसी
ये दौरे-बे-हुनरां है बचा रखो ख़ुद को
यहाँ सदाक़तें कैसी, करामतें कैसी.
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बुधवार, 6 अगस्त 2008

ई. सी. का इलेक्शन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फ़ाज़
यूनिवर्सिटियों में एक्जीक्युटिव काउन्सिल और अकैडेमिक काउन्सिल, यूनिवर्सिटी से मुतअल्लिक़ तमाम इन्तिजामी और इल्मी फैसले करने के बाइस बेहद अहम् समझी जाती हैं. इसमें इलेक्शन के ज़रिये मुन्तखब उस्तादों की भी नुमाइंदगी होती है. इलेक्शन के ज़माने में उस्तादों के तब्सेरे सुनने से तअल्लुक़ रखते हैं. इस नज़्म में यही मंज़र-कशी की गई है. ज़ैदी जाफ़र रज़ा
गूं-गाँ से फिर आबाद हुआ अपना नशेमन
फिर शोर-शराबे का हुआ ज़ोर दनादन
फिर फ़न्ने-सियासत का वसी हो गया दामन
फिर मिल गया हर माहिए-बे-आब को जीवन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

ज़ूलाजी का है ज़ोर, केमिस्ट्री की फबन है
तादाद पे इंजीनियरिंग अपनी मगन है
हर दिल में मगर साइकोलाजी की चुभन है
तब्दील अखाड़े में हुआ इल्म का मद्फ़न
लो आ गया फिर घूम के ई. सी.का इलेक्शन

कहता है कोई देखो वो क़ातिल है , न जीते
और उसको न दो वोट, वो जाहिल है, न जीते
सीधा है तो क्या, यारो वो पिल-पिल है, न जीते
अच्छे नहीं ये बाहमी तकरार के लच्छन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

मेडिकोज़ की है राय कि हारेंगे नहीं हम
कहना है तबीबों का कि हम भी हैं नहीं कम
मैदान में है आर्ट्स फैकल्टी की भी छम-छम
सज धज के निकल आए गुलाब और करोटन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन
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रक्स / नून मीम राशिद

[ फैज़ अहमद फैज़ और मीरा जी के समकालीन उर्दू कवियों में नून मीम राशिद (1910-1975) आधुनिक उर्दू कविता के जनक माने जाते हैं. गुजरांवाला के एक छोटे से गाँव कोट भग्गा अकाल गढ़ में जन्मे नून मीम राशिद अर्थशास्त्र के एम.ए. थे. यूनाईटेड नेशन में सेवारत रहकर अनेक देशों में घूमते रहे.अंत में लन्दन में निधन हुआ. उनके विरुद्ध हमेशा साजिश होती रही कि उनकी कविता को अधिक लोकप्रियता न मिल सके.उनका प्रथम आजाद नज्मों का संकलन मावरा 1940 में प्रकाशित हुआ.]
ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्स-गह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुरमे-ऐश करते देख ले

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
रक्स की ये गरदिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सरगर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं
जी में कहता हूँ कि हाँ
रक्स-गह में जिंदगी के झांकने से पेश्तर
कुल्फतों का संग्रेज़ा एक भी रहने न पाय

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी मेरे लिए
एक खुनी भेडिये से कम नाहीं
ऐ हसीनो-अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा-लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझसे मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू ही मेरी आरजूओं की मगर तमसील है
जो रही मुझसे गुरेज़ाँ आज तक

ऐ मेरे हम-रक्स मुझको थाम ले
अहदे पारीना का मैं इन्सां नहीं
बंदगी से इस दरो-दीवार की
हो चुकी है हैं ख्वाहिशें बेसोजो-रंगों-नातवाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
जिंदगी पर मैं झपट सकता तो हूँ
इस लिए अब थाम ले
ऐ हसीनो-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले
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