बुधवार, 4 जून 2008

सूफ़ी दोहे / प्रो. शैलेश ज़ैदी

हिन्दी सूफ़ी काव्य का अध्ययन केवल प्रेमाख्यानाकों के प्रकाश में किया गया. कुछ तो जानकारी की कमी और कुछ उसके प्रति विशेष लगाव का न होना इस अध्ययन के मार्ग में बाधक रहा. वासुदेव शरण अग्रवाल का प्रयास मलिक मुहम्मद जायसी की रचनाओं को समझने में सहायक अवश्य हुआ, किंतु अन्य अध्येता पद्मावत को अन्योक्ति और समासोक्ति की बहसों में उलझा कर उसके मर्म पर निरंतर आघात करते रहे. कथा-काव्य को एक विधा के रूप में मान्यता देकर हिन्दी के सभी कथा काव्यों का अध्ययन एक साथ किया जाना चाहिए था. इस स्थिति में 'राम चरित मानस' का अध्ययन भी इसी विधा के अंतर्गत किया जाता. किंतु हिन्दी के वैष्णव आलोचक इसे स्वीकार नहीं कर सकते थे. प्रेमाख्यानक काव्यों के स्पर्श से मानस के अशुद्ध हो जाने का खतरा था. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी में राम काव्य की कोई ठोस परम्परा न होने के बावजूद, मानस के लिए एक पृथक पहचान तलाश ली और तुलसी के अध्ययन को सनातन धर्मी वैष्णव आस्थाओं की तुष्टि का केन्द्र बना दिया. सूर की गोपियों और सूफियों के इश्क को दूसरे दर्जे का साबित करने के मोह में इश्क को चार प्रकार का बताते हुए विवाहोपरांत के प्रेम को आदर्श माना और राम और सीता को विशिष्ट मर्यादाओं में रखकर देखने का प्रयास किया. शुक्ल जी के लिए शायद 'इश्क़' शब्द ही बिदका देने के लिए पर्याप्त था. अब वो चाहे गोपियों का 'इश्क़' हो या सूफियों का. सूरदास की गोपियों का इश्क़ मधुरा भक्ति के खाने में डाल दिया गया और सूफियों को रहस्यवाद की भूल-भुलैयों में छोड़ दिया गया. इतना ही नही एक फलीता और लगा दिया गया कि सूफियों के यहाँ ईश्वर की कल्पना नारी रूप में की गई है जो भारतीय चिंतन परम्परा से मेल नहीं खाती. काश शुक्ल जी या उनकी परम्परा के दूसरे आलोचकों ने सूफियों के दोहों की ओर ध्यान दिया होता. किंतु ऐसा शायद जान-बूझ कर नहीं किया गया.
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक सूफियों की आध्यात्मिक गोष्ठियों में फ़ारसी शेरों का वर्चस्व था. किंतु तेरहवीं शताब्दी में हिन्दवी दोहे ग़ज़ल के शेरों की तुलना में अधिक प्रभावशाली साबित होने लगे और समां (सूफ़ी गायन-वादन) की गोष्ठियों में उनकी लोकप्रियता निरंतर गहराती गई. फ़ारसी गजलों के हिन्दवी दोहों में अनुवाद भी किए गए. हमीदुद्दीन नागौरी का ऐसा अनुवाद उपलब्ध है जिसके प्रकाश में यह निष्कर्ष निकालना अनुपयुक्त नहीं है कि फारसी ग़ज़ल के सभी गुण हिन्दवी दोहों में ऊँडेलने का प्रयास किया गया. ग़ज़ल के शेरों की तरह प्रत्येक दोहा अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता था. फलस्वरूप सिद्ध कवियों का यह छंद सूफियों के माध्यम से इतना लोकप्रिय हुआ कि संतों ने ही नहीं श्रृंगार काल के सभी कवियों ने इसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया.
सिद्ध काव्य में दोहों का कोई एक निश्चित नियम नहीं है. सामान्य रूप से तेरह ग्यारह मात्राओं वाले दोहे अधिक प्रचलित हुए. किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य प्रयोग नहीं किए गये. केवल अड़तालीस अक्षरी दोहों की ही भ्रमर, सुभ्रमर, शरभ, शयन, मंडोक, मर्कट, नर,हंस आदि तेईस किस्में हैं. दोहा और दोहरा में भी मात्राओं के आधार पर अन्तर किया गया. पचास अक्षरी, बावन अक्षरी, चौवन अक्षरी और छप्पन अक्षरी दोहे भी बड़ी संख्या में लिखे गए. भारत में ही नहीं पाकिस्तान में भी 'दोहा-निगारी' की परम्परा आज भी पर्याप्त लोकप्रिय है. उर्दू दोहे चौबीस मात्राओं वाले दोहों से हट कर सत्ताईस मात्राओं की एक पृथक पहचान बनाते हैं. जमीलुद्दीन 'आली' और क़तील शिफाई के दोहों को उर्दू जगत में जो सम्मान मिला है वह उल्लेखनीय है. भारत में बेकल उत्साही के दोहे भी खासे चर्चित हुए हैं. मेरा अभीष्ट यहाँ दोहों की तकनीक में जाना नहीं है. इस लिए मैं सीधे-सीधे सूफ़ी दोहों की बात करना चाहूँगा.
कबीर ने राम नामी दुपट्टा ओढ़ लिया और बिहारी ने राधा और कृष्ण के नामों का माथे पर तिलक लगा लिया. फलस्वरूप दोहा रचनाकारों में वे सौभाग्यशाली थे कि स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्य-क्रम में शामिल कर लिए गए. सिद्धों की रचनाएं ब्राह्मण विरोधी थीं और बाबा फरीद, खुसरो, रविदास, गुरुनानक, मलूकदास, रहीम आदि की रचनाएं मुख्य धारा के साहित्यिक दिग्गजों की संस्कारगत प्रकृति के बहुत अनुकूल नहीं थीं, इसलिए इनमें से कुछ एक को बारहवीं कक्षा तक प्रवेश मिल पाया. बाबा फरीद (1173-1265) के दोहे गुरु ग्रन्थ साहब में संकलित होने के कारण किसी से ढके-छुपे नहीं थे. किंतु प्राचीन काव्य के नाम पर रासो ग्रंथों को, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध होने के बावजूद, स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढाया गया और बाबा फरीद या अमीर खुसरो को पाठ्यक्रम में शामिल करने में झिझक महसूस की गई. वस्तुतः भक्ति काल का विभाजन ही बेढंगा है और संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचायक भी. निर्गुण और सगुण खानों में इसे बाँट कर तुलसी की इस उक्ति को "निगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा" अनावश्यक चुनौती दी गई है. सच पूछा जाय तो सूफियों का इश्के-हकीकी और इश्के मजाज़ी ही निर्गुण और सगुण भक्ति का पर्याय है. सूरदास ने "अविगत गति कछु कहत न आवै" कहकर निर्गुण के महत्त्व को स्वीकारते हुए सुविधा की दृष्टि से सगुण लीला को अपनाने का तर्क दिया -"सब बिधि अगम बिचारहिं ताते, सूर सगुन लीला पद गावे."
हिन्दी आचार्यों को भक्ति काल का विभाजन करने की ही यदि ज़िद थी तो उसे 'सम्प्रदाय-मुक्त भक्ति' और 'सम्प्रदाय-बद्ध भक्ति' के खानों में बांटना चाहिए था. सम्प्रदाय-मुक्त भक्ति में सारे संत आ जाते और सम्प्रदाय-बद्ध की मुख्य रूप से दो शाखाएं की जातीं- वैष्णव-भक्ति और सूफी-भक्ति. यह विभाजन फिर भी एक तर्क रखता. किंतु अब तो जो प्रचलन है सो है. मैं यहाँ केवल इतना ही कह सकता हूँ - जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे.
सूफ़ी कविता का बीज-बिन्दु इश्क है जिसे अनन्य प्रेम भी कह सकते हैं. आशिक की दीवानगी इसमें रूह फूंकती है. 'मैमंता घूमत रहै, नाहीं तन की सार' वाली स्थिति ही इस इश्क को व्याख्यायित कर पाती है आशिक इस इश्क में स्वयं को इस प्रकार समर्पित कर देता है कि 'मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कछु है सो तेरा' का स्वर सहज ही गूंजने लगता है. यहाँ देवालय, काबा, मक्का, काशी इत्यादि अपना अर्थ खो बैठते हैं. शेष रह जाता है तो केवल इश्क़, और यह इश्क़ अलग अलग रंगों में नहीं बांटा जा सकता. सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने समय के लोकप्रिय सूफी दोहों में उर्दू हिन्दी भाषाओं के विकास की कडिया सहज ही तलाश की जा सकती हैं.
अब कुछ प्राचीन सूफ़ी कवियों के दोहे उद्धृत किए जा रहे हैं जिनके प्रकाश में सूफ़ी दोहों की ग़ज़ल के समकक्ष प्रचलित परम्परा को समझा जा सकता है.
बाबा फरीद [ 1173-1265 ]
साईँ सेवत गल गई, मास न रह्या देह
तब लग साईँ सेवसां, जब लग हौं सौं गेह
फ़रिदा रत्ती रत्त न निकलै, जौ तन चीरै कोय
जौ तन रत्तय रब सेओं, तिन तन रत्त न होय
मैं जाना दुःख मुज्झ कों,दुक्ख सेआये जग्ग
ऊचे चढ़ के देखया, घर घर ईहे अग्ग
हमीदुद्दीन नागौरी [ 1193-1274 ]
जो बिस्तरै तो सबै सकत, जो संकुचै तो सोय
एक पुरुख के नाम दस, बिरला जानै कोय
जोगन क्यों नहिं जानई, तिस गुन किज्जह कायं
बहल न जोगी हाथ, परतीतह आरायं
औखदि भेजन धनि गई, ओऊ हुई बिरहीन
औखदि दोख न जानई,नारी न चेतै तीन
बू अली क़लंदर [मृ0 1323 ]
सजन सकारे जायंगे, नैन मरेंगे रोय
बिधना ऐसी रैन कर, भोर कधूं ना होय
सार हिरदै नहि मानियों , पीऊ कै नहिं ठाँव
किनहु न बूझै बात ओई,धनी सुहागन नांव
अमीर खुसरो [ 1253-1325 ]
पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव
मनजहि जलते जनम गया, तेरे लेखन बाव
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस
उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान
देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग
तन मेरो, मन पीऊ को दोउ भये इक रंग
यह्या मनियरी [मृ0 1380 ]
काला हंसा निर्मला, बसै समंदर तीर
पंख पसारै बिख हरै, निर्मल करै सरीर
बाट भली पर सांकरी, नगर भला पर दूर
नांह भला पर पातरा, नारी कर हिय चूर
सागर,कुएँ,पाताल जल, लाखन बूंद बिकाय
बज्र परै या मथुरा नगरी, कान्हा प्यासों जाय
शाह मीरानजी बीजापूरी [ मृ0 1496 ]
जिस मारग जिउ संचरै, सो ही मारग सार
मारग छोड़ कुमारग चले, तन का रखा बिचार
करैं जभैं वह तीरथ पट्टन, योग उभालें ध्यान
पांचों चीज़ रिया सों राखैं, क्योंकर दीजे मान
बुद्धि कहै कुछ खेल्या लोड़ी, बाचें ऐसी बात
इश्क कहै यह खेल खिलाना, सब है उसके हात
बुद्धि कहै यों तस्लिम हो ना, तू कुछ परत रहै
इश्क कहै जिउ देना बेहतर, दुःख यह कौन सहै
सय्यद मुहम्मद जौनपूरी [ 1433-1504 ]
चंदर कहै तराइन कों, सूरज देखौ आय
ऐसा भगवन बीहटे, दिष्टि पाप झर जाय
तुव रूपै जग मोहिया, चन्द तराइन भान
उनहि रूप फुनि होन कों, वाही न होवै आन
हियरो नित्त पखाल तू, कांपड़ धोय मधोय
ओझल होय नछूत सी, सुख निंदरी ना सोय
शेख बाजन [ मृ0 1506 ]
भंवरा लेवे फूल रस, रसिया लेवे बास
माली पहुंचे आस कर, भंवरा खड़ा उदास
प्रीत हिए दरवेश की, जिस देवे करतार
इस जग म्याने राज कर, उस जग उतरै पार
गौर अंध्यारी डर बड़ा, बाजन है मुफलिस
हियरा काँपै जिउ डरै, यह दुःख आखौं किस
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मंगलवार, 3 जून 2008

हसरत मोहानी / प्रो. शैलेश ज़ैदी

भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हसरत मोहानी [ 1875-1951] का नाम भले ही उपेक्षित रह गया हो, उनके संकल्पों, उनकी मान्यताओं, उनकी शायरी में व्यक्त इन्क़लाबी विचारों और उनके संघर्षमय जीवन की खुरदरी लयात्मक आवाजों की गूंज से पूर्ण आज़ादी की भावना को वह ऊर्जा प्राप्त हुई जिसकी अभिव्यक्ति का साहस पंडित जवाहर लाल नेहरू नौ वर्ष बाद 1929 में जुटा पाये. प्रेमचंद के शब्दों में यदि कहा जाय तो " वे [ हसरत ] अपने गुरु [ बाल गंगाधर तिलक ] से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजाया, जब कांग्रेस का गर्म-से-गर्म नेता भी पूर्ण स्वराज का नाम लेते काँपता था." हसरत मोहानी ने मार्क्सवादी दर्शन में पराधीनता से मुक्ति के स्रोत तलाश किए. उनकी राजनीतिक चेतना उनकी रचनात्मक विलक्षण प्रतिभा से मिलकर उन रास्तों का निर्माण करने लगी जो खतरनाक ज़रूर थे किंतु ब्रिटिश राज से मुक्ति के लिए ज़रूरी थे. थामस मान की यह बात हसरत की समझ में अच्छी तरह आ गई थी कि "गैर-राजनीतिक होना किसी भी दृष्टि से गैर-प्रजातांत्रिक होने से कम नहीं है." यह निश्चित करना बहुत आसन नहीं है कि हसरत मोहानी बुनियादी तौर पर शायर थे या राजनीतिज्ञ ? उनकी शायरी राजनीति के झरने में धुली हुई थी और उनकी राजनीति उनकी रचना-धर्मिता की मोहक सुगंधों से ज़िंदगी के नए आयाम तलाश करने का हौसला प्राप्त कर रही थी. जेल में चक्की पीसना राजनीति के मार्ग का एक पड़ाव था और चक्की पीसते हुए शेर गुनगुनाना और ग़ज़ल कहना उस पड़ाव को गतिशील देखने का एक माध्यम था -
है मश्के-सुखन जारी, चक्की की मशक्क़त भी
इक तुर्फा तमाशा है, हसरत की तबीयत भी
अंग्रेज़ सरकार हसरत को लाख बंदी बना ले, हसरत की आत्मा और उनके विचारों को बंदी नहीं बना सकती. इतना दृढ़ संकल्प हसरत के बाद केवल फैज़ अहमद फैज़ में देखा जा सकता है.
रूह आजाद है, ख़याल आजाद
जिसमे-हसरत की क़ैद है बेकार
गोर्की के सम्बन्ध में लेनिन ने कहा था " वह स्वभाव से राजनीतिज्ञ नहीं था किंतु उसे मात्र एक रचनाकार भी नहीं कहा जा सकता. उसकी राजनीतिक चेतना पूरी तरह जागृत थी और व्यावहारिक राजनीति में उसकी सरगर्मियां उसे राजनीतिकों की पंक्ति में भी खड़ा कर देती हैं" ठीक यही बात हसरत मोहानी के लिए भी कही जा सकती है. स्वभाव से वे एक संत थे, विचारों से साम्यवाद के पक्षधर और चरित्र से एक धर्मनिष्ठ मुसलमान. यह एक ऐसी त्रिवेणी थी जिस से इंक़लाब की धारा का फूटना लाज़मी था.
गोर्की को दिसम्बर 1905 में कारागार के कष्टों से मुक्ति के लिए रूस से भाग कर स्वीडेन और डेनमार्क होते हुए जर्मनी में शरण लेनी पड़ी थी. किंतु हसरत के इन्क़लाबी संस्कारों में पलायन के लिए कोई स्थान नहीं था. उनकी दृष्टि में गिरफ्तारी के दुखों से उनका परिचय भी नहीं था. कारण यह था कि उनके समक्ष आज़ादी का जो लक्ष्य था वह इस दुःख को इतना छोटा कर देता था कि इसका होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता था और फिर 'कैदे-वफ़ा' में ऐशो-आराम की सारी दौलत समाई प्रतीत होती थी -
मायए-इशरते-बेहद है गमे-कैदे-वफ़ा
मैं शानासा भी नहीं रंजे-गिरफ्तारी का
हसरत मोहानी का विश्वास था कि जिस व्यक्ति ने देश की आजादी जैसे बड़े उद्देश्य के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया हो वह क़ैद की बंदिशों में भी हमेशा आजाद रहेगा -
आजाद हैं क़ैद में भी हसरत
हम दिल-शुदगाने-ख़ुद-फरामोश
हसरत की इन्क़लाबी सोंच भारत की मुक्ति के लिए बेचैन थी. नैराश्य इस मार्ग में अवरोधक था और हौसला इस रास्ते की बुनियादी शर्त. उनका विश्वास था कि ब्रिटिश राज जितना अत्याचार करता जाएगा, देश भक्ति की भावना उतना ही और अधिक बल पकड़ती जायेगी. उनका ख्याल था कि 'कोशिशे-जाते-खास' (आत्म-निर्भर प्रयास) की जो भूमिका है वह गैरों के संघर्ष पर तकिया करने से कहीं अधिक शक्तिशाली है.
हसरत का सम्पूर्ण जीवन स्वाधीनता प्राप्ति के उद्देश्य के लिए समर्पित था. यही कारण है कि जी तोड़ मेहनत, दुःख और पीड़ा, विपत्तियाँ और अपमान सब झेलकर भी वे हमेशा स्वयं को मंजिल से निकट और बहुत निकट महसूस करते रहे. इस महान उद्देश्य के प्रति उनका यह अटूट विश्वास जहाँ एक ओर कारागार के कष्टों से उन्हें मुक्त रखता है वहीं दूसरी ओर सत्य की जीत में उनके विश्वास को और भी गहरा देता है. उनके इन्क़लाबी स्वर में हर लम्हा एक नई शक्ति जन्म लेती है. उनके हौसले धूमिल नहीं पड़ते और उनका जीवट शत्रु के प्रबल वर्चस्व के समक्ष निर्भीक डटे रहने की प्रेरणा देता है.
मैं गल्बए-आदा से डरा हूँ न डरूँगा
ये हौसला बख्शा है मुझे शेरे-खुदा ने
हसरत के साधना मार्ग में शहीद का दर्जा बहुत ऊँचा है. उन्हें पता है की 'ज़ेबाइशे-फ़र्के-आशिक़' (आशिक़ के सिर की शोभा) के लिए दस्तारे-जूनून (दीवानगी की पगड़ी) में गम के पेवंद का होना ज़रूरी है. कदाचित इसीलिए वो किसी अत्याचार की शिकायत नहीं करते. बल्कि शुक्र अदा करते हैं -
यूं शुक्रे-जौर करते हैं तेरे अदा-शनास
गोया वो जानते ही नहीं हैं गिला है क्या.
इस स्थल पर शुक्रे-जौर अर्थात अत्याचार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का भाव, सौन्दर्य-बोध को एक नया अर्थ देता है और इस अर्थ की खनक एक दुसरे शेर में और भी मुखर हो उठती है-
जो चाहो सज़ा दे लो, तुम और भी खुल खेलो
पर हमसे कसम ले लो, की हो जो शिकायत भी
यहाँ शब्दों की ध्वनियाँ मस्ती और छेड़-छाड़ का रंग पैदा करती हैं. वतन की मुहब्बत से शराबोर हसरत मोहानी एक ऐसे कारसेवक हैं जो शिकवा-शिकायत करना अपने सम्प्रदाय के विरुद्ध समझते हैं-
हैं रज़ाकार तो हम पर भी बहरहाल है फ़र्ज़
शुक्रे-हक लब पे रहे, शिक्वए आदा न करें
हसरत ने अपने रस्ते का चुनाव किसी से पूछ कर नहीं किया था और राजनीति में उनकी रूचि किसी विवशता या दबाव का परिणाम नहीं थी. वस्तुतः वो सोई हुई कौम को जगाना ज़रूरी समझते थे. बी.ए. करने के बाद वो चाहते तो आसानी से एक अच्छी नोकरी कर सकते थे. किंतु उन्हें तो देश की सेवा का रास्ता पसंद था. कबीर की भांति वो 'जे घर फूंके आपना चलै हमारे साथ' के पक्षधर थे. सम्पूर्ण देश में छटपटाहट और बेचैनी के फलस्वरूप भड़कती हुई आग के शोले उनकी आंखों के सामने थे - "दहका हुआ है आतिशे-गुल से चमन तमाम." फिर क्या था हसरत को कातिल के रु-ब-रु खड़े होने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई.
1907 के उर्दूए-मुआल्ला में, जिसके वो संपादक भी थे, उन्होंने बाल गंगा धर तिलक के व्यक्तित्व पर एक ऐसा लेख लिखा जिस से सही अर्थों में स्वयं उनके व्यक्तित्व का परिचय भी मिलता है. उन्होंने लिखा था- "उन्होंने (तिलक ने) अपनी सारी उम्र और सारी हिम्मत मुल्क की खिदमत में सर्फ़ कर दी. ऐशो-आराम और मॉल को हाथ से देना बखुशी गवारा किया, पर एलान- कलमए-हक से बाज़ नहीं आए."
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का वह दौर जिसमें हसरत ने यहाँ शिक्षा पायी, देश भक्तों से भरा हुआ था. मुहम्मद अली जौहर, शौकत अली, राजा महेन्द्र प्रताप सब इसी दौर की पैदावार थे, और किसी की कुर्बानी और त्याग किसी से कम नहीं था. ये वो लोग थे जिन्होंने महात्मा गाँधी को भी अपने व्यक्तित्व से आकृष्ट किया.
4 जनवरी 1908 को जब हसरत को दो वर्ष की क़ैद बा मशक्क़त और पाँच सौ रूपए का जुर्माना हुआ, उनके चेहरे पर चिंता की कोई लकीर नहीं पाई गई. उनकी दूध पीती बच्ची बहुत बीमार थी, किंतु हसरत ने स्वयं को कानून के हवाले कर दिया. इलाहाबाद जेल में जब सुप्रिनटेनडेंट ने उनकी आंखों का चश्मा दाखिल दफ्तर कर दिया और उन्हें लगभग अँधा बना दिया, उन्होंने धैर्य से काम लिया और उफ़ तक नहीं की. इसी ज़माने में उनके पिता का निधन हो गया और उन्हें इस घटना की सूचना तक नहीं दी गई. जुर्माने की रक़म न भर पाने के कारण उनका दुर्लभ पुस्तकालय नीलाम कर दिया गया और रद्दी की तरह बेशकीमती पुस्तकों को ठेलों और बैलगाडियों पर लादकर ले जाया गया, किंतु हसरत के माथे पर सिल्वटें नहीं उभरीं. उन्होंने दोस्तों के सुझाव के बावजूद राजनीति से अलग होना पसंद नहीं किया. वो तिलक की भांति आज़ादी को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते थे.
मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिख था "मुसमानों में गालिबन हसरत ही वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने आज से पन्द्रह साल क़ब्ल, हिन्दोस्तान की मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर किया था और आजतक उसी पर क़ायम हैं. नर्म सियासत में उनकी गर्म तबीअत के लिए कोई कशिश और दिलचस्पी न थी" हसरत मोहानी ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक दौर में ही स्पष्ट घोषणा कर दी थी "जिनके पास आँखें हैं और विवेक है उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि फिरंगी सरकार का मानव विरोधी शासन हमेशा के लिए भारत में क़ायम नहीं रह सकता. और वर्त्तमान स्थिति में तो उसका चन्द साल रहना भी दुशवार है." कुछ ही वर्षों के अंतराल से भारत के सम्बन्ध में ऐसी ही एक घोषणा गोर्की ने भी की थी -"अब वह समय आ गया है जब भारतीयों के लिए आवश्यक हो गया है कि सामजिक और राजनीतिक रचनात्मक कार्य वे अपने हाथों में ले लें क्योंकि भारत में अंग्रेज़ी राज के दिन पूरे हो चुके हैं." रोचक बात ये है कि गोर्की के लिए गांधी आदर्श थे और हसरत के लिए लेनिन,
स्वराज के 12 जनवरी 1922 के अंक में हसरत मोहनी का एक अध्यक्षीय भाषण दिया गया है. यह भाषण हसरत ने 30 दिसम्बर 1921 को मुस्लिम लीग के मंच से दिया था- "भारत के लिए ज़रूरी है कि यहाँ प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई जाय. पहली जनवरी 1922 से भारत की पूर्ण आज़ादी की घोषणा कर दी जाय और भारत का नाम 'यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ़ इंडिया' रखा जाय." ध्यान देने की बात ये है कि इस सभा में महात्मा गाँधी, हाकिम अजमल खां और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेता उपस्थित थे. सच्चाई यह है कि हसरत मोहानी राजनीतिकों के मस्लेहत पूर्ण रवैये से तंग आ चुके थे. एक शेर में उन्होंने अपनी इस प्रतिक्रिया को व्यक्त भी किया है-
लगा दो आग उज़रे-मस्लेहत को
के है बेज़ार अब इस से मेरा दिल
हसरत मोहानी का मूल्यांकन भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में अभी नहीं हुआ है. किंतु मेरा विश्वास है कि एक दिन उन्हें निश्चित रूप से सही ढंग से परखा जाएगा. रोचक बात यह है कि इस स्वभाव का व्यक्ति शायरी की दुनिया में अपनी रूमानी गजलों से पहचाना गया. गुलाम अली ने उनकी ग़ज़ल चुपके चुपके रत दिन आंसू बहाना याद है को अपना मधुर स्वर देकर अमर बना दिया. पाठकों की रूचि के लिए यहाँ प्रस्तुत हैं हसरत की पाँच ग़ज़लें.
[ 1 ]
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्के-उल्फ़त पर, वो क्योंकर याद आते हैं
न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ीयते-सहबा के अफ़साने
शराबे-बेखुदी के मुझको साग़र याद आते हैं
रहा करते हैं कैदे-होश में ऐ वाय नाकामी
वो दस्ते-खुद्फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं
नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
हकीकत खुल गई हसरत तेरे तर्के-मुहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं
[ 2 ]
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना
इक नज़र ही तेरी काफ़ी थी के ऐ राहते-जाँ
कुछ भी दुशवार न था मुझको शकेबा करना
उनको याँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्रे-बहार
जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना
शाम हो या के सेहर याद उन्हीं की रख ले
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना
कुछ समझ में नहीं आता के ये क्या है हसरत
उनसे मिलकर भी न इज़हारे-तमन्ना करना
[ 3 ]
है मश्के-सुखन जारी चक्की की मशक्क़त भी
इक तुर्फा तमाशा है हसरत की तबीयत भी
जो चाहे सज़ा दे लो, तुम और भी खुल खेलो
पर हमसे क़सम ले लो ,की हो जो शिकायत भी
ख़ुद इश्क़ की गुस्ताखी, सब तुझको सिखा देगी
ऐ हुस्ने-हया-परवर, शोखी भी, शरारत भी
उश्शाक के दिल नाज़ुक, उस शोख की खू नाज़ुक
नाज़ुक इसी निस्बत से , है कारे-मुहब्बत भी
ऐ शौक़ की बेबाकी , वो क्या तेरी ख्वाहिश थी
जिसपर उन्हें गुस्सा है, इनकार भी, हैरत भी
[ 4 ]
कैसे छुपाऊं राजे-ग़म, दीदए-तर को क्या करूं
दिल की तपिश को क्या करूं , सोज़े-जिगर को क्या करूं
शोरिशे-आशिकी कहाँ, और मेरी सादगी कहाँ
हुस्न को तेरे क्या कहूँ, अपनी नज़र को क्या करूं
ग़म का न दिल में हो गुज़र, वस्ल की शब हो यूं बसर
सब ये कुबूल है मगर, खौफे-सेहर को क्या करूं
हां मेरा दिल था जब बतर, तब न हुई तुम्हें ख़बर
बाद मेरे हुआ असर अब मैं असर को क्या करूं
[ 5 ]
फिर भी है तुमको मसीहाई का दावा देखो
मुझको देखो, मेरे मरने की तमन्ना देखो
जुर्मे-नज्ज़रा पे क्यों इतनी खुशामद करता
अब वो रूठे हैं ये लो और तमाशा देखो
हम न कहते थे बनावट से है सारा गुस्सा
हंसके, लो फिर वो उन्होंने मुझे देखा, देखो
मस्तिए-हुस्न से अपनी भी नहीं तुमको ख़बर
क्या सुनो अर्ज़ मेरी, हाल मेरा क्या देखो
घर से हर वक्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो न मेरी जान, सवेरा देखो
खानए-जाँ में नमूदार है इक पैकरे-नूर
हसरतों आओ रूखे -यार का जलवा देखो
सामने सब के मुनासिब नहीं हम पर ये अताब
सर से ढल जाय न गुस्से में दुपट्टा देखो
मर मिटे हम तो कभी याद भी तुमने न किया
अब मुहब्बत का न करना कभी दावा देखो
******************

रविवार, 1 जून 2008

पुरानी शराब / मीर तकी मीर की ग़ज़लें

परिचय
मीर तकी मीर का जन्म आगरे में 1723 ई0 में हुआ. उस समय तक उर्दू शायरी अपनी किशोरावस्था में थी. पिता की देख-रेख में शिक्षा पाकर मीर ने इश्क के बारीक रहस्यों को समझा और उसके परिष्कृत मूल्यों को अन्तःकीलित किया जो आगे चलकर उनकी गजलों में इस प्रकार मुखर हुआ कि उनकी शायरी की आतंरिक ऊर्जा बन गया. मीर सही अर्थों में उर्दू ग़ज़ल के अद्भुत शिल्पकार हैं. गालिब को भी उनकी कला का लोहा मानना पड़ा. उनके शेरों में ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभव और दुःख-दर्द की लयात्मकता कुछ यूं रची-बसी मिलती है कि पाठक उसके साथ अंतरंग हुए बिना नहीं रह पाता. मीर के समय तक शायरी की भाष के लिए 'उर्दू' शब्द प्रयोग में नहीं आया था. यह स्थिति ग़ालिब के समय तक बनी हुई थी. वे अपनी उर्दू गजलों को हिन्दी का नाम देते थे और स्वयम को मीर की भाँति रेखता का उस्ताद समझते थे. 'अवधी' और 'ब्रज' के कवि अपनी भाषा को 'भाखा' कहते थे. हाँ ब्रज और अवधी के मुसलमान कवि इसके लिए 'हिन्दवी' या 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करते थे. इसीलिए मीर की कविता में हिन्दोस्तानियत का जो सोंधापन है वह अन्य उर्दू कवियों में उतना नहीं झलकता. मीर के छे दीवान उपलब्ध है जिनमे उनके शेरों की संख्या 13585 है.
[ १ ]
इब्तिदाए-इश्क है रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या
काफ्ले में सुबह के इक शोर है
यानी गाफिल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख्मे-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशाने-इश्क हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
गैरते-यूसुफ है ये वक्ते-अजीज़
मीर इसको राएगाँ खोता है क्या
[ 2 ]
फकीराना आये सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
कोई नाउमीदाना करते नागाह
सो तुम हमसे मुंह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरे
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूं के बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सिज्दा करते ही करते गई
हके-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की यांतइं , के ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की खुदा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हमसे मीर
जहाँ में तुम आये थे क्या कर चले
[ 3 ]
क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़
इश्क़ - इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ माशूक, इश्क़ आशिक है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़ो-तौर इश्क़ के तइं
कहीं बन्दा कहीं खुदा है इश्क़
कौन मकसद को इश्क़ बिन पहोंचा
आरजू इश्क़-ओ-मुद्दआ है इश्क़
कोई ख्वाहाँ नही महब्बत का
तू कहे जिंस-नारवा है इश्क़
मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़
[ 5 ]
पत्ता - पत्ता बूटा - बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने, गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
आगे उस मुतकब्बिर के, हम खुदा खुदा क्या करते हैं
कब मौजूद खुदा को, वो मगरूर,खुदारा जाने है
आशिक सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके, अपना वारा जाने है
चारा-गरी बीमारिए-दिल की, रस्मे-शहरे-हुस्न नहीं
वरना दिल्बरे-नादाँ भी, इस दर्द का चारा जाने है
मेह्रो-वफाओ-लुत्फो-इनायत, एक से वाकिफ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्जो-कनाया, रम्जो-इशारा जाने है
तश्ने-खूं है अपना कितना, मीर भी नादाँ, तल्खी-कश
दमदार आबे-तेग को उसके, आबे-गवारा जाने है
***********************

शुक्रवार, 30 मई 2008

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
न जाने कब से हैं सहरा कई बसाए हुए
हुई हैं मुद्दतें, आंखों को मुस्कुराए हुए
ये माहताब न होता, तो आसमानों पर
सितारे आते नज़र और टिमटिमाए हुए
समंदरों की भी नश्वो-नुमा हुई होगी
ज़माना राज़ ये सीने में है छुपाए हुए
हर एक दिल में खलिश क्यों है एक मुब्हम सी
नक़ाब चेहरे से है वक्त क्यों हटाए हुए
इस इंतज़ार में आयेंगे फिर नए पत्ते
शजर को अरसा हुआ पत्तियां गिराए हुए
हवा के झोंकों में हलकी सी एक खुश्बू है
तुम आज लगता है इस शहर में हो आए हुए
गुलाब-रंग कोई चेहरा अब कहीं भी नहीं
ज़मीं पे अब्र के टुकड़े हैं सिर्फ़ छाए हुए
लगे हैं ज़ख्म कई दिल पे संगबारी में
के लोग सर पे हैं तूफ़ान सा उठाए हुए
किताबें पढ़के नहीं होती अब कोई तहरीक
जुमूद अपने क़दम इनमें है जमाए हुए
परिंदे जाके बलंदी पे, लौट आते हैं
के इन के दिल हैं नशेमन से लौ लगाए हुए
अजीब थे वो मुसाफ़िर, चले गए चुपचाप
दिलों में अब भी कहीं हैं मगर समाए हुए
[ 2 ]
शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो फ़त्हयाब न था
के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था
कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया
के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था
समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा
जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था
ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई
वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था
गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल
कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था
मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता
हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था
तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था
के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था
********************

परवीन शाकिर की ग़ज़लें

[ 1 ]
आवाज़ के हमराह सरापा भी तो देखूं
ऐ जाने-सुखन मैं तेरा चेहरा भी तो देखूं
दस्तक तो कुछ ऐसी है के दिल छूने लगी है
इस हब्स में बारिश का ये झोंका भी तो देखूं
सहरा की तरह रहते हुए थक गयीं आँखें
दुःख कहता है अब मैं कोई दर्या भी तो देखूं
ये क्या के वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे
अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूं
अबतक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा
मैं अब तेरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूं

[ 2 ]
इक शख्स को सोचती रही मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
[ 3 ]
आंखों ने कैसे ख्वाब तराशे हैं इन दिनों
दिल पर अजीब रंग उतरते हैं इन दिनों
रख अपने पास अपने महो-मेह्र ऐ फ़लक
हम ख़ुद किसी की आँख के तारे हैं इन दिनों
दस्ते-सेहर ने मांग निकाली है बारहा
और शब ने आ के बाल संवारे हैं इन दिनों
इस इश्क ने हमें ही नहीं मोतदिल किया
उसकी भी खुश-मिज़ाजी के चर्चे हैं इन दिनों
इक खुश-गवार नींद पे हक़ बन गया मेरा
वो रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों
वो क़ह्ते-हुस्न है के सभी खुश-जमाल लोग
लगता है कोहे-काफ पे रहते हैं इन दिनों

[ 4 ]
थक गया है दिले-वहशी मेरा, फ़र्याद से भी
दिल बहलता नहीं ऐ दोस्त तेरी याद से भी
ऐ हवा क्या है जो अब नज़मे-चमन और हुआ
सैद से भी हैं मरासिम तेरे, सय्याद से भी
क्यों सरकती हुई लगती है ज़मीं याँ हर दम
कभी पूछें तो सबब शहर की बुनियाद से भी
बर्क थी या के शरारे-दिले-आशुफ्ता था
कोई पूछे तो मेरे आशियाँ-बरबाद से भी
बढ़ती जाती है कशिश वादा-गहे हस्ती की
और कोई खींच रहा है अदम-आबाद से भी
[ 5 ]
कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की
उसने खुश्बू की तरह मेरी पिज़ीराई की
कैसे कह दूँ के मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू, तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की
उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगडाई की

********************

पसंदीदा शायरी / नासिर काज़मी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया, किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो
बस एक मोती सी छब दिखाकर, बस एक मीठी सी धुन सुनाकर
सितारए-शाम बनके आया, ब'रंगे-ख्वाबे-सेहर गया वो
खुशी की रुत हो के गम का मौसम, नज़र उसे ढूंडती है हरदम
वो बूए-गुल था के नग्मए-जाँ, मेरे तो दिल में उतर गया वो
न अब वो यादों का चढ़ता दर्या, न फुर्सतों की उदास बरखा
युंही ज़रा सी कसक है दिल में, जो ज़ख्म गहरा था भर गया वो
कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी, बदल चला रंगे-आसमां भी
जो रात भारी थी टल गई है, जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो
शिकस्तः-पा राह में खडा हूँ, गए दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफला मेरा हमसफ़र था, मिसाले-गरदे-सफर गया वो
हवस की बुनियाद पर न ठहरा, किसी भी उम्मीद का घरौंदा
चली जरा सी हवा मुखालिफ़, गुबार बनकर बिखर गया वो
वो मयकदे को जगाने वाला, वो रात की नींद उडाने वाला
ये आज क्या उसके जी में आई, के शाम होते ही घर गया वो
वो जिसके शाने पे हाथ रखकर, सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से, न जाने क्यों, आज सर झुकाए गुज़र गया वो
वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनवा हमसुखन हमारा
सदा रहे नाम उसका प्यारा, सुना है कल रत मर गया वो
वो रात का बेनवा मुसाफिर, वो तेरा शायर वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो
[ 2 ]
कुछ यादगारे-शहरे-सितमगर ही ले चलें
आए हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें
यूं किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र
सर पर खयाले-यार की चादर ही ले चलें
ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ्त्गी
घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें
इस शहरे-बेचराग में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शबे- फिराक तुझे घर ही ले चलें
[ 3 ]
आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या के रोज़ एक सा गम एक सी उम्मीद
इस रंजे-बेखुमार की अब इन्तेहा भी हो
टूटे कभी तो हुस्ने-शबो-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो
दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो
जुज़ दिल कोई मकान नहीं दह्र में जहाँ
रहज़न का खौफ भी न रहे दर खुला भी हो
हर शय पुकारती है पसे-परदए- सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो
[ 4 ]
जुर्मे-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक में भी कुछ सुना ही दे
इश्क में हम नहीं ज़ियादा तलब
जो तेरा नाज़े-कम-निगाही दे
तूने तारों से शब की मांग भरी
मुझको इक अश्के-सुब्ह-गाही दे
बस्तियों को दिए हैं तूने चराग
दस्ते-दिल को भी कोई राही दे
उम्र भर की नवागरी का सिला
ऐ खुदा कोई हमनवा ही दे
ज़र्दरू हैं वरक ख्यालों के
ऐ शबे-हिज्र कुछ सियाही दे
गर मजाले-सुखन नहीं नासिर
लबे-खामोश से गवाही दे
[ 5 ]
इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है
कभी तुम भी सुनो, ये धरती क्या कुछ कहती है
ये ठिठरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं
ये खामोशी आवाज़नुमा कुछ कहती है
सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं
और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है
कभी भोर भए, कभी शाम पड़े, कभी रात गए
हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है
नासिर आशोबे- ज़माना से गाफ़िल न रहो
कुछ होता है जब ख़ल्के-खुदा कुछ कहती है
*************

गुरुवार, 29 मई 2008

पसंदीदा शायरी / जोश मलीहाबादी

नज़्म

क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी

सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें

भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं

तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का

तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें

क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें

संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये

उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें

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पाकिस्तानी शायरी : ग़ज़ल

[ 1 ] आसिफ़ इक़बाल
कोई तीर दिल में उतर गया, कोई बात लब पे अटक गई
ऐ जूनून तूने बुरा किया, मेरी सोच राह भटक गई
बढे रूहों-जिस्म के फ़ासले, यहाँ इज्ज़तों की तलाश में
जो कली नवेदे-बहार थी, वाही बागबाँ को खटक गई
जिसे नोचने थे चले सभी, यहाँ बाग्बानो-गुलो-समर
वो कली उमीदे-सेहर बनी, वो कली खुशी से चिटक गयी
मुझे ज़िंदगी की तलाश में, कई माहो-साल गुज़र गए
मेरी सोच तख्तए-दार पर, जो लटक गयी सो लटक गयी
[ 2 ] शबनम शकील
सूखे होंट, सुलगती आँखें, सरसों जैसा रंग
बरसों बाद वो देखके मुझको, रह जायेगा दंग
माजी का वो लम्हा मुझको, आज भी खून रुलाये
उखडी-उखडी बातें उसकी, गैरों जैसे ढंग
दिल को तो पहले ही दर्द की, दीमक चाट गयी थी
रूह को भी अब खाता जाए, तन्हाई का ज़ंग
उन्हीं के सदके यारब मेरी, मुश्किल कर आसन
मेरे जैसे और भी हैं जो, दिल के हाथों तंग
आज न क्यों मैं चूडियाँ अपनी, किर्ची-किर्ची कर दूँ
देखी आज एक सुंदर नारी, प्यारे पिया के संग
शबनम कोई तुझसे हारे, जीत पे मान न करना
जीत वो होगी जब जीतेगी, अपने आप से जंग
[ 3 ] नोशी गीलानी
मुहब्बतें जब शुमार करना, तो साजिशें भी शुमार करना
जो मेरे हिस्से में आई हैं वो, अज़ीयतें भी शुमार करना
जलाए रक्खूँगी सुब्ह तक मैं, तुम्हारे रस्ते में अपनी आँखें
मगर कहीं ज़ब्त टूट जाए, तो बारिशें भी शुमार करना
जो हर्फ़ लौहे-वफ़ा पे लिक्खे, हुए है उनको भी देख लेना
जो रायगां हो गयीं वो सारी, इबारतें भी शुमार करना
ये सर्दियों का उदास मौसम, के धड़कनें बर्फ़ हो गयी हैं
जब उनकी यखबस्तगी परखना, तमाज़तें भी शुमार करना
तुम अपनी मजबूरियों के किस्से, ज़रूर लिखना विज़ाहतों से
जो मेरी आंखों में जल-बुझी हैं, वो ख्वाहिशें भी शुमार करना
[ 4 ] असलम अंसारी
मैंने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं
हादसा क्या था, जिसे दिल ने भुलाया भी नहीं
जाने क्या गुजरी के उठता नहीं शोर-ज़ंजीर
और सहरा में कोई नक्शे-कफ़े-पा भी नहीं
बेनियाज़ी से सभी कर्यए-जां से गुज़रे
देखता कोई नहीं है के तमाशा भी नहीं
वो तो सदियों का सफर कर के यहाँ पहोंचा था
तूने मुंह फेर के जिस शख्स को देखा भी नहीं
किसको नैरंगिए अय्याम की सूरत दिखलाएं
रंग उड़ता भी नहीं नक्श ठहरता भी नहीं
[ 5 ] अय्यूब रूमानी
जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सहने-गुल छोड़ गया, दिल मेरा पागल निकला
जब उसे ढूँढने निकले तो निशाँ तक न मिला
दिल में मौजूद रहा, आँख से ओझल निकला
इक मुलाक़ात थी, जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे, वो इक पल निकला
वो जो अफ्सानए-ग़म सुनके हंसा करते थे
इतना रोए हैं के सब आँख का काजल निकला
कौन अय्यूब परीशन है तारीकी में
चाँद अफ़लाक पे दिल सीने में बेकल निकला
*******************

पसंदीदा शायरी / फैज़ की ग़ज़लें


[ 1 ]
गुलों में रंग भरे, बादे-नौ-बहार चले
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह, तेरे कुंजे-लब से हो आगाज़
कभी तो शब, सरे-काकुल से मुश्क्बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकिबत संवार चले
[ 2 ]
तेरी उम्मीद , तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत, न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिले-नासुबूर बे क़ाबू
कलाम तुझ से नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है.
कहाँ गए शबे-फुर्क़त के जागने वाले
सितारए सहरी हम कलाम कब से है
[ 3 ]
तुम आए हो, न शबे-इंतज़ार गुजरी है
तलाश में है सहर, बार - बार गुज़री है
जुनूं में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
हुई है हज़रते-नासेह से गुफ्तुगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कूए-यार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहोत नागवार गुज़री है
न गुल खिले हैं, न उनसे मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे गारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बे-करार गुज़री है
[ 4 ]
कभ-कभी याद में उभरते हैं नक्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की वो कुर्बतें सी, वो फ़ासले से
कभी-कभी आरजू के सेहरा में, आ के रुकते हैं क़ाफले से
वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उन्वां विसाल के से
निगाहों-दिल को क़रार कैसा निशातो-ग़म में कमी कहाँ की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार की है उल्फत नए सिरे से
बहोत गरान है ये ऐशे-तनहा कहीं सुबुकतर कहीं गवारा
वो दर्दे-पिन्हाँ के सारी दुनिया रफीक़ थी जिसके वास्ते से
तुम्हीं कहो रिन्दों-मुह्तसिब में है आज शब कौन फ़र्क ऐसा
ये आके बैठे हैं मैकदे में वो उठके आए हैं मैकदे से
****************************

बुधवार, 28 मई 2008

अक़लीमे-एहसास / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

या खुदा !
तेरी हम्दो-सना से हमेशा मुझे
आब्नूसी फ़जाओं में रहकर भी
शफ्फाफ़ो-पुर्नूर अफ़कार की
राह मिलती रही.

मैंने मायूसियों के समंदर की मौजों को
तेरी अताअत के रौशन सफ़ीनों की
बे-खौफ रफ़्तार से चीर कर
अक्ल की वादियों का सफ़र तय किया
खुशनवा तायरों ने
जो विज्दान की वह्दतों के शजर पर
शऊरो-नज़र के मुरक़कों की सूरत
थे बैठे हुए
ज़िन्दगी की लताफ़त के नगमे सुनाये मुझे
मैं कभी लुक्मए-नफ्स बनकर
हिदायात से तेरी गाफ़िल नहीं हो सका
रफ़अते-ज़ाते-इन्साँ की तह्कीक़ के जोश में
नफ्स को अपने मैं
मुखतलिफ ज़ावियों से परखता रहा
मैंने पाया तेरे जल्वए-नूर को हर जगह
या खुदा !
मैं तेरी दस्तगीरी का मुहताज हूँ
पहले भी मैंने मांगी थी तेरी मदद
आज भी मांगता हूँ
के गंजे-गरांमाया से भी कहीं ज़्यादा है
तेरी इमदाद का वज़न मेरे लिए
ला-शरीक और यकता समझता हूँ मैं
दिल की गहराइयों से तुझे
मेरा ईमान ही एक ऐसा ज़खीरा है
जिसकी बदौलत मैं हँसते हुए
सामना करता आया हूँ खतरात का
तेरी खुशनूदियों की जिया से हैं रौशन
मेरे रास्ते.
इस से पहले के मैं और कुछ
अपने हालात का ज़िक्र तुझ से करूं
अपने कम-इल्म होने का इक़रार करते हुए
पूछना चाहता हूँ के मुझको
कहाँ और कब और क्यों तूने पैदा किया ?
क्यों मेरा ज़हन परवाज़ करता है उन वादियों में
के जिनसे मैं वाकिफ नहीं ?
क्यों मेरे क़ल्ब में ऐसी चिंगारियां जाग उठती हैं
जिनको तेरे नूर के रौज़नों का
तबस्सुम समझता हूँ मैं ?
या खुदा !
अपने एहसास को क्या करूं ?
मुझको महसूस होता है
ख़ुद अपनी आंखों से देखा है मैंने
के मैं -
ला-मकाँ सरहदों में कभी
पायए-अर्श की कील था
मुझको जड़कर बहोत खुश हुए थे मलक
क्योंकि मैं उनकी हर ज़र्ब को
तेरा अतिया समझकर
तेरा शुक्र हर लह्ज़ा करता रहा
मैंने देखा के जब तूने आदम के पुतले को
सर ता क़दम शाहकार अपनी तख्लीक का पाया
तू खुश हुआ
तूने रूहे-मुक़द्दस को अपनी कुछ इस तरह फूँका
के आदम ने जिसमे-बशर की हरारत को
साँसों में महसूस करके,
तेरी हम्द की
इस हरारत का इरफ़ान जिन्नो-मलक को ज़रा भी न था
फिरभी तामील में तेरे हुक्मे-मुक़द्दस की
सारे मलक सर-ब-सज्दा हुए
एक इबलीस था जिसको इनकार था मैं तेरी रूह का लम्स पाकर
शरारे कहीं क़ल्ब में अपने महसूस करने लगा
मेरी ये कैफ़ियत देखकर
तूने मुझको मुहब्बत से
आदम की प्यालीनुमा नाफ़ में रख दिया
मैं निगाहों में इबलीस की चुभ गया.
या खुदा !
ये ज़मीं तेरी, जिस से मैं अब खूब मानूस हूँ
इस से उस वक्त वाकिफ़ न था
जब मैं आदम के हमराह आया था इसपर तेरे अर्श से.
तूने फ़रमाया कुरआन में
तूने लोहे को पैदा किया
मेरा एहसास कहता है मुझसे, के मैं ही वो लोहा था
जिसको ज़मीं पर उतारा गया.
मुझको आदम ने
तेरी रज़ा की लताफत के अर्के-गुलअन्दाम से
पहले पिघलाया
फिर खुशबुओं के इकहरे बदन में
इनायत को याद करके तेरी
जज़्ब कुछ इस तरह कर दिया
मैं फ़क़त खुशबुओं का जहाँ रह गया
मैंने देखा के आदम की औलाद ने
एक की दूसरे पर फज़ीलत गवारा न की
खूने-नाहक बहा
और बातिल के जुल्मों का
एक सिलसिला सा शरू हो गया .

मेरे दामन पे औलादे आदम के खूं का
पडा दाग़ ऐसा
मेरी इत्र-बेज़ी सिमट सी गई
शायद औलादे-आदम को मेरी ज़रूरत न थी
मैं भटकता रहा मुद्दतों
और फिर मैंने देखा तेरे नूह को
उनकी कज-फ़ह्म उम्मत ने
तब्लीगे-हक़ का सिला यूं दिया
याद करके तुझे
वो बद-अक़ली पे उम्मत की रोते रहे
उनमें जुल्मो-तशद्दुद को
बर्दाश्त करने की कूव्वत न थी
नौहए-नूह तुझ को पसंद आ गया इस क़दर
शिक्वए-नूह पर तेरी क़ह्हारियत जाग उठी
तूने ये फैसला कर लिया
उम्मते-नूह गर्क़ाब हो
हुक्म पाकर तेरा एक कश्ती बनायी गई
जिसपे कुछ जान्दारों के जोडों के हमराह
जब, खुशबुओं के ज़खीरे को रक्खा गया
आफ़ियत मैंने महसूस की
आसमानों ज़मीनों से उठाती हुई
तेज़ मौजों में सैलाब की
मेरे दामन पे औलादे-आदम ने जो
खूने-नाहक़ का एक दाग़ था रख दिया
सब-का-सब धुल गया
सज्दए शुक्र मैंने किया
सामने मेरी आंखों के गर्क़ाब होता रहा एक जहाँ.
तेरी तौहीद की सुत्वतों ने मेरे ज़हन पर ज़र्ब की
शमएं रौशन हुईं मेरे इद्राक की
मैंने ख़ुद पर जो डाली नज़र
तू-ही-तू था फ़क़त जलवागर
या खुदा !
मेरे एहसास की खुशबुओं को भटकने न दे
तेरी हम्दो-सना के तक़द्दुस भरे पानियों से
वज़ू करके मैं
तेरी रह्मानियत के मुसल्ले पे
करता रहा हूँ नमाज़ें अदा
हिज्रे-यूसुफ़ में, याकूब की चश्मे-पुर्सोज़ से
जितने आंसू बहे
आतिशे-इश्क का एक पिघला हुआ
सुर्ख लावा थे वो
उनको यक्जा किया मैंने हौज़े-करम में तेरे
ताके मैं उन मुहब्बत भरे आंसुओं में नहाकर
तेरे सामने आ सकूँ
मेरे दिल ने कहा
नूह के आंसुओं में था
उम्मत के जुल्मो-तशद्दुद का शिकवा फ़क़त
उनमें कोई हरारत न थी
जबकि याकूब के आंसुओं में
तेरे जल्वए-हुस्न के हिज्र की
जानलेवा हरारत का तेज़ाब था.
या खुदा !
तेरे महबूब से इश्क करता हूँ मैं
ज़िक्र से उसके बेसाख्ता
भीग जाती हैं आँखें मेरी
भीग जाती हैं सर-ता-क़दम मेरी तन्हाइयां
पा-बरहना, सुलगते हुए रेगज़ारों से होकर
गुज़रता है जज़्बात का कारवाँ
हर तरफ़ गूँजती है सदा
इल्म का शहर कुरआन है
मुस्तफ़ा, मुस्तफ़ा
और उस शहर का बाब है सूरए-फ़ातिहा
मुर्तुज़ा, मुर्तुज़ा
पूरा कुरआन है क़ल्बे-मह्बूबे-हक़
जाने-कुरआन है सूरए फातिहा
जिस से ता-हश्र दुनिया को मिलती रहेगी जिला
मुस्तफ़ा-मुस्तफ़ा, मुर्तुज़ा-मुर्तुज़ा
या खुदा !
मैंने इल्म-किताब और हिकमत को
तेरे नबी से है हासिल किया
मेरे इद्राक में है उसी की ज़िया
काश तू बख्श दे मेरी आवाज़ को
लह्ने-दाऊद का सोज़
मैं अपने विज्दान को
अपनी हर साँस के जौहर-नूर से करके आरास्ता
राग छेडूँ इस अंदाज़ से
बज़्मे-क़ल्बे-बशर में चरागाँ हो
ज़ौके-अमल जाग उठे.
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