शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
हिन्दी ग़ज़ल /तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले
ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले।
लोग हैं सर्द बहोत दिल में तपिश कैसे मिले॥
दुश्मनी दौरे-सियासत की दिखावा है फ़क़त,
मस्लेहत पेशे-नज़र हो तो ख़लिश कैसे मिले॥
बर्क़-रफ़्तार शबो-रोज़ हैं, ठहराव कहाँ,
वज़अदारी-ओ-मुहब्बत की रविश कैसे मिले॥
किस ख़ता पर हैं लगाये गये उसपर इल्ज़ाम,
राज़ खुलता नहीं रूदादे-दबिश कैसे मिले ॥
साहबे-रुश्दो-कमालात कहाँ से लायें,
मकतबे-दानिशो-इरफ़ानो-अरिश कैसे मिले॥
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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे
तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू
लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू ।
दिल को महसूस हुई उसकी सदा की ख़ुश्बू॥
रेग़ज़ारों में नज़र आया जमाले-रुख़े-यार,
कोहसारों में मिली रंगे-हिना की ख़ुश्बू॥
हम ने देखा है सराबों में लबे-आबे-हयात,
माँ की शफ़्क़त में है मरवाओ-सफ़ा की ख़ुश्बू॥
लज़्ज़ते-हुस्न की मुम्किन नहीं कोई भी मिसाल,
लज़्ज़ते-हुस्न में होती है बला की ख़ुश्बू॥
पलकें उठ जयें तो बेसाख़्ता बिजली सी गिरे,
पलकें झुक जायें तो भर जाये हया की ख़ुश्बू॥
हुस्ने-मग़रूर पे छा जाये मुहब्बत का ख़ुमार,
दामने-इश्क़ से यूं फूटे वफ़ा की ख़ुश्बू॥
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रेगज़ारों=मरुस्थलों, जमाले-रुखे-यार=महबूब का रूप-सौन्दर्य,
कोहसारों=पहाड़ों, रंगे-हिना=मेहदी का रग, लज़्ज़ते-हुस्न=सौन्दर्य का आस्वादन, बे-साख्ता=सहज,
हुस्ने-मगरूर=घमंडी सौन्दर्य,
नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा
सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।
डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥
हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,
आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥
ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,
फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥
तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,
हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥
महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,
हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥
नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,
इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥
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