ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
हमें विशवास है अलगाव के फंदे से निकलेंगी.
किसी मस्जिद में तुलसीदास का बिस्तर लगा होगा,
अज़ानें भी किसी मंदिर के दरवाज़े से निकलेंगी.
बजाहिर जो दिखाई दे वही सच हो नहीं सकता,
गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी.
परिस्थितियों से लड़ते लेखकों के दिन भी लौटेंगे,
विदेशों की तरह जब पुस्तकें रुतबे से निकलेंगी.
हमारे संस्कारों की जड़ें मज़बूत हैं अब भी,
ज़मीनें तोड़ कर दुनिया के हर गोशे से निकलेंगी.
छुपी हैं आज प्रतिभाएं जो पिछडेपन के परदे में,
समय अनुकूल होने पर ये खुद परदे से निकलेंगी.
स्वयं अपने ही घर वाले सुनेंगे किस तरह उनको,
वो आहें भीगने पर रात जो चुपके से निकलेंगी.
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
गुरुवार, 26 मार्च 2009
रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.
रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.
भौतिक प्रदर्शनों ने है छीना कला का रंग.
उद्योग के विकास के हैं रास्ते खुले,
हर स्वस्थ-प्रक्रिया में है संभावना का रंग.
उत्साह ने प्रशस्त किये पथ, तो चल पड़ा,
सीमाओं में बंधा न किसी भी युवा का रंग.
अब झांकते हैं विश्व के वातायनों से हम,
अब किस में बाप-दादा की है संपदा का रंग.
दुख है तो संसदीय शिथिलताओं पर हमें,
क्या लौट पायेगा कभी निश्चिन्तता का रंग.
संसद के ये चुनाव अशिक्षित समाज को,
देते नहीं विचारों की स्वाधीनता का रंग.
कर्जे ने तोड़ दी है कमर हर किसान की,
सरकार है खुदा, तो उड़ा है खुदा का रंग.
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रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.
शून्य में साँसें टंगी हैं, ज़िन्दगी है लापता.
पाश में हैं सब तिमिर के, रोशनी है लापता.
सब ठगे से हैं, वधू की पालकी है लापता.
किस दिशा में जाएँ, क्या सोचें, ख़ुशी है लापता.
राग जिसमें थे हजारों, वो नदी है लापता.
टीम-टाम इतने बहोत हैं, सादगी है लापता।
सोमवार, 23 मार्च 2009
घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
चोट गहरी जो निरंतर बारहा देते रहे.
आत्मा तक जिनके हर व्यवहार से घायल मिली,
हम उन्हें भी निष्कपट होकर दुआ देते रहे.
अब किसी सद्कर्म की आशा किसी से क्या करें,
अनसुनी करते रहे सब, हम सदा देते रहे.
प्यार संतानों का घट कर आ गया उस मोड़ पर,
आश्रम बूढों को छत का आसरा देते रहे.
कुछ परिस्थितियाँ बनीं ऐसी कि घर के लोग भी,
एक चिंगारी को वैचारिक हवा देते रहे.
ये किवाडें डबडबाई आँख से कहतीं भी क्या,
चौखटों के नक्श वैभव का पता देते रहे.
कैसे दिन थे वो अँधेरी कन्दरा में भूख की,
थपथपाकर हम भी बच्चों को सुला देते रहे.
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दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
सहयात्री निश्चित अच्छे हो, साथ चलो.
आत्मीय पाओगे, कुछ विशवास करो,
ऐसी बातें क्यों करते हो, साथ चलो.
देखो प्रातः ने आँखें खोली होंगी,
रात कटी, अब क्यों बैठे हो, साथ चलो.
इधर - उधर भटकोगे गलियों - कूचों में,
किस अतीत के मतवाले हो, साथ चलो.
आँखें बिछी हुई हैं सबकी राहों में,
तुम आखिर क्या सोच रहे हो, साथ चलो.
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शुक्रवार, 20 मार्च 2009
मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.
मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.
रोशनी में था, अँधेरे में नहीं था.
पर्वतों सा एक भी नैराश्य मन की,
संहिताओं के सवेरे में नहीं था.
चक्षुओं में था सुरक्षित वो तमाशा,
सांप में विष था, सँपेरे में नहीं था.
नोकरी की खोज में निकला था प्रातः,
रात बीती और डेरे में नहीं था.
मैं हुआ अस्तित्व में उसके समाहित,
प्राण का पंछी बसेरे में नहीं था.
एक पल का भी वियोजन हो न पाया,
वो मगर 'मैं' और 'मेरे' में नहीं था.
मैं स्वतः लुटता रहा निःशब्द होकर,
कौन सा गुण उस लुटेरे में नहीं था.
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कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कि मन शीतांशु सा शीतल नहीं है.
लिये हैं सिन्धु सा ठहराव आँखें,
विचारों में कोई हलचल नहीं है.
भटकता हूँ मैं क्यों निस्तब्धता में,
मेरी उलझन का कोई हल नहीं है.
मैं देखूं क्या यहाँ संभावनाएं,
कि पौधों में कोई कोंपल नहीं है.
मरुस्थल करवटें लेते हैं मन में,
कि उद्यानों में भी अब कल नहीं है.
नहीं कोई भगीरथ मेरे भीतर,
मेरी आँखों में गंगाजल नहीं है.
अनाथों सी हैं अब संवेदनाएं,
सरों पर प्यार का आँचल नहीं है.
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बुधवार, 18 मार्च 2009
कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
वज़'अ पर अपनी मैं क़ायम था, न हिम्मत टूटी.
फ़ैसले हैं जो बनाते हैं मुक़द्दर की लकीर,
कोई लेकर नहीं आता कभी क़िस्मत टूटी.
कभी आंधी, कभी बारिश, कभी यख-बस्ता हवा,
इस नशेमन पे तो सौ तर्ह की आफ़त टूटी.
न रहा होश ही बाक़ी न रिवायत का ख़याल,
हाय किस चीज़ पे कमबख्त ये नीयत टूटी.
कितने ही करता रहा जिसकी हिफाज़त के जतन,
आखिरी मोड़ पे आकर वो रिफ़ाक़त टूटी.
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मंगलवार, 17 मार्च 2009
सड़कों के नल से आता है तश्ना-लबों का शोर.
पानी के बर्तनों में है प्यासे घरों का शोर.
बारिश की एक बूँद भी जिनमें न थी कहीं,
कल आसमान पर था उन्हीं बादलों का शोर.
कोई तो है जो बैठा है सैयाद की तरह,
ख़्वाबों के हर दरख्त पे है तायरों का शोर.
मंजिल-शनास होते नहीं जो भी रास्ते,
जाँ-सोज़ो-दिल-शिकस्ता है उन रास्तों का शोर.
सन्नाटा बस्तियों में है, खाली हैं सब मकाँ,
छाया हुआ फ़िज़ाओं में है मरघटों का शोर.
दरिया को अपनी राह पे चलना पसंद है,
साहिल मचाते रहते हैं पाबंदियों का शोर.
फूलों का एहतेजाज चमन में सुनेगा कौन,
महसूस बागबाँ ने किया कब गुलों का शोर.
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गुरुवार, 12 मार्च 2009
मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
के उसका होना यहाँ बे-समर हुआ कैसे.
कोई लगाव यक़ीनन था इससे भी, वर्ना,
पुकारता हमें इस तर्ह बुतकदा कैसे.
मजाज़ और हकीकत अलग-अलग तो नहीं,
छुपे खजाने का दुनिया है आइना कैसे.
ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए,
करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे.
धड़क रहा था मेरे दिल की वो सदा बनकर,
मैं उसका खाका बनाता भी तो भला कैसे.
अभी-अभी तो मेरे सामने था हुस्न उसका,
अभी-अभी पसे-दीवार छुप गया कैसे.
वो आजतक तो मेरी बात सुनती आई थी,
तगैयुर उसमें ये आया मेरे खुदा कैसे.
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