शून्य में साँसें टंगी हैं, ज़िन्दगी है लापता.
पाश में हैं सब तिमिर के, रोशनी है लापता.
सब ठगे से हैं, वधू की पालकी है लापता.
किस दिशा में जाएँ, क्या सोचें, ख़ुशी है लापता.
राग जिसमें थे हजारों, वो नदी है लापता.
टीम-टाम इतने बहोत हैं, सादगी है लापता।
युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
चोट गहरी जो निरंतर बारहा देते रहे.
आत्मा तक जिनके हर व्यवहार से घायल मिली,
हम उन्हें भी निष्कपट होकर दुआ देते रहे.
अब किसी सद्कर्म की आशा किसी से क्या करें,
अनसुनी करते रहे सब, हम सदा देते रहे.
प्यार संतानों का घट कर आ गया उस मोड़ पर,
आश्रम बूढों को छत का आसरा देते रहे.
कुछ परिस्थितियाँ बनीं ऐसी कि घर के लोग भी,
एक चिंगारी को वैचारिक हवा देते रहे.
ये किवाडें डबडबाई आँख से कहतीं भी क्या,
चौखटों के नक्श वैभव का पता देते रहे.
कैसे दिन थे वो अँधेरी कन्दरा में भूख की,
थपथपाकर हम भी बच्चों को सुला देते रहे.
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दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
सहयात्री निश्चित अच्छे हो, साथ चलो.
आत्मीय पाओगे, कुछ विशवास करो,
ऐसी बातें क्यों करते हो, साथ चलो.
देखो प्रातः ने आँखें खोली होंगी,
रात कटी, अब क्यों बैठे हो, साथ चलो.
इधर - उधर भटकोगे गलियों - कूचों में,
किस अतीत के मतवाले हो, साथ चलो.
आँखें बिछी हुई हैं सबकी राहों में,
तुम आखिर क्या सोच रहे हो, साथ चलो.
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मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.
रोशनी में था, अँधेरे में नहीं था.
पर्वतों सा एक भी नैराश्य मन की,
संहिताओं के सवेरे में नहीं था.
चक्षुओं में था सुरक्षित वो तमाशा,
सांप में विष था, सँपेरे में नहीं था.
नोकरी की खोज में निकला था प्रातः,
रात बीती और डेरे में नहीं था.
मैं हुआ अस्तित्व में उसके समाहित,
प्राण का पंछी बसेरे में नहीं था.
एक पल का भी वियोजन हो न पाया,
वो मगर 'मैं' और 'मेरे' में नहीं था.
मैं स्वतः लुटता रहा निःशब्द होकर,
कौन सा गुण उस लुटेरे में नहीं था.
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कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कि मन शीतांशु सा शीतल नहीं है.
लिये हैं सिन्धु सा ठहराव आँखें,
विचारों में कोई हलचल नहीं है.
भटकता हूँ मैं क्यों निस्तब्धता में,
मेरी उलझन का कोई हल नहीं है.
मैं देखूं क्या यहाँ संभावनाएं,
कि पौधों में कोई कोंपल नहीं है.
मरुस्थल करवटें लेते हैं मन में,
कि उद्यानों में भी अब कल नहीं है.
नहीं कोई भगीरथ मेरे भीतर,
मेरी आँखों में गंगाजल नहीं है.
अनाथों सी हैं अब संवेदनाएं,
सरों पर प्यार का आँचल नहीं है.
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कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
वज़'अ पर अपनी मैं क़ायम था, न हिम्मत टूटी.
फ़ैसले हैं जो बनाते हैं मुक़द्दर की लकीर,
कोई लेकर नहीं आता कभी क़िस्मत टूटी.
कभी आंधी, कभी बारिश, कभी यख-बस्ता हवा,
इस नशेमन पे तो सौ तर्ह की आफ़त टूटी.
न रहा होश ही बाक़ी न रिवायत का ख़याल,
हाय किस चीज़ पे कमबख्त ये नीयत टूटी.
कितने ही करता रहा जिसकी हिफाज़त के जतन,
आखिरी मोड़ पे आकर वो रिफ़ाक़त टूटी.
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मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
के उसका होना यहाँ बे-समर हुआ कैसे.
कोई लगाव यक़ीनन था इससे भी, वर्ना,
पुकारता हमें इस तर्ह बुतकदा कैसे.
मजाज़ और हकीकत अलग-अलग तो नहीं,
छुपे खजाने का दुनिया है आइना कैसे.
ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए,
करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे.
धड़क रहा था मेरे दिल की वो सदा बनकर,
मैं उसका खाका बनाता भी तो भला कैसे.
अभी-अभी तो मेरे सामने था हुस्न उसका,
अभी-अभी पसे-दीवार छुप गया कैसे.
वो आजतक तो मेरी बात सुनती आई थी,
तगैयुर उसमें ये आया मेरे खुदा कैसे.
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ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
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सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.
आँखें पिघल-पिघल गयीं, नींद ज़लील हो गयी.
सरदियों की ये मौसमी, खुन्कियां सर-बरहना हैं,
धूप भी इत्तेफ़ाक़ से, कितनी बखील हो गयी.
राज़ था राज़ ही रहा, उसका वुजूद आज तक,
उसको न मैं समझ सका, उम्र क़लील हो गयी.
रौज़ने-फ़िक्र में कई, और दरीचे वा हुए,
कोई तो रास्ता मिला, कुछ तो सबील हो गयी.
मंजिलों के पड़ाव हैं, अहले-जुनूँ के जेरे-पा,
तायरे-नफ़्स के लिए, राहे-नबील हो गयी.
सिलसिलए-हयातो-मौत, सिर्फ सफ़र है रूह का,
वस्ल की आरजू हुई, ज़ीस्त क़तील हो गयी.
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