सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.
चख लीजिये, गर आपका एह्सास है मुखर.
रिन्दों की तर्ह, किसने किया है, खुदा को याद,
जायें न दूर आप, कि इतिहास है मुखर.
तनहाई में जब आया है, उसका मुझे ख़याल,
महसूस ये हुआ है, कोई, पास है मुखर.
चिंता ये है, कि देखूं मैं अन्याय, किस तरह,
चुप भी रहूँ, तो ज़ुल्म का आभास, है मुखर.
जनता को, अपनी बातों से, बहला न पाओगे,
जिस युग में जी रहे हो, अनायास है मुखर,
किस तर्ह हो रही है गरीबों के धन की लूट,
हर एक, राजनेता का आवास, है मुखर.
मुझको, किसी को पढ़के, न ऐसा लगा कभी,
गोदान जैसा, कोई उपन्यास, है मुखर.
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दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया

दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया
दुख ये है मेरी आंखों पे कुहरा सा छा गया.
जुगराफ़ियाई दूरियों का कोई ग़म नहीं,
ग़म ये है दिल को तोड़ के वो मह्लक़ा गया.
मजबूरियाँ थीं ऐसी, मैं कुछ भी न कर सका,
वक़्त आया ऐसा भी, मुझे देकर सज़ा गया.
मैं उसके दर की ख़ाक पे सज्दा न कर सका,
बारिश हुई कुछ ऐसी, कि सारा मज़ा गया.
कोई नहीं जो दफ़्नो-कफ़न की करे सबील,
रुखसत का, इस जहान से, अब वक़्त आ गया.
रंजो-अलम के दौर में भी, हूँ मैं नग़मा-रेज़,
हालात ऐसे देख के, जी थरथरा गया.
मय के हर एक घूँट में था ज़िन्दगी का राज़,
साक़ी ये जामे-वस्ल पिलाकर चला गया.
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रविवार, 8 फ़रवरी 2009

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं / बाक़र ज़ैदी

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं.
हम अजब लोग हैं ज़हनों पे असर करते हैं.
बंदिशें हमको किसी हाल गवारा ही नहीं,
हम तो वो लोग हैं दीवार को दर करते हैं.
वक़्त की तेज़-खरामी हमें क्या रोकेगी,
जुम्बिशे-किल्क से सदियों का सफ़र करते हैं.
नक्शे-पा अपना कहीं राह में होता ही नहीं,
सर से करते हैं, मुहिम जब कोई सर करते हैं.
क्या कहें हाल तेरा, ऐ मुतमद्दिन दुनिया,
जानवर भी नहीं करते जो बशर करते हैं.
हमको दुश्मन की भी तकलीफ गवारा न हुई,
लोग अहबाब से भी सरफे-नज़र करते हैं.
मर्क़दों पर तो चरागाँ है शबो-रोज़ मगर,
उम्र कुछ लोग अंधेरों में बसर करते हैं.
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ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.

ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.
मैं ऐसे वक़्त में पैदा हुआ तो हासिल क्या.
नुजूमियों की हैं पेशीन-गोइयाँ बेसूद.
नसीब होता है एह्सासो-फ़िक्र से पैदा,
मुझे रहा न कोई खौफ मुह्तसिब का कभी,
पिलाया साक़ी ने मुझको, मैं खूब पीता गया.
उरूज पाते हैं जिस दौर में भी रक़्सो-तरब,
ये लाज़मी है कि हो क़त्लो-खून भी बरपा.
मैं सोचता हूँ कि ऐसी जगह चला जाऊं,
कि जिसका हो न अज़ीज़ और अक़रुबा को पता.
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ज़ुहल=शनि, मुश्तरी=बृहस्पति, बुर्ज=गुम्बद/राशियों का घर, यकजा=एकत्र, हासिल=प्राप्त, [ कहा जाता है कि जब शनि और बृहस्पति एक ही बुर्ज में हों, उन क्षणों में जो जन्म लेता है, बहुत प्रतापी और तेजस्वी होता है]. नुजूमियों=ज्योत्षियों, पेशीनगोइयाँ=भविष्यवाणियाँ, बेसूद=व्यर्थ, नसीब=भाग्य, एह्सासो-फ़िक्र=अनुभूति और चिंतन,मुह्तसिब=मधुशाला की निगरानी करने वाला, उरूज=तरक्की/उन्नति, रक्सो-तरब=नृत्य और संगीत, लाज़मी=अनिवार्य, अज़ीज़=प्रिय-जन, अक़रुबा=निकट सम्बन्धी.

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.
आत्म-गौरव की प्रतिष्ठा का हमें अच्छा है ज्ञान.
हर समय सुनता हूँ मैं अन्तर में कुछ ऐसा निनाद
जैसे पंडित शंख फूँके, जैसे मुल्ला दे अज़ान.
मेरी इस गतिशीलता ने लक्ष्य को सम्भव किया,
मार्ग में आते रहे मेरे, निरंतर व्यावधान.
इतने सारे भेद-भावों को जिलाकर एक साथ,
एकता मुमकिन नहीं है, खोजते रहिये निदान.
हर समय स्वच्छंद रहकर भी हो साहिल से बंधा,
बन न पाया मन का ये विस्तार दरया के समान.
सबकी इच्छा है कि हर अच्छा-बुरा करते रहें,
और दामन पर न आये एक भी काला निशान.
लोग बचने के लिए बारिश से, जब आये यहाँ,
मन ने धीरे से कहा छोटा है घर का सायबान.
एक ही धरती पे, अपने-अपने सब धर्मानुरूप,
चाहते हैं संस्थापित करना, अपने संविधान.
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आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.

आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.
आया वो युग, कि हो गई सरकार के अधीन.
पहले थे खुश कि रखते हैं विष हम भी अपने साथ,
फैलाव से है साँप के अब, तंग आस्तीन.
अभिनेता और नेता हैं दोनों कला में दक्ष,
इनके ही वंश में हुए सब इनके जानशीन.
संकल्प का हो कोडा, तो मंजिल नहीं है दूर,
कस लो समय के घोडे पे संभावना की ज़ीन.
जाँबाज़ियों के देते हैं वक्तव्य रात-दिन,
व्यवहार में रहे हैं हमेशा तमाशबीन.
अब कह रहे हैं ऐसे कई मित्र भी ग़ज़ल,
जो बोल तक न पाये कभी 'ज़्वाद', 'क़ाफ़', 'शीन'.
मैं रचना-कर्मियों से शिकायत करूँगा क्या,
ख़ुद आजतक हुई न मेरी चेतना नवीन.
धरती निभाती आयी है अपनी परम्परा,
आकाश पर हैं दर्ज कुछ आलेख समयुगीन।

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मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.

मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.
मिसाल उसकी नहीं है, वो मेरी बेटी है.
यक़ीन आपको आये न आये सच है यही,
उसी ने मुझको ये जीने की रोशनी दी है.
मुझे भी शुब्हा हुआ है,कि दिल-शिकन हूँ मैं,
उमीद जब किसी अपने की, मैंने तोडी है.
मैं अपने दौर का बन जाऊं हमनवा कैसे,
वही तो खर्च करूँगा जो मेरे पूँजी है.
ये मोजज़ा है, निकल आया हूँ मैं खैर के साथ,
भंवर में, दिल की ये कश्ती, कभी जो उलझी है.
मैं नर्म शाख नहीं था, लचक-लचक जाता,
कलाई मेरी, बहोत वक़्त ने मरोड़ी है.
मेरे शऊर को है नक़्शे-लामकां की तलाश,
जहाँ न अरजो-समाँ हैं, न जिस्मे-खाकी है.
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दिल-शिकन=ह्रदय तोड़ने वाला, हमनवा=एकस्वर, मोजज़ा=दैवी चमत्कार, शऊर=विवेक, नक़्शे-लामकां=महाशून्य का चिह्न, अरजो-समाँ=धरती और आकाश, जिस्मे-खाकी=मिटटी का शरीर.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.
और तू नीचे उतर आ, घर ये सारा है तेरा.
ज्ञानियों का ध्यान-स्थल है, तेरी ठोढी का तिल,
रूप के इस जाल में दाना ये अच्छा है तेरा.
जब भी भौंरे फूल पर आते हैं, तू होता है खुश,
इस चमन के साथ कुछ निश्चय ही रिश्ता है तेरा.
मेरी काया को न मिल पाया कभी भी तेरा साथ,
हाँ मेरे प्राणों पे तो अधिकार रहता है तेरा.
चित्त है रोगी, चिकित्सक हैं तेरे मीठे अधर,
है सेहत पल भर में निश्चित, ऐसा नुस्खा है तेरा.
मैं न जाने क्या हूँ मुझसे है गगन भी कांपता,
बात बस इतनी सी है मुझ में बसेरा है तेरा.
चित्त की निधियां नहीं ऐसी, किसी को सौंप दूँ,
इसपे मुहरें हैं तेरी, भरपूर सिक्का है तेरा.
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प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.

प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.
मन में कर लेती है घर इसकी मधुर आवाज़ भी.
प्रेमियों की आह से खाली ये दुनिया कब हुई,
सब को भाती है ये मीठी लय भी, ये अन्दाज़ भी.
मय की तलछट पीने वालों में हैं ऐसे भी पुरूष,
जिनकी जीवन-साधना है ब्रह्म की हमराज़ भी.
सांसारिक मोह-माया को जला देते हैं रिंद,
गुदडियों में लाल की सूरत हैं ये जांबाज़ भी.
थाह उनके ज्ञान की पाना सरल होता नहीं,
जिनमें है स्थैर्य भी, रखते हैं जो परवाज़ भी.
ज़िन्दगी भी एक मधुशाला सी लगती है हमें,
पीने वालों का यहीं अंजाम भी, आगाज़ भी.
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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.
गिरते हैं पेड़, जिनकी हैं गहरी जड़ें नहीं.
कैसा भी सर्द-गर्म हो रहता है वो समान,
माथे पे उसके आतीं कभी सिलवटें नहीं.
चुचाप नंगे पाँव उतर आया कब वो चाँद,
कमरे में तो किसी ने सुनीं आहटें नहीं,
ये आज भावनाओं की देवी को क्या हुआ,
रेखाएं हैं ललाट पे, सुलझीं लटें नहीं.
सम्भव है एक दिन कभी सौहार्द ऐसा हो,
धर्मों में, जातियों में, ये इन्सां, बटें नहीं.
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