बुधवार, 28 जनवरी 2009

मैं उसके पास से होकर हताश, लौट आया.

मैं उसके पास से होकर हताश, लौट आया.
वो कर रहा था सभी को निराश, लौट आया.
किसी ने मुझसे खरीदीं न सूर्य की किरनें,
किसी को था न अपेक्षित प्रकाश,लौट आया.
मैं खारदार घने जंगलों से गुज़रा था,
न आयी जिस्म पे कोई खराश, लौट आया.
न कोई घर था, न कोई कहीं ठिकाना था,
बताता मैं उसे क्या बुदो-बाश, लौट आया.
समय का टुकडा गया था भविष्य से मिलने,
बिछे जो देखे अंधेरों के पाश, लौट आया.
सुकून सिर्फ़ सुरक्षित है शब्दकोशों में,
कहाँ-कहाँ न की उसकी तलाश, लौट आया.
दबी पड़ी हैं कई सभ्यताएं धरती में,
जो देखा स्वर्ण-युगों का विनाश, लौट आया.
लगाया था कभी आँगन में गुलमोहर का दरख्त,
खड़ा था उसकी जगह पर पलाश, लौट आया.
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गाँव के पोखर से लाते थे चमकती मछलियाँ.

गाँव के पोखर से लाते थे चमकती मछलियाँ.
अधमुई, बेजान, निर्वासित, तड़पती मछलियाँ.

ये जलाशय राजनीतिक है, इसे छूना नहीं,
हमने देखी हैं यहाँ शोले उगलती मछलियाँ.


तुम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना से अभी परिचित नहीं,
देख पाओगे न तुम पेड़ों पे चढ़ती मछलियाँ.


मीन का यह मार्ग अज्ञानी न समझेंगे कभी,
मर के फिर जीवित हुईं इससे गुज़रती मछलियाँ.

मुग्ध हो जाते हैं ख़ुद अपने प्रदर्शन पर वो लोग,
जो दिखाते हैं भुजाओं से उभरती मछलियाँ.
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विशेष : यह छोटी सी ग़ज़ल कबीर की योग-साधना और प्रख्यात सूफी कवि रूमी के सूक्ष्म-चिंतन को विशेष रूप से समर्पित है.

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

नदी कुछ थम गई, सेलाब में थोडी कमी आयी।


नदी कुछ थम गई, सेलाब में थोडी कमी आयी।
उजड़ते गाँव में आशा की फिर से रोशनी आयी।
दरो-दीवार सब नैराश्य में डूबे मिले मुझको,
तुम्हें क्या छोड़ आया, घर की आंखों में नमी आयी।
तुम्हारी बात ऐसी थी जिसे कहना ज़रूरी था,
हवा खिड़की से होकर मेरे कमरे में चली आयी।
बढे गुस्ताख बादल जब, तो मुझसे चाँदनी बोली,
मेरी चिंता न करना, बस अभी जाकर, अभी आयी।
शरारत से भरी मुस्कान थी तितली की आंखों में,
कहा फूलों से उसने, लो मैं अपने होंठ सी आयी।
कहा बुलबुल ने गुल से राज़ सीने में छुपा लेना,
बताना मत किसी को, चेहरे पर कैसे खुशी आयी।
बनाने के लिए आवास, जब काटे गये जंगल,
हवा बिफरी, उगलती आग, गुस्से में भरी आयी।
ये धरती दो क्षणों को क्या हिली, भूचाल सा आया,
हुए कुछ घर अचानक ध्वस्त, कुछ में थरथरी आयी।
यही सच है, मुहब्बत की फ़िजाओं के न होने से,
दिलों में खौफ, चेहरों पर अजब बेचारगी आई।
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सोमवार, 26 जनवरी 2009

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.
हम उसको एक दिन अपना बना भी सकते हैं.

हमारे घर से भी वो चाँद झाँक सकता है,
कि हम हथेली पे सरसों उगा भी सकते हैं.

अगर हैं शांत, न समझो कि डर गये हैं हम,
जो दब चुका है, वो तूफाँ उठा भी सकते हैं.

हमें पता है हकीकत तुम्हारी भीतर से,
तुम्हारे सारे मुखौटे हटा भी सकते हैं.

न जाने कबसे हैं इन सूलियों के आदी हम,
चढाओ इनपे तो हम गुनगुना भी सकते हैं.

किए हैं हमने ही मज़बूत पाये आसन के,
हम आज चाहें तो चूलें हिला भी सकते हैं.
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रविवार, 25 जनवरी 2009

यौमे-जम्हूरियत [गणतंत्र-दिवस]

यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
हम तरक्की की राहों से गुज़रे बहोत,
फिर भी दुख-दर्द अपना सुनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
मुफ़लिसी, बेबसी, बेहिसी के ये उर्यां बदन कारवां,
जी के मायूसियां,
अपनी गुरबत को बाज़ार में ले गये बेचने के लिए,
महंगे मजदूर थे,
सस्ती मज्दूरियाँ,
उफ़ ये मजबूरियाँ,
बिक गयीं बेटियाँ.
यौमे जम्हूरियात का ये जश्ने मुबारक इन्हें
खुदकशी के सिवा कुछ नहीं दे सका।
क्योंकि इनको -
गुलामाना जिस्मों का अपने जनाज़ा उठाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
फिर भी दस्तूर है,
यौमे-जम्हूरियत की खुशी
हम मनाते रहे हैं बहोत शान से
इससे हमको मुहब्बत है जी-जान से,
आइये !
फिर से आपस में हम ये खुशी बाँट लें.
ज़िन्दगी से भरी कुछ हँसी बाँट लें,
भूल भी जाइए!
रोज़ रिसते हैं जो ज़ख्म, उनको दिखाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
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चोट खाने पे भी हैरत है कि आँखें न खुलीं.

चोट खाने पे भी हैरत है कि आँखें न खुलीं.
रह गयीं बंद, तजर्बात की परतें न खुलीं.
देख के उर्यां-बदन वक़्त की दहशत-गर्दी,
हल्क़ में घुट गयीं इस तर्ह कि चीखें न खुलीं.
मैं था हैरान कि झूले पे मैं साकित क्यों हूँ,
सामने रूप कुछ ऐसा था कि पेंगें न खुलीं.
थम गयीं देख के यकलख्त किसी का चेहरा,
राज़ सीने में छुपाये रहीं साँसें न खुलीं.
सुल्ह कुछ शर्तों पे आपस में हुई थी ऐसी,
सर पटकते रहे अहबाब वो शर्तें न खुलीं.
शह्र की सडकों पे होती रही खालिक की नमाज़,
ज़ख्मी मखलूक तड़पता रहा सड़कें न खुलीं.
एक बच्चे की तरह दौड़ा मुक़द्दर की तरफ़,
संगदिल था वो कुछ ऐसा कभी बाहें न खुलीं.
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शनिवार, 24 जनवरी 2009

हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.

हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.
मन से जो भी प्रेरणा पायी उधर तत्पर हुए.
बिक रही थीं आस्थाएं धर्म के बाज़ार में,
ले गये जो मोल, कल ऊंचे उन्हीं के सर हुए.
गीत के ठहरे हुए लहजे में थिरकन डालकर,
आज कितने गायकी में मील का पत्थर हुए.
जो रहे गतिशील, धीरे-धीरे आगे बढ़ गये,
ताल से दरिया बने, दरिया से फिर सागर हुए.
जान पाये हम न ऐसे मीठे लोगों का स्वभाव,
जिनके षडयंत्रों से हम मारे गये, बेघर हुए.
आर्थिक वैश्वीकरण की खूब चर्चाएँ हुईं
यत्न रोटी तक जुटाने के हमें दूभर हुए.
साक्षरता के सभी अभियान क्यों हैं अर्थ हीन,
इस दिशा में हम बहुत पीछे कहो क्योंकर हुए.
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पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.

पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.
मुरझा रहा है मन की दिशाओं का सब शरीर.

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कपड़े की तर्ह रख दिया शायद निचोड़ कर,
हालात ने हमारी कलाओं का सब शरीर।

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बच्चे बिलख रहे हैं कि हैं भूख से निढाल,
हड्डी का एक ढांचा है माँओं का सब शरीर।

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अबकी फ़सल हुई भी तो आ धमके साहूकार,
घायल पड़ा है घर की दुआओं का सब शरीर।

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इन बस्तियों से गूंजती है हलकी-हलकी चीख,
बेजान सा है इनकी सदाओं का सब शरीर.
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देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.
राह में मारते इस तर्ह न पत्थर मुझको.
मैं बियाबान में दम तोड़ रहा था जिस दम,
याद बेसाख्ता आया था मेरा घर मुझको.
कर लिया दोस्तों ने तर्के-तअल्लुक़ मुझसे,
वो ग़लत कब थे समझते थे जो खुदसर मुझको.
राह देखी जो सलीबों की तो दिल झूम उठा,
बस पसंद आ गया ये मौत का बिस्तर मुझको.
दिन गुज़र जाता था खाते हुए ठोकर अक्सर,
रात में भी न हुआ चैन मयस्सर मुझको.
कम-से कम साजिशें तो होतीं नहीं मेरे ख़िलाफ़,
अच्छा होता कि समझते सभी कमतर मुझको.

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शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

हत्याएं करके उसने जो धोये हैं अपने हाथ.

हत्याएं करके उसने जो धोये हैं अपने हाथ.
इतिहास के लहू में डुबोये हैं अपने हाथ.
निष्ठाएं बन न पाएंगी संपत्ति आपकी,
निष्ठाओं ने अभी नहीं खोये हैं अपने हाथ.
उन आंसुओं में ऐसी कोई बात थी ज़रूर,
उनसे स्वयं निशा ने भिगोये हैं अपने हाथ.
कैसा भी क्रूर हो वो न बच पायेगा कभी,
इन हादसों में जिसने समोए हैं अपने हाथ.
शायद यही श्रमिक के है जीवन का फल्सफ़ा,
कन्धों पे उसने रोज़ ही ढोये हैं अपने हाथ.
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