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रविवार, 25 जनवरी 2009

यौमे-जम्हूरियत [गणतंत्र-दिवस]

यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
हम तरक्की की राहों से गुज़रे बहोत,
फिर भी दुख-दर्द अपना सुनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
मुफ़लिसी, बेबसी, बेहिसी के ये उर्यां बदन कारवां,
जी के मायूसियां,
अपनी गुरबत को बाज़ार में ले गये बेचने के लिए,
महंगे मजदूर थे,
सस्ती मज्दूरियाँ,
उफ़ ये मजबूरियाँ,
बिक गयीं बेटियाँ.
यौमे जम्हूरियात का ये जश्ने मुबारक इन्हें
खुदकशी के सिवा कुछ नहीं दे सका।
क्योंकि इनको -
गुलामाना जिस्मों का अपने जनाज़ा उठाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
फिर भी दस्तूर है,
यौमे-जम्हूरियत की खुशी
हम मनाते रहे हैं बहोत शान से
इससे हमको मुहब्बत है जी-जान से,
आइये !
फिर से आपस में हम ये खुशी बाँट लें.
ज़िन्दगी से भरी कुछ हँसी बाँट लें,
भूल भी जाइए!
रोज़ रिसते हैं जो ज़ख्म, उनको दिखाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
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