मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.
तल्ख़ से होते हुए रिश्तों को पिघला न सका.
पा गयीं मुझको अकेला तो हुईं पहलू-नशीं,
और मैं चुभती हुई यादों को पिघला न सका.
लम्हे आये थे मेरे क़त्ल की साजिश लेकर,
वक़्त खामोश था उन लम्हों को पिघला न सका.
उसकी देहलीज़ पे सज्दे तो किये मैं ने बहोत,
ग़म यही है कि मैं उन सज्दों को पिघला न सका.
दिल के जांबाज़ दमागों से मुहिम जीत गये,
शोलए-फ़िक्र कभी जज़बों को पिघला न सका.
आख़िर उस शख्स की तहरीर का मक़्सद क्या है,
अपनी तख्लीक़ में जो सदियों को पिघला न सका.
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शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.
वैसे ख्वाहिश तो यही है कि बराबर आयें.
क्या ये मुमकिन है कभी आप मेरे घर आयें.
कुछ तो मालूम उन्हें भी हो कि दुनिया क्या है,
लोग खुद्साख्ता खोलों से जो बाहर आयें.
इतनी बेबाकी से हर बात कहा करते हैं आप,
सर बचा लीजिये अंदेशा है पत्थर आयें.
घर के दरवाज़े खुले रखने में खतरा है बहोत,
देखिये भूके दरिन्दे न कहीं दर आयें.
और भी लोग नुमायाँ हैं सनमखानों में,
क्या ज़रूरी है सब इल्ज़ाम मेरे सर आयें.
बे-अदब के लिए मम्नूअ है तहसीले-अदब,
इल्म का शह्र है, दरवाज़े में झुक कर आयें.
शैतनत मिट नहीं सकती है ज़माने से कभी,
ख्वाह दुनिया में कई लाख पयम्बर आयें.
खैरो-शर दोनों बहरहाल रहेंगे मौजूद,
सूइयां ज़ह्न की, कब, किसकी, कहाँ पर आयें.
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गुरुवार, 22 जनवरी 2009
किन उजालों के लिए चिंतित रहे.
किन उजालों के लिए चिंतित रहे.
कौन सा भ्रम लेके हम जीवित रहे.
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कोई घटना हो किसी भूखंड की,
हम अकेले थे जो आरोपित रहे.
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हर वितंडावाद में शामिल थे हम,
लाख व्यवहारों में अनुशासित रहे।
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हम थे क्षमतावान, पर गुमनाम थे,
जिनमें कोई गुण न था, चर्चित रहे।
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यातनाएं मुस्तक़िल देने के बाद,
देख कर हमको वो स्तंभित रहे।
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योजनायें आये दिन बनती रहीं,
जो थे पीड़ित, आज भी पीड़ित रहे।
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सच तो ये है कोई युग ऐसा न था,
जब सलीबों पर न हम कीलित रहे.
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बुधवार, 21 जनवरी 2009
तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.
दुख क्या अगर प्रयास सफलता नहीं बना.
माना कि लोग उससे न संतुष्ट हो सके,
फिर भी वो इस समाज की कुंठा नहीं बना.
वो है सुखी कि उसके हैं ग्रामीण संस्कार,
वो अपने गाँव-घर में तमाशा नहीं बना.
बारिश भिगो न पायी हो जिसके शरीर को,
कोई पुरूष कबीर के जैसा नहीं बना.
बे पर के भी उडानें ये भरता है रात दिन,
अच्छा हुआ मनुष्य परिन्दा नहीं बना.
श्रद्धा से उसके सामने रहता हूँ मैं नामित,
पर उसके सर के नीचे का तकिया नहीं बना.
कैसा भी हो प्रकाश, है उम्र उसकी मुख्तसर,
स्थायी रह सके, वो उजाला नही बना.
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नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.
नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.
मगर व्यक्तित्व से उनके, उमड़ता था समुन्दर भी.
नहीं बस कर्बला ईराक़ के भूगोल का हिस्सा,
ये है बलिदान के इतिहास का जीवित धरोहर भी.
झुका पाया न सर सच्चाइयों के उन प्रतीकों का,
यज़ीदी सैन्य-दल आतंकवादी मार्ग चुनकर भी.
मुसलमाँ थे मुहम्मद के नवासे के सभी क़ातिल,
मुसलामानों की दहशतगर्दियों का है ये मंज़र भी.
किसी समुदाय की संवेदनाएँ ही जो मर जाएँ,
तो फिर सच-झूठ का बाक़ी न रह जायेगा अन्तर भी.
हुसैनी दार्शनिकता ताज़ियों से है प्रतीकायित,
ये भारत है, हुसैनीयत का इस धरती पे है घर भी.
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मुहर्रम और इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत को केन्द्र में रख कर यह ग़ज़ल कही गई है.
करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।
करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।
अता की उसने आख़िर क्यों तमीजे-खैरो-शर मुझको।
उसूलों पर रहा क़ायम तो क़ीमत भी चुकाई है,
मिली है कैदखानों में अज़ीयत किस कदर मुझको।
ग़लत राहों पे ले जाने की कोशिश सबने कर डाली,
मिले वक़्तन-फ़वक़्तन कैसे-कैसे राहबर मुझको।
किसी के साथ रिश्तों में दरारें पड़ नहीं पायीं,
न कस पाये शिकंजों में किसी पल मालो-ज़र मुझको।
मैं चाहूँगा तुम्हारी हसरतें तशना न रह जाएँ,
कोई साज़िश करो ऐसी चढ़ा दो दार पर मुझको।
ज़मीनों ने दिये इखलास से तखलीक के जौहर,
समंदर ने अता कीं वुसअतें दिल खोलकर मुझको।
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मंगलवार, 20 जनवरी 2009
जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।
जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।
मैं इस कुहरे के जंगल में घुटन महसूस करता हूँ।
मैं अपने नफ़्स को पाता हूँ रौशन चाँद की सूरत,
मगर कुछ रोज़ से उसमें गहन महसूस करता हूँ।
मिला है मुझसे कोई हमज़ुबां जब गैर मुल्कों में,
मैं उस मिटटी में भी बूए-वतन महसूस करता हूँ।
बहोत ठंडी हवाएं जब भी उसका जिस्म छूती हैं,
समंदर में निराला बांकपन महसूस करता हूँ।
मेरी फिकरें मेरे एहसास को बेदार करती हैं,
मैं दिल में सुब्ह की ताज़ा किरन महसूस करता हूँ।
सभी फ़ितरी मनाजिर दर-हक़ीक़त शायराना हैं,
मैं उनमें नकहते-शेरो-सुख़न महसूस करता हूँ।
कहाँ तक मैं सफ़र में साथ दे पाऊंगा ऐ हमदम,
अंधेरों से उलझकर, कुछ थकन महसूस करता हूँ।
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क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।
क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।
ढल जाएँ एक दिन न कहीं पत्थरों में हम।
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तह्ज़ीब की ये करवटें बेसूद तो न थीं,
शामिल हैं आज वक़्त के शीशागरों में हम।
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तामीरे-नौ के ख़्वाबों का इज़हार क्या किया,
हर एक की नज़र में हुए ख़ुदसरों में हम।
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क्यों आज हमसे लेता नहीं कोई मशविरा,
कल तक बहोत नुमायाँ थे क्यों रहबरों में हम।
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मरकज़ से हाशिये पे खिसक कर हैं आ चुके,
मुमकिन है कल मिलें भी न दानिशवरों में हम।
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ये ठीक है कि हम हैं बनाते हुकूमतें,
ये भी दुरुस्त है कि नहीं खुश्तरों में हम।
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हर गाम पर वफाओं का देते हैं इम्तेहां।
हर लहजा फिर भी रहते हैं क्यों ठोकरों में हम।
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सोमवार, 19 जनवरी 2009
यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।
यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।
कहीं बेचैनियाँ होंगी, कहीं आतश-फिशां होंगे।
हमारी अम्न की बातें, महज़ झूठी तसल्ली हैं,
न गुज़रेंगे अगर जंगों से कैसे शादमां होंगे।
तरक्की-याफ़ता कौमों की बातों का भरोसा क्या,
अभी हमसे हैं मिलते, कल खुदा जाने कहाँ होंगे।
ख़याल इस बात का रखना भी हमको लाज़मी होगा,
वही कल होंगे दुश्मन आजके जो राज़दाँ होंगे।
हमें अंजाम भी मालूम है अक़दाम का अपने,
यहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे, वहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे।
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लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।
लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।
विद्रोह से भरा हुआ चिंतन समेट लो।
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कुछ होश भी है तुमको कड़कती हैं बिजलियाँ,
अच्छा यही है अपना नशेमन समेट लो।
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देखो उमड़ रहा है घटाओं का सिल्सिला,
आँगन में भीग जायेगा ईंधन समेट लो।
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आभास दुख का औरों को होने न दो कभी,
आंखों में तैरता हुआ सावन समेट लो।
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बेटों को जब विदेश में ही मिल रहा हो सुख,
तुम भी ये अपने मोह का बंधन समेट लो।
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सम्भव है आँधियों का न कर पाये सामना,
हल्का बहुत है फूस का छाजन समेट लो।
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