धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग, क्या कीजिये.
सबकी अपनी-अपनी कुंठा है अलग, क्या कीजिये.
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यह असंभव है कि हम पहुंचें किसी निष्कर्ष पर,
मेरा, उसका, सबका मुद्दा है अलग, क्या कीजिये.
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वो किसी के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता कभी,
अपनी धुन में मस्त, चलता है अलग, क्या कीजिये.
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एक ही परिवार में रहते हैं यूँ तो साथ-साथ,
फिर भी हर भाई का चूल्हा है अलग, क्या कीजिये.
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मैं समझता हूँ कि जनता की अदालत है ग़ज़ल,
फ़ैसलों का सबके लह्जा है अलग, क्या कीजिये.
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सुनने में अच्छी बहुत लगती है ये समता की बात,
किंतु सबकी अपनी प्रतिभा है अलग, क्या कीजिये.
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उसके हिस्से में कभी सुख-चैन आया ही नहीं,
उसकी पीडाओं का किस्सा है अलग, क्या कीजिये.
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सब के अपने-अपने सच हैं, अपनी-अपनी है समझ,
एक ही सच सबको लगता है अलग, क्या कीजिये.
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मेरे अंतस में ही ‘काबा’ है, कहाँ जाऊँगा मैं,
मेरा हज, मेरी तपस्या है अलग, क्या कीजिये.
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राष्ट्रवादी कोण से करते हैं विश्लेषण सभी,
आपकी मेरी परीक्षा है अलग, क्या कीजिये.
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रविवार, 28 दिसंबर 2008
धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग क्या कीजिये.
शनिवार, 27 दिसंबर 2008
कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.
कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.
हर तरफ़ ये कैसी खलबली की बात है.
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मैं अकेला जा रहा था सूनी राह पर,
तुम भी साथ आ गए खुशी की बात है.
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अपने-अपने आसमान सब ने चुन लिए,
मैं हूँ चुप, क्षितिज से दोस्ती की बात है.
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सोचता हूँ जाके मैं वहाँ करूँगा क्या,
मयकदों में सिर्फ़ मयकशी की बात है.
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सामने मेरे जलाये जा रहे थे घर,
और मैं विवश था आज ही की बात है.
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उन कबूतरों के पर कतर दिए गए.
जिनकी हर उड़ान ज़िन्दगी की बात है.
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सब हैं संतुलित समय के संयमन के साथ,
मेरी दृष्टि में तो ये हँसी की बात है.
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राष्ट्रवाद में दिमाग़ के हैं पेचो-ख़म,
देश-भक्ति दिल की रोशनी की बात है.
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गुनगुनी धूप के नर्म स्पर्श से,
* तुमने देखा अभी चाँद ने क्या कहा, रात के पास कोई अमावस नहीं, / अपने मन में जलाते रहो कुछ दिए, रोशनी फिर बरसती सी लगने लगे.
* जुगनुओं की चमक ने जो चौंका दिया, बचपना मेरा कुछ लौटता सा लगा, / सोचा उनको पकड़कर मैं रख लूँ अगर, जेब मेरी रुपहली सी लगने लगे.
* लोग कहते हैं ये मेरा ही गाँव है, मुझको लोगों का विशवास होता नहीं, / जब भी आता हूँ मैं गाँव के मोड़ पर, अजनबीपन की सरदी सी लगने लगे.
* झाँक कर मेरे मन में तो देखो कभी, अश्रु का एक सैलाब पाओगे तुम, / बस मैं डरता हूँ ऐसा न हो हादसा, तुमको साँस अपनी डूबी सी लगने लगे।
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.
ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.
ये भीतर जो भी हो, बाहर सुनहरा ही सुनहरा है.
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चला जाता है बस अपनी ही धुन में होके बे-पर्वा,
किसी की कुछ नहीं सुनता, समय कानों से बहरा है.
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हमारी कोरी भावुकता, हमें कुछ दे न पायेगी,
हमारी राह में कुछ दूर तक जंगल हैं, सहरा है.
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मुहब्बत के किले में क़ैद करके मुझको वो खुश है,
जिधर भी देखता हूँ उसकी ही यादों का पहरा है.
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हमारा उसका समझौता,किसी सूरत नहीं होगा,
कभी वो बात कोई मानकर कब उसपे ठहरा है.
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किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.
किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.
यही करता रहा है, ऐसा ही इतिहास है उसका.
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कभी जो अपना घर अनुशासनों में रख नहीं पाया,
वो कैसे बरतेगा हमसे, हमें आभास है उसका.
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उसे प्रारम्भ से आतंक में जीने की आदत है,
वही दुख-दर्द है उसका, वही उल्लास है उसका.
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हमें उससे जो सच पूछो तो बस इतनी शिकायत है.
किया है उसने जो कुछ भी, कोई एहसास है उसका.
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मैं हूँ आश्वस्त भी, निश्चिंत भी कल की नहीं पर्वा,
मुक़द्दर वेदना, पीड़ा, घुटन, संत्रास है उसका.
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चलो, उससे ही चलकर पूछते हैं, क्या इरादा है,
ये तैयारी है कैसी, कोई मकसद ख़ास है उसका.
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वो जो बातें भी करता है, कभी सीधी नहीं करता,
वो जो वक्तव्य देता है, स्वयं परिहास है उसका.
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उसीके हक में अच्छा है कि मिल-जुल कर रहे हमसे,
न पतझड़ है हमारा और न मधुमास है उसका,
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गुरुवार, 25 दिसंबर 2008
शैलेश जैदी का ग़ज़ल-संग्रह "कोयले दहकते हैं" / डॉ. परवेज़ फ़ातिमा
आज हिन्दी कविता में ग़ज़ल एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है. किंतु आलोचना के क्षेत्र में अभीतक कोई गंभीर कार्य नहीं हुआ. ग़ज़ल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो प्रस्तुत की गई, अच्छे गज़लकारों पर छोटे-बड़े आलेख भी प्रकाशित हुए, हाँ श्रेष्ठ ग़ज़ल के प्रतिमानों पर बहस की गुंजाइश लगभग ज्यों की त्यों छोड़ दी गई. आज की ग़ज़ल का फलक इतना व्यापक हो चुका है, कि वह जीवन से सम्बद्ध प्रत्येक चिंतन क्षेत्र पर दस्तक देती दिखायी देती है. दुख-दर्द, इश्क-मुहब्बत, दोस्ती-दुश्मनी, रूमान, क्षोभ, घुटन, आक्रोश, राजनीतिक उठापटक, दहशत-गर्दी, दंगे-फसाद, युद्ध, बाज़ारवाद, दिवालियापन, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो इसकी सीमाओं में न आता हो.
शैलेश जैदी के दो ग़ज़ल संग्रह 'चाँद के पत्थर' [1971] और 'कोयले दहकते हैं' [1990] अबतक प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य काव्य-रचनाओं पर जितनी चर्चाएँ हुईं, उनके ग़ज़ल संग्रह 'कोयले दहकते हैं' पर नहीं हो पायीं. उसका कारण यह है कि उनके प्रकाशक 'दीर्घा साहित्य संसथान, दिल्ली के डॉ. विनय कुछ ही दिनों बाद प्रकाशन समेटकर मुम्बई चले गए और पुस्तक की बिक्री और वितरण ठीक से नहीं हो पाया.
1970 के दशक में जैदी साहब अलीगढ़ में आंखों के शायर की हैसियत से जाने जाते थे. केवल आंखों पर उन्होंने पाँच सौ शेर कहे थे. जिनमे कुछ शेर तो बहुतों को कंठस्थ थे- 'इनको पहनाओ न काजल का गिलाफ़ / वरना हो जायेंगी काबा आँखे', अथवा 'मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है / ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का.' ऐसे ही अशआर थे. कोयले दहकते हैं के शैलेश जैदी ग़ज़ल में एक व्यापक फलक के साथ आए.
ग़ज़ल के अच्छे शेरों के लिए शैलेश ज़ैदी 'सहले-मुम्तेना' को अनिवार्य शर्त मानते हैं. अर्थात शेर की ऐसी सरलता जिसे देखकर आभास हो कि ऐसा शेर तो कोई भी आसानी से कह सकता है किंतु जब कहना चाहे तो असंभव सा प्रतीत हो. मीर और गालिब की यही खूबी उन्हें लोकप्रिय और श्रेष्ठ बनाती है. मीर का एक बहुत चर्चित शेर है- "पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है / जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है." अथवा गालिब के ये अशआर - "कोई उम्मीद बर नहीं आती / कोई सूरत नज़र नहीं आती.” “आगे आती थी हाले-दिल पे हँसी / अब किसी बात पर नहीं आती." इन शेरों में सादगी और सरलता के साथ जो गंभीर अनुभव- जन्य यथार्थ गुम्फित है, वह इन्हें मर्मस्पर्शी और लोकप्रिय बनाता है.
ग़ज़ल के अच्छे अशआर की दूसरी बड़ी विशेषता शैलेश जैदी की दृष्टि में यह है कि उसका हर मिसरा परिष्कृत गद्य का बेहतरीन नमूना हो. अर्थात शेर को गद्य में रूपांतरित करते समय एक भी शब्द इधर से उधर न करना पड़े. उदाहरण स्वरुप ग़ालिब का यह चर्चित शेर लीजिये - "यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और." या "गालिबे-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं / रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिये हाय-हाय क्यों." सभी मिसरे अपने आप में गद्य भी हैं. जिन गज़लकारों ने इन बातों को ध्यान में रखा है उनकी ग़ज़लों में लयात्मकता और प्रवाह सहज ही आ गया है, साथ ही साथ भाषा की चाशनी भी. सच तो यह है कि ग़ज़ल ही एक मात्र ऐसा काव्य रूप है जो अपनी तहजीबी रिवायत, लबो-लह्जा, साफगोई, और सीधा प्रहार करने की क्षमता के कारण उर्दू-हिन्दी के मध्य अभेदत्व की स्थिति बनाने में सक्षम है.
शैलेश जैदी ने ग़ज़ल की परम्परा और उसकी तहज़ीब को न केवल पढ़ा है बल्कि उसे ज़िन्दगी में उतारा भी है. यही कारण है की उनकी गज़लों में विषय-वैविध्य के साथ-साथ लबो-लहजे का सौन्दर्य, सीधी दो टूक बातें करने की गरिमा और दूर तक सोंचने के लिए पाठक को विवश कर देने का गुण सर्वत्र विद्यमान है. अधिकार मांगने के लिए हमारे देश में सर्वत्र भूख हड़तालें, विरोध-प्रदर्शन और जुलूस आयोजित किए जाते हैं और इन्हें दबाने के लिए सत्ता जो हथकंडे अपनाती है वे किसी से छुपे नहीं हैं. शैलेश जैदी के निम्लिखित दो शेर इस स्थिति को मात्र शब्द नहीं देते बल्कि यह भी साबित कर देते हैं की रचनाकार की संवेदनात्मक पक्षधरता किसके साथ है -
“हक मांगने के जुर्म में गोली चली थी कल/ कुछ लोग मर गए थे बहुत खल्भली थी कल/ हाँ ये वही मुकाम है याद आ गया मुझे/ उस नौजवाँ की लाश यहीं पर जली थी कल.”
शैलेश जैदी के शेरों की विशेषता यह है कि वे बिना किसी घटना की चर्चा किए केवल शब्दों के माध्यम से ऐसा दृश्य खड़ा कर देते हैं कि स्वतः हर बात स्पष्ट होती चली जाती है. वैसे तो ग़ज़ल का हर शेर पृथक होता है किंतु शैलेश की गज़लों में प्रारंभिक शेर से जो माहौल पैदा होता है वह अंत तक किसी न किसी रूप में बना रहता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखे जा सकते हैं—
वैसे तो घर के लोग बहुत सावधान थे/ फिर भी जगह-जगह पे लहू के निशान थे/ वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में/ पहले उसी जगह पे हमारे मकान थे/ जिनके घरों को आग लगा दी गयी थी रात/ इस देश का दर अस्ल वही संविधान थे/ चुपचाप यातनाएं सहन कर गए तमाम/ शायद यहाँ के लोग बहुत बे ज़ुबान थे.
सामान्य रूप से देखा यह जाता है कि लोग बड़े-बड़े दावे तो करते हैं किंतु भीतर से खोखले होते हैं. शैलेश का यह शेर सूरज और नदी के बिम्बों के माध्यम से इस कड़वी सच्चाई को पूरी तरह उकेर देता है- “सूरज के पास धूप, न पानी नदी के पास/ मिट्टी का एक जिस्म है खाली, सभी के पास.” इसी ग़ज़ल का एक अन्य शेर किसी विपन्न और असहाय का घर उजड़ जाने की विडम्बना को विस्मय, आश्चर्य और मानवीय करुणा से युक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत करता है- “क्या हादसा हुआ कि निशाँ तक नहीं बचा/ पहले तो एक घर था, यहाँ, इस गली के पास.” इस शेर को ' वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में' वाले शेर के साथ यदि मिलाकर पढ़ा जाय तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है.
शैलेश के अनेक शेर आत्म्कथ्यपरक होते हुए भी जन-सामान्य के दर्द की ही अभिव्यक्ति करते दिखाई देते हैं. उनमें जहाँ अकेलेपन का एहसास है, वहीं संघर्षों से जूझने का हौसला भी है और यही हौसला स्वाभिमान के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान के साथ उन्हें जीवित रखता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं - "छोड़ देते हैं सभी राह में तन्हा मुझको / शायद आता नहीं जीने का सलीका मुझको. / अब नहीं खून में पहली सी हरारत यारो / अब नहीं आता किसी बात पे गुस्सा मुझको. / खिड़कियाँ खोल दो बाहर से हवा आने दो / हौसला देती है संघर्षों की दुनिया मुझको. / मैं वो सूरज हूँ किसी लम्हा जो डूबा ही नहीं, / देखने आया कई बार अँधेरा मुझको."
शैलेश जैदी ने किसी विवशता के तहत या फैशन और शौक़ में ग़ज़लें नहीं कहीं. उनके अनुभवों की वह गहराई और भावनाओं की वह हरारत जिन्हें उनकी कवितायेँ नहीं समेट पायीं, उनकी ग़ज़लों में शिद्दत और गहराई के साथ अपनी पहचान बनाती दिखाई देती हैं. शैलेश अपने इर्द-गिर्द के विषैले वातावरण, मानवीय संबंधों की निरंतर चौडी होती दरार और मानव अस्मिता के खतरों में घिरे रहने की पीड़ा महसूस करते हुए अपनी संवेदनाओं की प्रेरणा से ग़ज़ल की दुनिया में दाखिल होते हैं और अपने गमो-गुस्से की अभिव्यक्ति में ज़रा भी संकोच नहीं करते.
शैलेश के भीतर कितना दर्द और कितनी पीड़ा छुपी हुई है इसका अनुमान उनकी ग़ज़ल विषयक अवधारणा से किया जा सकता है - "आँखें अगर न भीगें तो हरगिज़ ग़ज़ल न हो / उगते हैं पेड़-पौदे हमेशा नमी के पास." अथवा " न हो अगर मेरे शेरों में आंसुओं की नमी / यक़ीन कर लो मेरी शायरी अधूरी है." और आंसुओं की यह नमी शैलेश को पूरी तरह भिगो देती है - "आंसुओं से रात का दामन अगर भीगा तो क्या / किसने पर्वा की मेरी मैं फूटकर रोया तो क्या." इस स्थिति का होना स्वाभाविक है - "ज़हरीले सौंप पांवों से मेरे लिपट गए / डसता रहा खुलूस से हर रास्ता मुझे." अथवा " जब सीढियों से होके चली जाय छत पे धूप / आँगन में सिर्फ़ एक धुंधलका दिखायी दे." / "बारिश से बच-बचाके जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे." यह स्थितियां काल्पनिक नहीं हैं. इनमें एक भोगा हुआ सच है जो शैलेश की पीड़ा को हमारी, आपकी सबकी पीड़ा बना देता है. अनुभवों का यह सफर यहीं पर नहीं रुकता -"कैसे गीली लकड़ियाँ सूखें जले किस तर्ह आग,/ रोज़ आ-आ कर इन्हें बारिश भिगो जाती है अब." / रेत पर जलते हुए पांवों का शिकवा क्या करूँ, / इस समंदर की हवा तक आग हो जाती है अब." यह स्थितियां किसी की भी आँखें नम करने के लिए पर्याप्त हैं.
स्पष्ट है कि शैलेश जैदी की गज़लों में विद्यमान आंसुओं की यह नमी उन्हें संघर्ष और विद्रोह की ऊर्जा प्रदान करती है. शैलेश दुष्यंत की गज़लों को पसंद करते हुए भी उनमें दर्द की कमी महसूस करते हैं -"बहुत हसीन है दुष्यंत की ग़ज़ल लेकिन / मिला न दर्द उसे मेरी शायरी की तरह."
शैलेश जैदी अपने समय के यथार्थ को पूरी गहराई से देखते हैं. कदाचित इसी लिए उन्हें कल्पनालोक में शरण लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जहाँ उनकी दृष्टि सामजिक विसंगतियों और अमानवीय राजनीतिक व्यवस्था पर है, वहीं वे अपने अंतस में छुपे दर्द से भी साक्षात्कार करते हैं. शहरी एकाकीपन और अस्मिता पर लगे प्रश्न चिह्न तथा रेत-रेत होते रिश्ते उनकी अनुभूतियों को अपने निजीपन से निकालकर हर व्यक्ति के निजीपन का पर्याय बना देते हैं. अंत में "कोयले दहकते हैं" ग़ज़ल-संग्रह से कुछ शेर उद्धृत किए जाते हैं-
"वो इन्सां और होंगे राह में जो टूटते होंगे / हमारे साथ जितने लोग होंगे सब खरे होंगे।/ मैं सच कहता हूँ जिस दिन धूप में आएगी कुछ तेज़ी / तुम्हारे पास बस टूटे हुए कुछ आईने होंगे. / बहुत मज़बूत थीं इनकी जड़ें मालूम है मुझको / मैं कैसे मान लूँ ये पेड़ आंधी में गिरे होंगे"**** "इन झोंपड़ों की राख हटा कर तो देखिये /. उटठेंगी इनके बीच से चिंगारियां ज़रूर. / मछलियाँ दरिया की सब बेचैन हैं / जाल अपने साथ लाया है कोई. / पत्तियों के साथ सब परिन्द उड़ गए / ठूंठ सा दरख्त बुत बना खड़ा रहा. / पत्थर को पत्थर मत समझो, प्यार से उसको छूकर देखो / आँखें उसकी भीगी होंगी, दिल में उसके छाले होंगे. रोशनी फूटेगी निश्चित रूप से / हम लडेंगे कल व्यवस्थित रूप से. / कुरुक्षेत्र दब गया कहीं शायद इतिहास के मलबे में / मेरे देश की धरती केवल मथुरा है वृन्दाबन है. / हम नहीं पल-पल बदलते मौसमों के पक्षधर / हमसे टकराए न अधिकारों की अंधी रोशनी. / हमसे हंसकर जितने लोग मिले उन सबके / चहरे तो रौशन थे लेकिन दिल काले थे. / लोग कर पायें न संसद में अंधेरों का हवन / आग भड़काओ कुछ ऐसी कि जला दे सबको. / लोग जिस रोटी के टुकड़े के लिए बेचैन हैं / कुछ भी कर बैठेगा वो रोटी का टुकडा एक दिन."
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वो अपने लाल को गेहूं के बदले बेच देते हैं.
पड़ी हो जान पर तो सारे रिश्ते बेच देते हैं.
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ये कैसी भूख है जो आत्मा को मार देती है,
चुराकर मंदिरों से मूर्ति, कैसे बेच देते हैं.
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हमारे भ्रष्ट होने की कोई सीमा नहीं शायद,
परीक्षा होने से पहले ही परचे बेच देते हैं.
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कहीं कैसी भी हो गंभीर दस्तावेज़, हम में ही,
कई ऐसे हैं, लेकर खूब पैसे, बेच देते हैं.
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हुनर हमने ये अपने राजनेताओं से सीखा है,
वो जनता को सरे-बाज़ार सस्ते बेच देते हैं.
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हमारे गाँव के ये खेत जो पैतृक धरोहर हैं,
हमारे काम क्या आते हैं, चलिये बेच देते हैं.
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बुधवार, 24 दिसंबर 2008
ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.
ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.
मैं पूछता रहा, घर आये कुछ परिंदों से.
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जिधर भी देखिये होती हैं जंग की बातें,
कोई भी थकता नहीं आज ऐसे चर्चों से.
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अशोक चक्र जनाजे पे जाके रख देना,
मिलेगी शान्ति तुम्हें क़ौम के शहीदों से.
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हमारा धैर्य बहुत जल्द टूट जाता है,
कभी भी सीख कोई ली न हमने पुरखों से.
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समझ से काम लो इतने उतावले न बनो,
ये पानी और अब ऊपर चढ़े न घुटनों से.
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उसे ज़रा भी है अपने किये का पछतावा,
सवाल करता रहा मैं गुज़रते लम्हों से.
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हमारी दूरियां बढ़ती गयीं विकास के साथ,
किसी ने पूछा नहीं कुछ समय की नब्ज़ों से.
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हवाएं उनको उडाती हैं जैसे चाहती हैं,
जो पत्ते टूट चुके हों खुद अपनी शाखों से.
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कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.
कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.
बहुत कड़वा कसैलापन, इधर भी है, उधर भी है.
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गँवाए हैं बड़े बहुमूल्य माँ के लाल दोनों ने,
जनाज़ों से भरा आँगन, इधर भी है, उधर भी है.
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कलाएं देश की चौहद्दियों में बंध नहीं पातीं,
कलाकारों को यह अड़चन, इधर भी है, उधर भी है.
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कहीं मिटटी के चूल्हे पर पतीली फदफदाती है,
कहीं सुलगा हुआ ईंधन, इधर भी है, उधर भी है.
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कभी थे एक, अब होकर अलग दुश्मन से लगते हैं,
इसी इतिहास का दर्पन, इधर भी है, उधर भी है.
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घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती,
वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है.
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परस्पर हो गयीं विशवास की रेखाएं क्यों धूमिल,
नयी, अनजानी सी धड़कन, इधर भी है, उधर भी है.
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चलेंगी आंधियां तो फूल के पौधे भी टूटेंगे,
सुगंधों से भरा उपवन, इधर भी है, उधर भी है.
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मंगलवार, 23 दिसंबर 2008
समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
कहीं भीतर से हर इंसान कुछ आतंकवादी है.
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कोई पत्नी को भय से ग्रस्त कर देता है जीवन में,
किसी ने जनपदों की नींद दहशत से उड़ा दी है.
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वही संतुष्ट हैं बस जिनकी अभिलाषाएं सीमित हैं,
वही हैं शांत जिनकी ज़िन्दगी कुछ सीधी-सादी है.
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हमारे युग में उत्तर-आधुनिकता के प्रभावों ने,
हमें धरती से रहकर दूर जीने की कला दी है.
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सभी धर्मों में हैं संकीर्णताओं के घने बादल,
जिधर भी देखिये धर्मान्धता की ही मुनादी है.
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समस्याएँ कभी सुलझी नहीं हैं युद्ध से अबतक,
परिस्थितियों ने फिर भी युद्ध की हमको हवा दी है.
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यहाँ धरती पे भ्रष्टाचार भी है एक अनुशासन,
न जाने कितनों की इस तंत्र ने दुनिया बन दी है.
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उमस, सीलन, घुटन, दुर्गन्ध में हम जी रहे हैं क्यों,
हमारी ही व्यवस्था ने हमें क्यों ये सज़ा दी है.
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ये सब निर्वाचनों के पैतरे हैं, तुम न समझोगे,
दिशा सूई की हमने दूसरी जानिब घुमा दी है.
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