आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.
देखता है क्यों उन्हें इतिहास शक के रूप में.
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अब वो आदम सेतु हो या सेतु हो श्री राम का,
दोनों ही जीवित हैं साँसों की महक के रूप में.
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खुल के पाकिस्तान बातें कर नहीं सकता कभी,
व्यक्त दुर्बलताएं उसकी हैं झिझक के रूप में.
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लोग भावुकता में आकर जो भी जी चाहे कहें,
एक हैं सब तैल-चित्रों के फलक के रूप में.
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भभकियां देते हैं वो भीतर से जो होते हैं रिक्त,
हाल दीपक का हुआ ज़ाहिर भभक के रूप में.
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अर्चना, पूजा, अज़ानें, दाढियां, रोचन तिलक,
धर्म, मज़हब के दिखावे हैं सनक के रूप में,
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पेड़ पर आता है जब भी फल तो झुक जाता है पेड़,
ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है लचक के रूप में.
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मन में हो संतोष तो सत्कर्म में ही स्वर्ग है,
मन कलुष हो जब तो है जीवन नरक के रूप में.
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शनिवार, 13 दिसंबर 2008
आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.
शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008
चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.
चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.
उस धरती की मिटटी से कुछ परिचित से हम लगते हैं.
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केश हैं उसके सावन-भादों, मुखडा है जाड़े की धूप,
जितने भी मौसम हैं उसके, प्यार के मौसम लगते हैं.
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सब माँओं के चेहरे गोद में जब बच्चे को लेती हैं,
सौम्य हुआ करते हैं इतने मुझको मरियम लगते हैं.
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हवा में जब भी नारी के आँचल उड़कर लहराते हैं,
चाहे जैसा रंग हो उनका देश का परचम लगते हैं.
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मैं उसका सौन्दर्य बखानूँ कैसे अपने शब्दों में,
मेरे ज्ञान में जितने भी हैं शब्द बहुत कम लगते हैं.
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घिसे-पिटे भाषण सुनता हूँ जब भी मैं नेताओं के,
निराधार, निष्प्राण, तर्क से खाली, बेदम लगते हैं.
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सम्प्रदाय अनगिनत हैं धर्मों के भी हैं आधार अलग,
किंतु ध्यान से देखें सबके एक ही उदगम लगते हैं.
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008
मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.
मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.
वह भी सागर ही है, वह प्रत्येक पल सागर में है.
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मुख्य धारा में कभी मोती कोई मिलाता नहीं,
गहरे उतरोगे तो पाओगे वो उसके तल में है.
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गर्भ में सागर के पलते हैं कई ज्वाला मुखी,
और तूफानों का इक संसार वक्षस्थल में है.
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देखिये आकाश से धरती के रिश्तों को कभी,
ज़िन्दगी सागर की हर पानी भरे बादल में है.
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लहरें सागर की सुनामी हों तो निश्चित है विनाश,
कितने गहरे रोष की अभिव्यक्ति इस हलचल में है.
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देखना आसान है साहिल से सागर का बहाव,
साहसी है वो जो लहरों के सलिल आंचल में है.
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बुधवार, 10 दिसंबर 2008
जिस शिखर पर तुम खड़े हो
जान लो यह भ्रष्ट कुत्सित श्रृंखलाओं का शिखर है.
तुमने इस धरती की ऊर्जा, को कभी समझा नहीं है.
मर्म में इसके सहजता से, कभी झाँका नहीं है.
धर्म की संकीर्णताओं से नहीं सम्बन्ध इसका.
भक्तिमय अनुशासनों के साथ है अनुबंध इसका.
प्रेम है आधार इसकी सात्त्विक ओजस्विता का.
चिह्न है पारस्परिक सौहार्द इसकी अस्मिता का.
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दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
उससे इतने प्यार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मेरे मित्रों ने लगा दी आग जब घर को मेरे,
फिर किसी घर-बार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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अब दया करुणा की बातें हो चुकी हैं अर्थ-हीन,
तुमसे इस व्यवहार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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क्या परिस्थितियाँ बनीं जो मैं अकेला हो गया,
शायद इस संसार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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वह सलिल सा है तरल, इतना तो मैं था जानता,
स्नेहमय सत्कार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मैं ही दरया, मैं ही नाविक और मैं ही नाव था,
राह में मंझधार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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चाहने वालों का उसके मुझको अंदाज़ा तो था,
किंतु इस भरमार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मंगलवार, 9 दिसंबर 2008
खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
कुछ खरोचें भी पड़ी थीं सुब्ह के रुखसार पर.
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घर के बीचों-बीच मेरी लाश थी रक्खी हुई,
एक सन्नाटा सा तारी था दरो-दीवार पर.
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अम्न के उजले कबूतर आये आँगन में मेरे,
उड़ गये, दामन में मेरे छोड़ कर दो-चार पर.
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वो मुहब्बत का था सौदाई, खता इतनी थी बस,
दुश्मनों ने प्यार के, उसको चढाया दार पर.
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दानए-तस्बीह पर वो नक़्श कर देता था ओम,
आयतें कुरआन की लिखता था वो ज़ुन्नार पर,
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हमसे वाबस्ता किए जाते हैं सारे ही गुनाह,
जुर्म कुछ आयद नहीं होता कभी सरकार पर.
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लोग अपने ही ख़यालों में रहा करते हैं गुम,
क्यों तरस खाएं किसी बन्दे के हाले-ज़ार पर.
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दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.
दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.
चित्त में प्रज्ज्वलित थी जो संवेदना अब नहीं रह गई.
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आरती के सभी शब्द अधरों पे ही नृत्य करते रहे,
चीर कर मन निकलती थी जो प्रार्थना, अब नहीं रह गई.
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अब नहीं होतीं तेजस्वियों की सभाएं किसी मोड़ पर,
जिसमें चिंतन-मनन हो वो उदभावना अब नहीं रह गई.
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बाप बेटे, बहेन भाई माँ और बाबा सभी बँट गए,
एक जुट स्वस्थ परिवार की कल्पना अब नहीं रह गई,
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सबकी काया में आतंकवादी शरण ले रहे हैं कहीं,
एक की दूसरे के लिए सांत्वना अब नहीं रह गई.
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जिसको जो चाहिए बेझिझक आपसे छीन लेता है वो,
कोई बिनती-सुफारिश, कोई याचना अब नहीं रह गई.
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लक्ष्य पर दृष्टि पहले की सूरत ही सबकी है अब भी मगर,
लक्ष्य की प्राप्ति में अनवरत साधना अब नहीं रह गई.
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हमें अपने पड़ोसी से शिकायत बेसबब क्यों हो.
मिले वो प्यार से तो दिल में नफ़रत बेसबब क्यों हो.
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ये दहशत-गर्दियाँ उसके अगर क़ाबू से बाहर हैं,
तो उसके साथ कोई भी मुरौवत बेसबब क्यों हो.
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हमें तक़सीम जो कर दें वो रहबर हो नहीं सकते,
हमें उन रहबरों से फिर अकीदत बेसबब क्यों हो.
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न काम आयीं किसी लमहा करिश्मा-साज़ियाँ उसकी,
वो ऐसा हो न गर, उससे बगावत बेसबब क्यों हो.
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न हो कुछ भी अगर उस दिलरुबा, गुंचा-दहन बुत में,
सभी की उसपे यूँ मायल तबीयत बेसबब क्यों हो.
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नवाजिश बे-गरज करता नहीं इस दौर में कोई,
तो फिर ये आपकी चश्मे-इनायत बेसबब क्यों हो.
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सोमवार, 8 दिसंबर 2008
ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.
ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.
वुजूद होके मेरा बेनिशान, गायब था.
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हमें अज़ीज़ थीं फिरका-परस्तियाँ इतनी,
हमारे नक्शे से हिन्दोस्तान गायब था.
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सुबह मैं निकला था तो घर भी था मकान भी था,
जो लौटा शाम को घर था मकान गायब था.
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कहा था उसने कि नफ़रत को यूँ फ़रोग न दो,
ख़बर छपी तो ये सारा बयान गायब था.
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कबूतरों का था जमघट अभी यहाँ कल तक,
चलीं जो गोलोयाँ, भरकर उड़ान, गायब था.
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बनाया था जिसे उसने बहोत मुहब्बत से,
खुली जो आँख तो उसका जहान गायब था.
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चला था लेके मैं उस कारवान को हमराह,
अकेला रह गया मैं, कारवान गायब था.
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हम एक होके शगुफ़्ता-मिज़ाज लगते थे,
हमारे चेहरों से वहमो-गुमान गायब था.
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मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.
मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.
मैं कुछ कहूँ भी तो कहने को वो ज़बान नहीं.
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बलंदियाँ न कभी छू सकेंगे ख्वाब उनके,
घरों से जिनके नज़र आता आसमान नहीं.
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ज़मीन पाँव तले से खिसकती जाती है,
सरों पे साया जो दे ऐसा सायबान नहीं.
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लहू में कोई हरारत रही नहीं बाक़ी,
मेरे खुदा मेरा अब और इम्तेहान नहीं.
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यहाँ न आओ यहाँ नफ़रतें मिलेंगी तुम्हें,
मुहब्बतों के यहाँ आज क़द्रदान नहीं.
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गुलाब-रंग हों सुबहें धुली-धुली शामें,
हमारे शह्र को ऐसा कोई गुमान नहीं.
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बरतना उसको ज़रा इह्तियात से ‘जाफ़र’,
बगैर वज्ह के होता वो मेह्रबान नहीं.
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