रविवार, 19 अक्तूबर 2008

उसे शिकायत है

उसे शिकायत है

कि मेरे भीतर 'मैं' बहुत अधिक है।

वह शायद यह नहीं देख पाया,

कि मेरा यह 'मैं'

केवल मेरा नहीं है,

आपका, उसका, सभी का है।

जब कोई दुस्साहस करके

सबके 'मैं' को समेट लेता है अपने 'मैं' में,

तो असह्य हो जाता है उसके साथ जीवन

और जब

अपने 'मैं' को बाँट देता है कोई

सबके 'मैं' में

तो जन्म लेता है एक विश्वास

मुस्कुराने लगता है घर-आँगन।

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समंदर चाँद को आगोश में लेकर तड़पता है.

समंदर चाँद को आगोश में लेकर तड़पता है.
तुम्हारे साथ रहने पर भी दिल अक्सर तड़पता है.
ख़बर तुमको नहीं जब तुम नहीं आते कई दिन तक,
मकाँ बेचैन हो जाता है, दर खुलकर तड़पता है.
तुम्हारी गुफ्तुगू सुनकर मुझे महसूस होता है,
उतरने के लिए गोया कोई खंजर तड़पता है.
हुआ सरज़द ये कैसा जुर्म इस गुस्ताख आंधी से,
चमन में गुल परीशां, बागबाँ बाहर तड़पता है,
तमाशा है कि छू-छू कर तुम्हारे जिस्मे-नाज़ुक को,
न जाने सोचता है क्या कि हर ज़ेवर तड़पता है.
लरज़ जाता हूँ आवाजों से इसकी,काश तुम देखो,
खुदा जाने ये दिल है या कोई पत्थर तड़पता है।

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शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.

परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.
फ़िज़ा सरगोशियाँ करती रही कल चार सू क्या-क्या.
वो ताक़तवर हैं, नाज़ुक वक़्त है, दुश्मन हवाएं हैं,
उन्हें हक़ है, वो कह जाते हैं सबके रू-ब-रू क्या-क्या.
नशे में हो कोई जब, होश की बातें नहीं करते,
असर मय का है, टूटेंगे अभी जामो-सुबू क्या-क्या.
परीशां कर रहे हैं, रोज़ नाहक हम गरीबों को,
बताएं तो सही आख़िर उन्हें है जुस्तुजू क्या-क्या.
सितम, जोरो-जफ़ा, दहशत, तशद्दुद, साज़िश-आरायी,
खुदा ही जनता है और भी है उनकी खू क्या-क्या.
हम अपने शह्र में रुसवा हुए इसका नहीं शिकवा,
हमें गम है, हमें इस शह्र से थी आरजू क्या-क्या.
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रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.

रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.
कर दिया मुझको मेरे हालात ने ऐसा निढाल.
आजतक किरदार क्या था मेरा, किसको फ़िक्र थी,
कह के मुजरिम क़ैद में रक्खा गया तनहा निढाल.
रोज़ो-शब घटता रहा पानी इसी सूरत अगर,
देखना तुम एक दिन हो जायेगा दरिया निढाल।

आज बच्चों के लिए दाना न यकजा कर सका,

लौटकर अपने नशेमन में परिंदा था निढाल।

एक हँसता-मुस्कुराता घर था जो कल तक, उसे
क्या हुआ, क्यों हो गया सब बांकपन उसका निढाल.
शह्र की ये शोरिशों से पुर फ़िज़ा, ये दहशतें,
लोग आते हैं नज़र कुछ यूँ कि हों गोया निढाल.
वो चमक, वो तेज़-रफ़तारी कहाँ गुम हो गयी,
डूबता सूरज हमें लगता है क्यों ख़स्ता, निढाल.
ज़ह्न थक कर चूर हो जाता है अक्सर शाम तक,
सुब्ह-दम जैसे नज़र आती हो दोशीज़ा निढाल,
आफ़ियत जाफ़र इसी में है, रहो ख़ामोश तुम,
वरना कर देगी तुम्हें ये आजकी दुनिया निढाल.
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शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

सर सैयद अहमद खान [जन्म-दिवस पर विशेष]

सर सैयद [1817-1898] का व्यक्तित्व उनकी अदभुत दूरदर्शिता, विवेक-धर्मिता, संवेदनशीलता और स्वदेश-भक्ति के तानों बानों से निर्मित है. इस व्यक्तित्व के मूल में तत्कालीन मुस्लिम समाज की आर्थिक-विपन्नता, शैक्षिक पिछडेपन और विवेक-शून्य भावुकता के प्रति जहाँ पीड़ा है, वहीं बहु-धर्मी, बहुजातीय एवं बहु-राष्ट्रीय स्वदेश को एकराष्ट्रीय चेतना से जोड़ने और नैराश्य से जूझने के बावजूद, निरंतर जोड़ते रहने की भरपूर ललक है.
बाईस वर्ष की अवस्था में पिता के निधनोपरांत, सर सैयद अहमद खान ने 1839 ई0 में कंपनी सरकार की नायब मुंशी की नोकरी अवश्य कर ली, किंतु हाथ-पर-हाथ धर कर उसी से गुज़ारा करने के लिए नहीं, अपितु मुन्सफी से सम्बंधित दीवानी के कानूनों का पुस्तक के रूप में खुलासा प्रस्तुत करके अपनी विलक्षण प्रतिभा की पहचान बनाते हुए. उन्होंने अपनी इसी प्रतिभा के आधार पर मुन्सफी की प्रतियोगी परीक्षा में उल्लेख्य सफाता प्राप्त की और 1841 ई0 में मैनपुरी में मुंसिफ नियुक्त हुए. स्पष्ट है कि यह नोकरी अंग्रेज़ी सरकार की कृपा का परिणाम नहीं थी. दिल्ली के निवासकाल में 'आसारुस्सनादीद' शीर्षक पुस्तक लिखकर सर सैयद ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया और इस पुस्तक के आधार पर उन्हें रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन का फेलो नियुक्त किया गया. गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई0 में प्रकाशित हुआ. उनकी इसी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें 1889 ई0 में एल-एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया था.
1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आंखों से देखे. घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी मां जान बचाकर एक सप्ताह तक घोडे के अस्तबल में छुपी रहीं. किंतु उन्होंने धैर्य और सहनशीलता से काम लिया, दिल्ली पूरी तरह मुसलामानों के रक्त से लाल हो चुकी थी जिसकी अभिव्यक्ति प्रसिद्ध कवि ग़ालिब ने इन शब्दों में की थी -"चौक जिसको कहें वो मक़तल है / घर बना है नमूना ज़िन्दाँ का./ शहरे-देहली का ज़र्रा-ज़ररए-ख़ाक / तशनाए-खूँ है हर मुसलमाँ का." पंडित नेहरू ने भी 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में इस तथ्य की पुष्टि की है. वे लिखते हैं -"1857 की जनक्रांति को कुचलने के बाद ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों का जान-बूझकर अधिक दमन किया."स्पष्ट है कि महाक्रान्ति की विफलता ने ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में मुसलमानों की साख तो समाप्त कर ही दी थी उन्हें आर्थिक स्तर पर भी पूरी तरह तोड़ दिया था.
धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद खान ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना, जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई० में 'असबाबे-बगावते-हिंद' शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया. सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें. किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है. इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका. क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं.
सर सैयद अहमद खान जानते थे कि पंजाब से लेकर बिहार तक का क्षेत्र आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंग्रेज़ी शिक्षा में बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में बहुत पीछे है. उसे राजनीती से कहीं अधिक शिक्षा की आवश्यकता है. उस शिक्षा कि जो मनुष्य में भावुकता के स्थान पर विवेक को जन्म देती है, संकीर्णता और धर्मान्धता की जगह संतुलित और संवेदनशील जीवनदृष्टि प्रदान करती है और स्वदेशवासियों के प्रति दायित्व के एहसास से आत्मा का परिष्कार करती है. उनहोंने 1864 में इसी उद्देश्य से 'साइंटिफिक सोसाइटी' की स्थापना की और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश को आम पढ़े-लिखे शहरी तक पहुंचाने का प्रयास किया. शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहांतक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की. लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 ई0 में अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' की स्थापना की जो दो वर्षों बाद 1877 में एम.ए.ओ. कालेज के नाम से जाना गया और 1920 में जिसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया.
सर सैयद के 'एम.ए.ओ. कालेज' के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले हुए थे. पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा कि शिक्षा की भी व्यवस्था की गई. स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं0 केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए.सकूल तथा कालेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया. कालेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई. एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था.
उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि उनहोंने कभी अकेले मुसलमानों को संबोधित नहीं किया. उनके भाषणों में हिन्दू मुसलमान बराबर से शरीक होते थे. उनहोंने मुसलमानों कि दशा सुधरने के लिए यदि कुछ किया या करना चाहा तो अपने हिन्दू मित्रों के सुझाव और सहयोग को नज़रंदाज़ नहीं किया. उनहोंने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के पिछडेपन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाई. परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर कालेज के लिए मुसलमानों ने चंदा दिया वहीं हिन्दुओं का सहयोग भी कम नहीं मिला.
सर सैयद अहमद खान संत या महात्मा नहीं थे, किंतु उनकी नियति कबीर की नियति से पर्याप्त मेल खाती थी. इस्लाम की विवेक-सम्मत व्याख्या करने की प्रतिक्रिया यह हुई कि संकीर्ण मुसलमानों ने उन्हें काफिर घोषित कर दिया और मक्के तथा मदीने से उनके विरुद्ध क़त्ल किए जाने के फ़तवे मंगा लिए. सर सैयद ने कांग्रेस का नॅशनल होना स्वीकार नहीं किया. स्वीकार तो सैयद बदरुद्दीन तैयबजी और प्रोफेसर के. सुंदर रमन अय्यर ने भी नहीं किया, किंतु ह्यूम की शह पाकर बंगाली ब्राहमणों ने उन्हें ब्रिटिश भक्त और कट्टर-पंथी तक कह दिया. ऐसा उस समय किया गया जबकि सर सैयद ने तिलक कि भांति गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव के ढर्रे पर मुसलमानों को किसी मुस्लिम समर्थक उत्सव के लिए प्रोत्साहित नहीं किया, चापेकर बंधुओं की तरह कोई व्यायाम मंडल नहीं बनाया जिसमें स्वजातीय सदस्यों को फौजी ड्रिल, लाठी तलवार चलाना और घुड़सवारी सिखाई जाती या सावेरकर की भांति मुस्लिमों के लिए मित्र-मेला नहीं संगठित किया.सर सैयद अहमद खान मुसलमानों और हिन्दुओं के विरोधात्मक स्वर को चुप-चाप सहन करते रहे. इसी सहनशीलता का परिणाम है कि आज सर सैयद अहमद खान को एक युग पुरूष के रूप में याद किया जाता है और हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही उनका आदर करते हैं. 17 अकतूबर 1817 में दिल्ली में जन्मे इस बहुआयामी व्यक्तित्व की जीवनलीला 27 मार्च 1898 को समाप्त ज़रूर हो गई किंतु उसका प्रकाश आज भी करोड़ों भारतवासियों को रोशनी प्रदान कर रहा है.

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दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था. / करम हैदरी

दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
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गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
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कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
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क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
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अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
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मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया./ खुमार बाराह्बंकवी

मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया.
तुम क्यों उदास हो तुम्हें क्या याद आ गया.
कहने को ज़िन्दगी थी बहोत मुख्तसर मगर,
कुछ यूँ बसर हुई कि खुदा याद आ गया.
वाइज़ सलाम लेके चला मैकदे को मैं,
फिर्दौसे-गुमशुदा का पता याद आ गया.
बरसे बगैर ही जो घटा घिर के खुल गई,
एक बेवफा का अहदे-वफ़ा याद आ गया.
मांगेंगे अब दुआ कि उसे भूल जाएँ हम,
लेकिन जो वो बवक़्ते-दुआ याद आ गया.
हैरत है तुमको देख के मस्जिद में ऐ खुमार,
क्या बात हो गई जो खुदा याद आ गया.
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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

कौन कर सकता है टूटे हुए रिश्तों का शुमार।

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यादें आती है तो ये सिलसिला थमता ही नहीं,

ज़हने-इन्सान से मुमकिन नहीं यादों का शुमार।

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ज़िन्दगी मिस्ल किताबों के है पढ़कर देखो,

इस कुतुबखाने में होता नहीं सफ़हों का शुमार।

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तुम गिरफ़्तारे-बला कब हो, तुम्हें क्या मालूम,

किस तरह होता है नाकर्दा गुनाहों का शुमार।

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इह्तिजाजात में पैसों की है ताक़त का नुमूद,

भीड़, बस करती है मासूम गरीबों का शुमार।

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पाँव के आबलों में कूवते-गोयाई नहीं,

किसको है फ़िक्र, करे राह के काँटों का शुमार।

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देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो./ कफ़ील आज़र

देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो.
लोग जल जायेंगे सूरज की तमन्ना न करो.
वक़्त का क्या है किसी पल भी बदल सकता है,
हो सके तुमसे तो तुम मुझ पे भरोसा न करो.
किरचियाँ टूटे हुए अक्स की चुभ जायेंगी,
और कुछ रोज़ अभी आइना देखा न करो.
अजनबी लगने लगे ख़ुद तुम्हें अपना ही वुजूद,
अपने दिन-रात को इतना भी अकेला न करो.
ख्वाब बच्चों के खिलौनों की तरह होते हैं,
ख्वाब देखा न करो, ख्वाब दिखाया न करो.
बेखयाली में कभी उंगलियाँ जल जायेंगी,
राख गुज़रे हुए लम्हों की कुरेदा न करो.
मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे,
धूप के शह्र में 'आज़र' ये तमाशा न करो.
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घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.

घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
दिल में जो ख़लिश थी उसे कब देख रहे थे.
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भीगी हुई आंखों को शिकायत थी हरेक से,
लोग उनमें जुदाई का सबब देख रहे थे.
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चेहरे से नुमायाँ था परीशानी का आलम,
आईने में हम ख़ुद को अजब देख रहे थे.
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मैं ने तो किया ज़िक्र फ़क़त लज़्ज़ते-मय का,
अहबाब मेरा हुस्ने-तलब देख रहे थे.
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हैरान थे हम कैसे हुई दिल की तबाही,
कुछ भी न बचा था वहाँ, जब देख रहे थे.
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