वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।
दिलो-नज़र में कोई ताज़ा हादसा था कहीं।
मैं अपने कमरे में तारीकियाँ भी कर न सका,
कि चाँद बंद दरीचे से झांकता था कहीं।
नज़र मिलाने से कतरा रहा था महफ़िल में,
कि उसके सीने में कुछ दर्द सा छुपा था कहीं।
किताबे-दिल को मैं तरतीब दे नहीं पाया,
वरक़, कि जिसमें था सब कुछ, वो लापता था कहीं।
मैं अपने घर को ही पहचानने से क़ासिर था,
कि मेरी यादों का सरमाया खो चुका था कहीं।
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सोमवार, 13 अक्तूबर 2008
वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।
रविवार, 12 अक्तूबर 2008
आप में गुम हैं मगर सबकी ख़बर रखते हैं./ जमील मलिक
आप में गुम हैं मगर सबकी ख़बर रखते हैं.
बैठकर घर में ज़माने पे नज़र रखते हैं.
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हमसे अब गर्दिशे-दौराँ तुझे क्या लेना है,
एक ही दिल है सो वो जेरो-ज़बर रखते हैं.
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जिसने इन तीरा उजालों का भरम रक्खा है,
अपने सीने में वो नादीदा सहर रखते हैं.
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रहनुमा खो गए मंजिल तो बुलाती है हमें,
पाँव ज़ख्मी हैं तो क्या, जौके-सफर रखते हैं.
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वो अंधेरों के पयम्बर हैं तो क्या गम है 'जमील'
हम वो हैं आंखों में जो शम्सो-क़मर रखते हैं.
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हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूरे-वफ़ा है./ अर्श सिद्दीकी
हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूरे-वफ़ा है.
तू मिस्ले-रगे-जाँ है तो क्यों मुझसे जुदा है.
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गर अहले-नज़र है तो नहीं तुझको ख़बर क्यों,
पहलू में तेरे कोई ज़माने से खड़ा है.
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मैं शहरो-बियाबाँ में तुझे ढूंढ चुका हूँ,
क्या जाने तू किस हुज्लाए-पिन्हाँ में छुपा है.
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हम रखते हैं दावा कि हमें क़ाबू है दिल पर,
तू सामने आजाये तो ये बात जुदा है.
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ग़म है कि मुसलसल उसी शिद्दत से है जारी,
यूँ कहने को इस उम्र का हर लम्हा नया है.
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क्यों जागे हुए शहर में तनहा है हरेक शख्स,
ये रौशनी कैसी है कि साया भी जुदा है.
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महसूस किया है कभी तूने भी वो खंजर,
ग़म बनके जो हर शख्स के सीने में गडा है.
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ठहराए उसे कैसे कोई अर्श जफ़ा-केश,
जो मुझसे अलग रहके भी हमराह चला है.
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है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहाँ./ अल्ताफ़ हुसैन हाली [1837-1914]
है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहाँ।
अब देखिये ठहरती है जाकर नज़र कहाँ।
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यारब इस इख्तिलात का अंजाम हो बखैर,
था उसको हमसे रब्त, मगर इस कदर कहाँ।
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इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नैशे-इश्क,
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख्मे-जिगर कहाँ।
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हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और,
आलम में तुझसे लाख सही, तू मगर कहाँ।
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होती नहीं कुबूल दुआ तरके-इश्क की,
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ।
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'हाली' निशाते-नग्मओ-मय ढूंढते हो अब,
आये हो वक्ते-सुब्ह रहे रात भर कहाँ।
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शनिवार, 11 अक्तूबर 2008
गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.
गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.
कि वो हरेक की नज़रों से बाखबर कुछ था.
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इन आँधियों में कोई ऐसी ख़ास बात न थी,
गिला सा फिर भी गुलों की ज़बान पर कुछ था.
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सुखन-शनास था, अच्छा-बुरा परखता था,
मेरे कलाम का उसपर कहीं असर कुछ था.
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मैं खाली हाथ था, फिर भी वो चाहता था मुझे,
ज़माना समझा मेरे पास मालो-ज़र कुछ था.
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वो चंद लमहों को आया तो डबडबा सी गई,
कहीं तो शिकवा तुझे मेरी चश्मे तर, कुछ था.
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परिंदे आने लगे थे शजर की शाखों पर,
कि इनकी खुशबुओं में सूरते-समर कुछ था.
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ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी.
ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी।
सुनाते शौक़ से मेरे हुनर के क़िस्से सभी।
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किसी से कुछ भी कहो, इसमें हर्ज ही क्या है,
मैं याद रखता हूँ नाहक़ तुम्हारे वादे सभी।
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बलंद उहदों पे हो, जो भी जी में आये, करो,
वहाँ पहोंचके, कहे जाते हैं फ़रिश्ते सभी।
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अब और ठेस न पहोंचाओ ऐसी बातों से,
हमारे सीने के हैं ज़ख्म ताज़े-ताज़े सभी।
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वो कहिये बारिशों ने ये ज़मीन तर कर दी,
क़हत के खौफ से मायूस हो चुके थे सभी।
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दिखा के हौस्लए-ज़ीस्त, उसने रख ली हया,
तुम्हारी नज़रों में शायद गिरे-पड़े थे सभी।
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मेरे ही शेर वो क्यों बार-बार पढता है,
मुझे तो याद नहीं है कि हम मिले थे कभी।
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लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले / इब्राहीम ज़ौक़ [पुरानी शराब]
लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले।
अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले।
हो उमरे- खिज्र भी तो कहेंगे बवक़्ते-मर्ग,
हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।
दुनिया ने किसका राहे-फना में दिया है साथ,
तुम भी चले चलो युंही, जबतक चली चले।
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार,
जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले।
जाते हवाए-शौक़ में हैं इस चमन से 'जोक,'
अपनी बला से बादे-सबा जब कभी चले।
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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008
नावक अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे / मोमिन खां मोमिन [पुरानी शराब]
परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.
परिंदे भी हमारी गुफ्तगू अक्सर समझते थे.
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वो फ़नकारा थी, बांसों पर तनी रस्सी पे चलती थी,
तमाशाई थे हम और उसको पेशा-वर समझते थे.
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शजर को आँधियों की साजिशों का इल्म था शायद,
कि पत्ते तक हवाओं के सभी तेवर समझते थे.
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हकीकत में हमारे जैसा इक इन्सान था वो भी,
मगर अखलाक था ऐसा कि जादूगर समझते थे.
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वो सहरा शह्र की नब्जों में अक्सर साँस लेता था,
हमीं नादाँ थे उसको शह्र के बाहर समझते थे.
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छतें, आँगन दरो-दीवार सब थे खंदा-ज़न हम पर,
हमें हैरत है, हम क्यों उसको अपना घर समझते थे.
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