गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ.
शऊरे-दर्द से पुर काविशों को देखता हूँ.
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तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
हया से दुबकी हुई, दहशतों को देखता हूँ.
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उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
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दिलों को बाँट दिए और ख़ुद रहीं खामोश,
तअल्लुकात की उन सरहदों को देखता हूँ.
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मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
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न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.
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जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आंख से उन ताक़तों को देखता हूँ।
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मैं बदहवास फ़िज़ाओं की सुर्ख आंखों में,
हुए नहीं हैं जो, उन हादसों को देखता हूँ।
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सुनो! मैं थक गया हूँ / रेहान अहमद

सुनो! मैं थक गया हूँ
मेरी पलकों पे अबतक कुछ अधूरे ख्वाब जलते हैं
मेरी नींदों में तेरे वस्ल के रेशम उलझते हैं,
मेरे आंसू मेरे चेहरे पे तेरे ग़म को लिखते हैं,
मेरे अन्दर कई सदियों के सन्नाटों का डेरा है,
मेरे अल्फाज़ बाहें वा किए मुझको बुलाते हैं,
मगर मैं थक गया हूँ
और मैंने
खामुशी की गोद में सर रख दिया है।

मैं बालों में तुम्हारे
हिज्र की नर्म उंगलियाँ महसूस करता हूँ।
मेरी पलकों पे जलते ख्वाब हैं अब राख की सूरत,
तुम्हारे वस्ल का रेशम भी अब नींदें नहीं बुनता,
मेरी आंखों में जैसे सर्द मौसम का बसेरा है,
मुझे अन्दर के सन्नाटों में गहरी नींद आई है।
सुनो! इस याद से कह दो
मुझे कुछ देर सोने दे।
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हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है

हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है।
भटकता देख कर हमको यही दुनिया समझती है।
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अक़ीदा क्या है, बस इक फ़ैसला है अक़्ले-इन्सां का,
हमारी अक़्ल दिल को खानए-काबा समझती है।
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पहोंचना चाहती है हर कसो-नाकस के हाथों तक,
नदी, पानी से हर इनसान का रिश्ता समझती है।
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मिज़ाजन वो भी मेरी तर्ह हँसता-मुस्कुराता है,
नज़र उश्शाक की उसको न जाने क्या समझती है।
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वो पड़ जाए अगर आंखों में होगा दर्द शिद्दत का,
उसे दुनिया फ़क़त अदना सा इक तिनका समझती है।
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ख़याल उसका है वो हमसे कोई परदा नहीं रखता,
तबीअत उसका हर इज़हारे-पेचीदा समझती है।
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ग़म की बारिश ने भी / मुनीर नियाज़ी

ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं।
तू ने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं।
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नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था,
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं।
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हर तरफ़ दीवारोदर और उनमें आंखों का हुजूम,
कह सके जो दिल की हालात वो लबे-गोया नहीं।
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जुर्म आदम ने किया, और नसले-आदम को सज़ा,
काटता हूँ ज़िन्दगी भर मैंने जो बोया नहीं।
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जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी मुनीर,
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं।
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बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

दरीचों की सदा सुनकर भी

दरीचों की सदा सुनकर भी रातें कुछ नहीं कहतीं।
मकाँ खामोश रहता है, फ़सीलें कुछ नहीं कहतीं।

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ज़बां से हादसों का ज़िक्र अब कोई नहीं करता,
मैं कैसे मान लूँ शीशों की किरचें कुछ नहीं कहतीं।

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खमोशी से ये भर जाती हैं आकर अश्क आंखों में,
फ़क़त सन्नाटा कुछ कहता है, यादें कुछ नहीं कहतीं।

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उभरने लगती हैं एक-एक करके कितनी तस्वीरें,
जगा देती हैं ज़हनों को, मिसालें कुछ नहीं कहतीं।

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मैं अक्सर देखता हूँ अधखुली आंखों को सुब्हों की,
शबों में इनपे क्या गुजरी है, सुबहें कुछ नहीं कहतीं।

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ये इन्सां है जो ऐसे हादसों से टूट जाता है,
जो पड़ जाती हैं रिश्तों में वो गिरहें कुछ नहीं कहतीं.
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अंधेरे घोल जाती हैं ये चुपके से फिजाओं में,
किसी के रु-ब-रु मजरूह शामें कुछ नहीं कहतीं.
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मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

ग़ज़ल का आकर्षण और ब्लॉग जगत


ग़ज़ल काव्य की अनेक विधाओं में से एक ऐसी विधा है जो समयानुरूप अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता बनाए रखने की कला से अच्छी तरह परिचित है. यह अपने युग की गतिशील नब्ज़ की हर धड़कन को समझती है, उसके आतंरिक जगत में सहज रूप से प्रवेश करना जानती है और वहाँ के अनकहे उपलब्ध यथार्थ की पुनर्रचना करने में सक्षम है. ग़ज़ल केवल तकनीकी शिल्प का नाम नहीं है जिसे 'मतले', मक़ते,'काफिये', 'रदीफ़' और औज़ान' के फीतों से नाप कर संतोष किया जा सके. यह उसकी बुनियादी ज़रूरतें अवश्य हैं जो उसके बाह्य रूप-लावण्य को आकर्षक और कर्ण-मधुर बनाती हैं, किंतु उसका लक्ष्य और उसकी मंजिल इससे बहुत आगे है.
ब्लॉग जगत में ग़ज़ल के प्रति आकर्षण की स्थिति यह है कि हर चौथे-पांचवें ब्लॉग पर या तो ग़ज़ल प्रत्यक्ष विराजमान है, या अभिव्यक्त गद्य में यहाँ-वहाँ से झांकती दिखाई देती है. कुछ लोगों ने तो ग़ज़ल प्रशिक्षण के स्कूल तक खोल रक्खे हैं. गोया इन स्कूलों से ढलकर जो ग़ज़ल निकलेगी, इन्तहाई शानदार, आकर्षक, अर्थपूर्ण और प्रभावक होगी. मेरा उद्देश्य इन प्रयासों को हतोत्साहित करना नहीं है. न ही इन पंक्तियों के माध्यम से यह साबित करना है कि मैं स्वयं एक बहुत बड़ा गज़लकार हूँ. किसी की पूरी-की-पूरी गज़ल तो कामयाबी का शिखर यदा-कदा ही छू पाती है. ग़ज़ल के कम-से-कम निर्धारित पाँच शेरों में से अगर दो शेर भी स्तरीय और प्रभावक हों तो पूरी ग़ज़ल जीवंत हो उठती है.
ग़ज़ल में शब्दों के महत्त्व को समझना और मूल्यांकित करना बहुत ज़रूरी होता है. शब्द केवल शब्दकोशों में पालथी मारकर बैठे हुए कुछ अक्षरों का समूह नहीं होते. उनमें एक रचनात्मक गतिशीलता भी होती है. उन्हें विज्ञान की उस भाषा से परहेज़ है जहाँ 'साल्ट' का अर्थ हर जगह 'साल्ट' ही होता है. उन्हें 'नमक' शब्द की रचनात्मक क्षमता का एहसास भी है और उसके अर्थ-विस्तार की संभावनाओं की समझ भी है. शब्द की यही रचनात्मक क्षमता हमारी सांस्कृतिक और तहजीबी सोच का धरोहर है. फलस्वरूप शब्द हमारी सोच को हमारी युगीन सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों से एकस्वर करके अपनी आतंरिक ऊर्जा के सहयोग से नए आयाम और नई दिशाएँ देते हैं और रचनाकार को भी कभी-कभी मुग्ध होने के लिए विवश कर देते है. भाषा विज्ञान की शब्दावली में इसे 'रिप्रेजेंटेशन' नुमाइंदगी या प्रतिनिधित्व कहते हैं. यह रिप्रेजेंटेशन हमारे उस अनकहे आतंरिक जगत का है जिसे महसूस तो सब करते हैं किंतु उसका साक्षात्कार नहीं कर पाते. शब्दों की दूसरी क्षमता होती है उनकी ऐप्रोप्रियेसी, मुनासबत, मौजूनियत या उपयुक्तता अथवा औचित्य. यह रिप्रेजेंटेशन या नुमाइंदगी की पूरक कड़ी है. गज़लकार को इसके महत्त्व को बारीकी से समझना चाहिए. कभी-कभी एक गैर-मुनासिब शब्द शेर की पूरी तस्वीर चौपट कर देता है. गज़लकार के लिए अनुभव के यह ऐसे बिन्दु हैं जो उसे अपनी रचना पर थोडी मेहनत करने का तकाजा करते हैं. काफिया, रदीफ़ औज़ान वगैरह का तकनीकी ज्ञान एक सफल तुकबंदी तो करा सकता है, एक सफल ग़ज़ल का एहसास नहीं पैदा कर सकता.
गज़लकार के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि किसी चीज़ का लुभावना होना उसका श्रेष्ठ होना नहीं है. मुशायरों में वाह-वाह से पूरा माहौल गूँज उठता है. लेकिन यह वाह-वाह केवल सामयिक होती है. साहित्यिक ग़ज़ल और मुशायरे की ग़ज़ल एक तराजू पर नहीं तुलती. मुशायरों के शायर वक्त के मलबों में कहीं विलुप्त हो जाते हैं. उनमें केवल वही ठहर पाते हैं. जो लफ्जों की गहराई और उनके अर्थ-विस्तार तथा मुनासबत और युगीन एकस्वरता के आयामों की समझ रखते है. आज प्रथम पंक्ति के ग़ज़लगो शायरों में नासिर काज़मी, अहमद मुश्ताक, शहरयार, मुनीर नियाजी वगैरह क्यों हैं, इसपर विचार करने की ज़रूरत है.
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कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में / अहमद मुश्ताक़

कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में रहती है।
कि थरथरी सी अजब जिस्मो-जाँ में रहती है।
मज़ा तो ये है कि वो ख़ुद तो है नये घर में,
और उसकी याद पुराने मकाँ में रहती है।
अगरचे उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी है बहोत,
झिजक सी एक मगर दर्मियाँ में रहती है।
पता तो फ़स्ले-गुलो-लाला का नहीं मालूम,
सुना है कुर्बे-दयारे-खिज़ाँ में रहती है।
मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआए-यकीं,
कहीं नवाहे-दिले - बद-गुमाँ में रहती है।
हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी,
कमी सी कुछ मेरे तर्जे-बयाँ में रहती है।
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सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

गुले-ताज़ा समझकर तितलियाँ

गुले-ताज़ा समझकर तितलियाँ बेचैन करती हैं.
उसे ख़्वाबों में उसकी खूबियाँ बेचैन करती हैं.
कोई भी आँख हो आंसू छलक जाते हैं पलकों पर,
किसी की आहें जब बनकर धुवां बेचैन करती हैं.
सुकूँ घर से निकलकर भी मयस्सर कब हुआ मुझको,
कहीं शिकवे, कहीं मायूसियां बेचैन करती हैं.
दिलों में अब सितम का आसमानों के नहीं खदशा,
ज़मीनों की चमकती बिजलियाँ बेचैन करती हैं.
ख़बर ये है उसे भी रात को नींदें नहीं आतीं,
सुना हैं उसको भी तन्हाइयां बेचैन करती हैं.
नहीं करती कभी कम चाँदनी गुस्ताखियाँ अपनी,
मेरी रातों को उसकी शोखियाँ बेचैन करती हैं.
सभी दीवानगी में दौड़ते हैं हुस्न के पीछे,
सभी को हुस्न की रानाइयां बेचैन करती है.
मैं साहिल से समंदर का नज़ारा देख कब पाया,
मुझे मौजों से उलझी कश्तियाँ बेचैन करती हैं.
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दूर तक छाये थे बादल / क़तील शफ़ाई

दूर तक छाये थे बादल, पर कहीं साया न था.
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था.
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर,
ऐ दिले-नादाँ, तुझे क्या हमने समझाया न था.
उफ़ ये सन्नाटा की आहट तक न हो जिसमें मुखिल,
ज़िन्दगी में इस कदर जमने सुकूँ पाया न था.
खूब रोये छुपके घर की चारदीवारी में हम,
हाले-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था.
हो गए कल्लाश जबसे आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था.
सिर्फ़ खुशबू की कमी थी गौर के क़ाबिल 'क़तील',
वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था.
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रविवार, 5 अक्तूबर 2008

फ़स्ल खेतों में जलाकर

फ़स्ल खेतों में जलाकर, खुश हुए दुश्मन बहोत।
हादसा दिल पर वो गुज़रा, बढ़ गई उलझन बहोत।
रास आएगी तुझे हरगिज़ न ये आवारगी,
ज़िन्दगी ! तेरे लिए हैं तेरे घर-आँगन बहोत।
मेरे मज़हब के अलावा सारे मज़हब हैं ग़लत,
सोचते हैं आज इस सूरत से मर्दों-ज़न बहोत।
बर्क किस-किस पर गिराओगे, मैं तनहा तो नहीं,
हक़ पसंदों के हैं मेरे मुल्क में खिरमन बहोत।
खून की रंगत किसी तफ़रीक़ की क़ायल नहीं,
आदमी है एक, हाँ उसके हैं पैराहन बहोत।
आम के बागों में कजली की धुनें, झूलों की पेंग,
याद आता है मुझे क्यों गाँव का सावन बहोत।
मुफलिसी के बाद भी इज्ज़त पे आंच आई नहीं,
शुक्र है हर हाल में सिमटा रहा दामन बहोत।
वैसे तो परदेस में भी मैं बहोत खुश हाल था,
जब भी घर लौटा हुआ महसूस अपनापन बहोत।
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