रविवार, 3 अगस्त 2008

खलीलुर्रहमान आज़मी की याद में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

प्रारंभिक शब्द
खलीलुर्रहमान आज़मी उर्दू के प्रतिष्ठित कवि और उच्च श्रेणी के आलोचक थे और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में अन्तिम साँस तक रीडर के पद पर रहे. विभागीय राजनीति के चलते उनके प्रोफेसर होने के मार्ग में हर सम्भव रुकावटें डाली गयीं. राजनीति की इस गन्दगी का दुःख खलील साहब झेल नहीं पाये. उनकी तुलना में जो सज्जन शोर मचा रहे थे उनकी योज्ञता खलील साहब का पासंग भी नहीं थी. 1964 में ऐसा ही हंगामा राही मासूम रज़ा के विरुद्ध किया गया था और उसमें भी यही सज्जन पेश-पेश थे. खलील साहब को उनके निधनोपरांत प्रोफेसर बनाया गया. इस नज़्म में इन्हीं तथ्यों का संकेत है. [ ज़ैदी जाफ़र रज़ा ]

मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है, ये सब जानते हैं
ज़ीस्त से ज़ात की वाबस्तगिए-बेमानी
हसरतो-ख्वाहिशो-लज्ज़त की तरंग
नफ़्से-इंसान में भर देती है
और इंसान समझता है कि वो जिंदा है.

जिंदगी नफ़्स-परस्ती तो नहीं
ज़ीस्त ऊपर से बरसती तो नहीं
ज़ात है तशनए-मानीए-वुजूद
ज़ात को चुन के बशर
जी तो सकता है, मगर
सिर्फ़ तारीक फ़िज़ाओं में भटकने के लिए.

वो जो कल उठ गया इस दुनिया से
यानी हम सब का खलील
मौत को उसने चुना
ज़ात को तरजीह न दी
बात ये है कि वो था
वाक़िफ़े-सिर्रे-जमील
मौत से पहले जो मर जाता है,
हर मुसीबत से ब-आसानी गुज़र जाता है
ज़िन्दगी उसकी थी इस क़ौल की रौशन तमसील.

उसकी पेशानी पे उभरी न कभी कोई लकीर
उसके होंटों ने बनाए न कभी ज़ाविए टेढे-सीधे
उसकी आंखों में न झलका कोई लायानी सवाल
वो सरापा था तबस्सुम की मिसाल.
मौत थी उसके लिए शोख़ सहेली की तरह
कमनज़र बूझ न पाये उसको
एक पुरपेच पहेली की तरह.
मक़्सदे-ज़ीस्त पे थी उसकी निगाह
इल्मो-हिकमत का वो दरिया था अथाह
हम उसे प्यार से मौलाना कहा करते थे
उसके जीने की दुआ करते थे
लोग कहते हैं कि बीमार था वो
जी नहीं, सिर्फ़ सदाक़त का तलबगार था वो
खोले-इंसान में पोशीदा दरिंदों के लिए
मिस्ले तलवार था वो.
पाँव से रौंद के औराक़े-सियासत उसने
हक़्क़ो-इन्साफ़ को दी थी आवाज़
मस्नादो-कुर्सियो-मंसब की उसे भूक न थी
इन्तेहा दर्जे का ख़ुददार था वो
जुम्बिशे-नोके-क़लम से उसने
उहदे तिफली में की 'आतिश' पे करम की बारिश
उसकी तहरीर ने अश'आर को मानी बख्शे
उसकी तखलीक में था सोजो-गुदाज़
उस से तनकीद ने पाया एजाज़
हंसके वो झेल गया जुल्मो-सितम की बारिश.
मानने के लिए मजबूर थे सब उसका वुजूद
चश्मे-बातिल में खटकता था वो कांटे की तरह
सोग में उसके फ़िज़ा करती है गम की बारिश

हक तो ये है कि वो दुनियाए-अदब का था इमाम
सर-ब-सजदा था अदब उसकी इता'अत के लिए
उसको मालूम था आदाबे-इमामत क्या है.
इक इदारा था वो अरबाबे-बसीरत के लिए

मौत की उसके ख़बर मैं ने सुनी, सबने सुनी,
लोग दौडे उसे कांधा देने
रस्मे-दुनिया है यही
वो था खामोश मगर सारी फ़िज़ा कहती थी
जिस्म को छू के हवा कहती थी
दर्स्गाहों के ज़मींदारों से जाकर पूछो
उनकी फिहरिस्त में हैं और अभी कितने नाम ?
और किस-किस को पिलायेंगे शहादत का ये जाम ?
क्या लगायेंगे किसी रोज़ सियासत को लगाम ?
या इसी तौर चलेगा हर काम ?

मैं ने ताबूत को कांधा जो दिया
घुल गई जिस्म में मेरे भी क़ज़ा
मुझको महसूस हुआ
मैं भी ताबूत के इक गोशे में लेटा हूँ कहीं
लोग मुझको भी सुला देंगे इसी सूरत से
मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है ये सब जानते हैं
**********************

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः 3 ]

[ 15 ]
तुम्हरी कृपा गोपाल गुसाईं, हौं अपने अज्ञान न जानत.
उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरन उलूक न मानत..
सब सुख निधि हरिनाम महा-मनि सो पाएहुं नाहीं पहिचानत..
परम कुबुद्धि, तुच्छ, रस-लोभी, कौडी लगि मग की रज छानत..
सिव कौ धन, संतनि कौ सरबस, महिमा बेद पुरान बखानत..
इते मान यह 'सूर' महा सठ, हरि नग बदलि बिषय बिष आनत..


ज़ुल्मते-जिहालत में, पड़ गया हूँ मैं ऐसा.
आपकी नवाज़िश भी, जानता नहीं आक़ा.
ऐब अपनी आंखों का, देखतीं नहीं आँखें,
उल्लुओं ने कब माना, आफ़ताब का जलवा.
पा के क़ीमती हीरा, नामे-रब की दौलत का,
है ये मेरी कमज़र्फी, खुश नहीं मैं हो पाया.
हिरसे-लज़्ज़ते-दुनिया, मेरी बेवकूफ़ी थी,
ख़ाक रास्तों की मैं, यूँ न छानता फिरता.
शिव की तुम ही दौलत हो, कायनात संतों की,
वेद में, पुरानों में, अज़मातों का है चर्चा.
'सूर' की है नादानी, श्याम के नगीने को,
देके, उसके बदले में, ज़हरे-ग़म उठा लाया.
[ 16 ]
अब कैसें पैयत सुख मांगे.
जैसोई बोइयै तैसोई लुनिऐ, करमन भोग अभागे..
तीरथ ब्रत कछुवै नहिं कीन्हीं, दान दियौ नहिं जागे..
पछिले कर्म सम्हारत नाहीं, करत नहीं कछु आगे..
बोवत बबुर, दाख फल चाहत, जोवत है फल लागे..
'सूरदास' तुम राम न भजि कै, फिरत काल संग लागे..


मांगे से अब मिलेगी तुझे किस तरह खुशी.
आमाल का नतीजा है इन्सां की जिंदगी..
बोया है तूने जैसा भी काटेगा तू वही
रोज़ा, जियारत और सखावत न की कभी
करना न चाहा तूने कोई काम मज़हबी.
माज़ी में जो भी फ़ेल किए उसका ग़म नहीं
और आखिरत की फ़िक्र भी तुझ को बहम नहीं.
बोटा है तू बबूल, मुनक्का है चाहता.
करता है इन्तेज़ार कि फल का मिले मज़ा
कहते हैं 'सूर' छोड़ के तू राम का भजन
फिरता है अपनी मौत लिए साथ हर घड़ी.
[ 17 ]
मोसौं बात सकुच तजि कहिये.
कट ब्रीड़त कोऊ और बतावौ, ताहीके ह्वै रहिये..
कैधौं तुम पावन प्रभु नाहीं, कै कछु मो मैं झोली.
तौ हौं अपनी फेरि सुधारौं, बचन एक जौ बोलौ..
तीनों पन में ओर निबाहे, इहै स्वांग कौं काछे..
'सूरदास' कौं यहै बडौ दुःख, परत सबनि के पाछे..


तकल्लुफ तर्क कर के मुझ से कह दो साफ़ लफ्ज़ों में.
खुदाया मुझको भटकाओ न इस सूरत से राहों में.
अगर है और कोई क़ादिरे-मुतलक़ तो बतला दो.
उसी का हो रहूँगा, मुझ को अब नाहक़ न धोका दो.
कहीं कुछ नुक्स है या तो तुम्हारी शाने-रहमत में.
या फिर कोई कमी है मेरे अंदाजे-मुहब्बत में..
फ़क़त इक बार कह दो, हैं अगर कोताहियाँ मुझ में.
सुधारूँगा मैं ख़ुद को, हैं अभी ये खूबियाँ मुझ में..
गुज़ारी मैं ने सारी उम्र उल्फत को निभाने में.
तुम्हारा हूँ, ये दम भरता रहा हर दम ज़माने में..
मुझे है 'सूर' गम इस बात का ,मैं रह गया पीछे..
जो थे अग्यार, उन सब पर करम तुमने किया पहले..
[ 18 ]
सो कहा जू मैं न कियौ सोई चित्त धरिहौ.
पतित-पावन-बिरद सांच कौन भांति करिहौ..
जब मैं जग जनम लियौ, जीव नाम पायौ.
तब तीन छुटि औगुन इक नाम न कहि आयौ..
साधु-निंदक, स्वाद-लम्पट, कपटी, गुरु-द्रोही,
जेते अपराध जगत, लागत सब मोही..
गृह-गृह, प्रति द्वार फिरयौ, तुमकौ प्रभु छांडे ..
अंध अवध टेकि चलै, क्यों न पडै गाडे..
सुकृति-सूचि-सेवकजन, काहि न जिय भावै.
प्रभु की प्रभुता यहै, जु दीन सरन पावै..
कमल-नैन, करुनामय, सकल-अंतरजामी..
बिनय कहा करै 'सूर', कूर, कुटिल, कामी..


कौन सी ऐसी बुराई है जो मैं ने की नहीं
इस ज़माने में तो मुझ जैसा कोई पापी नहीं
मेरी बाद-आमालियों को दिल में रक्खोगे अगर.
फिर करीमी की सदाक़त कैसे होगी मोतबर..
जबसे मैं पैदा हुआ ज़ीरूह कहलाने लगा
ले न पाया, छोड़कर बदकारियाँ, नामे-खुदा..
नेक बन्दों की बुराई कर के खुश होता रहा..
लाज्ज़ते-दुनिया की खातिर, सिर्फ़ आवारा फिरा..
दिल से चाहा कुछ, जुबां से कुछ, ये थी आदत मेरी..
मुर्शिदों से दुश्मनी रखना ही थी फितरत मेरी..
सारी दुनिया के जराइम से बनी खसलत मेरी..
छोड़कर तुमको, फिरा मैं छानता दर-दर की ख़ाक..
अंधे का रहबर हो अंधा, होंगे फिर दोनों हलाक..
बंदगाने-खुश-अमल, अच्छे किसे लगते नहीं..
है कमाले-कुदरते-खालिक इसी से बिल-यकीं..
रखने दे नाचीज़ को भी अपनी चौखट पर जबीं..
दिल की बातें जनता है, तू है रहमानो-बसीर..
अर्ज़ तुझसे क्या करे, है 'सूर' ज़ुल्मत का असीर..
[ 19 ]
अब मेरी राखौ लाज मुरारी..
संकट मैं इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी..
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी..
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ फिर झारी..
नाचन कूदन मृगनी लागी, चरन कमल पर वारी..
'सूर' स्याम प्रभु अविगत लीला, आपुहिं आप संवारी..


रख लीजिये अब आप भरम इल्तेफात का ..
कुछ कम न था मसाइबे-दुनिया का सिलसिला ..
मुश्किल नई है आन पडी, वा मुसीबता..
वहशी शिकारियों से घिरा है मेरा हिरन
सौगंद उसकी है तुम्हें या रब्बे-ज़ुल्मनन
कुछ और जानती नहीं बस तुम हो ध्यान में..
आई हूँ आका सिर्फ़ तुम्हारी अमान में..
मुश्किलकुशा के फैज़ से उलटी हवा चली ..
ऐसा हुआ कि फैल गई बन में खलबली..
जंगल तवह्हुमात का इक पल में जल गया..
सगहाए-हिर्स भागे, बुरा वक़्त ताल गया..
हिरनी खुशी से होके मगन नाचने लगी..
चरनों में आई श्याम के, आसूदगी मिली..
वाकिफ नहीं है 'सूर' कोई मोजजात से..
आका करिश्मे करते हैं ख़ुद अपनी ज़ात से..
[ 20 ]
जग मैं जीवत ही को नातौ.
मन बिछुरे तन छार होइगौ, कोऊ न बात पुछातौ..
मैं मेरी कबहूँ नहिं कीजै, कीजै पंच सुहातौ..
बिषयासक्त रहत निसि बासर, सुख सियरौ, दुःख तातौ..
सांच झूठ करि माया जोरी, आपुन रूखौ खातौ..
'सूरदास' कछु थिर न रहैगो, जो आयो सो जातौ..


रिश्ते जहाँ में सारे इसी जिंदगी के हैं.
जब रूह होगी तन से जुदा, जिस्म होगा ख़ाक
पूछेगा खैरियत न कोई फिर, बी-इन्हेमाक .
मैं और मेरी का, न कभी ज़िक्र कीजिये.
पंचों को हो पसंद जो वो फ़िक्र कीजिये..
दुनिया की लिपटी-चुप्टी में रहते हैं रोजो-शब..
दुःख में फ़सुर्दा, सुख में मगन हैं यहाँ पे सब
सच को बदल के झूठ में जोड़ी है मिलकियत.
ख़ुद रूख सूखा खा के मरोड़ी है मिलकियत.
कायम रहेगी 'सूर' न कोई भी शय यहाँ.
आया है जो भी जायेगा वो, छोड़ कर जहाँ..
[ 21 ]
सबै दिन एकै से नहिं जात.
सुमिरन ध्यान कियो करि हरि कौ, जब लगि तन कुसलात..
कबहूँ कमला चपला पाके, टेढौ टेढौ जात..
कबहुँक मग-मग धूरि टटोरत, भोजन को बिलखात..
या देही के गरब बावरो, तदपि फिरत इतरात..
बाद बिबाद सबै दिन बीते, खेलत ही अरु खात..
हौं बड़ हौं बड़, बहुत कहावत, सूधे कहत न बात..
योग न युक्ति, ध्यान नहिं पूजा, बृद्ध भये अकुलात..
बालपन खेलत ही खोये, तरुनापन अलसात.
'सूरदास' अवसर के बीते, रहिहौ पुनि पछतात..


नहीं होते सभी दिन एक जैसे.
हरी का ज़िक्र कर जबतक बदन में जान बाक़ी है.
कभी दौलत को पाकर आदमी इतरा के चलता है..
कभी राहों की खाको-गर्द को है छानता फिरता..
बिलखता भूक से है, पर तरस जाता है खाने को.
तुझे है नाज़ फिर भी जिसमे-फ़ानी पर ऐ दीवाने.
गुज़र जाते हैं तेरे दिन बहस में, खेलते खाते.
अना में गर्क है, सीधी तरह से बातें नहीं करता..
न कोई जोग, नै करतब, न कोई ध्यान नै पूजा..
बुढापा आ गया टो दिल में क्यों बेचैन होता है.
लड़कपन खेल कर खोया, जवानी बे-अमल काटी..
निकल जाने पे मौक़ा 'सूर' रह जायेगा अपने हाथ मल के॥
*************************क्रमशः

सूफी तत्त्व-चिंतन और कबीर / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

कबीर की रचनाओं में सूफी चिंतन की झलक का संकेत अनेक विद्वानों ने किया है. रवेरेंड जी. एच. वेस्टकाट ने अनेक तर्कों के आधार पर कबीर का सूफी होना ही घोषित नहीं किया, उनके परंपरागत मुसलमान होने के पक्ष में भी अनेक प्रमाण दिए हैं ( कबीर ऐंड द कबीर पंथ, [कानपुर,1974], पृ0 29-32). डॉ. तारा चन्द ने कबीर की आस्था में शीआ मुस्लिम आस्था और उनके चिंतन में गहरे सूफी प्रभाव की चर्चा की है.(इन्फ्लुएंस आफ इस्लाम आन इंडियन कल्चर, पृ0 152-53).श्री वी. राघवन के निकट कबीर की आध्यातमिकता गहरे सूफी प्रभाव को व्यक्त करती है. (सोर्सेज़ आफ इंडियन ट्रेडिशन, न्यूयार्क 1958, पृ0 360). अली सरदार जाफरी (कबीर बानी, पृ0 9-10) और डॉ. गोपीचंद नारंग (कबीर की छे सौवीं जयंती पर साहित्य अकादमी की संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख) के विचार भी उक्त विद्वानों से भिन्न नहीं हैं. डॉ. विष्णुकांत शास्त्री और डॉ. वासुदेव सिंह ने कबीर पर सूफी मत के प्रभाव का खंडन करते हुए अनेक बचकाने तर्क दिए हैं जिनसे उनके अध्ययन की सीमित परिधियों का संकेत मिलता है.
कबीर के मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) होने का तथ्य जहाँ संदेह और विवाद के घेरे से बाहर है, वहीं यह भी जानना ज़रूरी है कि जलालुद्दीन रूमी, फरीदुद्दीन अत्तार, बायजीद बिस्तामी, महमूद शाबिस्तरी,अबू सईद अबिल्खैर, जुनैद, मंसूर हल्लाज, मसऊद बक इत्यादि अनेक सूफी चिन्तक और कवि मुवह्हिद (एकत्त्ववादी) थे. दरवेशों की आस्थाएं और चिंतन पद्धतियाँ भी परंपरागत शरीअत-सम्मत इस्लाम के अनुकूल नहीं थीं. मुस्लिम शरीअताचार्यों ने अपने प्रभाव और दबाव से भले ही सूफियों और दरवेशों को तरह-तरह की यातनाएं दिलवाई हों, और मंसूर हल्लाज, शिहाबुद्दीन सुहर्वर्दी एवं सरमद को भले ही प्राणों से हाथ धोना पड़ा हो, किंतु 'बे-खतर कूद पड़ा आतिशे-नमरूद में इश्क़' की परम्परा निरंतर जारी रहीऔर इनमें से किसी के मुस्लिम सूफी अथवा दरवेश होने पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया गया.
कबीर के समय तक एकत्त्ववाद (वह्दतुल्वुजूद) का दर्शन सूफियों के मध्य पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था. चिश्तिया सम्प्रदाय के अधिकतर सूफी इसी सिद्धांत में आस्था रखते थे. कबीर पर यद्यपि सहजिया सम्प्रदाय की गुह्य साधना का भी प्रभाव था, फिर भी एकत्त्ववाद में उनकी गहरी आस्था थी. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को द्वैताद्वैत-विलक्षण-समतत्ववाद का समर्थक माना है. (कबीर, पृ0 46). वह्दतुल वुजूद का दर्शन इससे बहुत भिन्न होते हुए भी इसके बहुत निकट है. इस लिए कबीर सम्बन्धी डॉ. द्विवेदी की यह अवधारण सर्वथा निराधार नहीं कही जा सकती. किंतु द्वैताद्वैत विलक्षण समतत्ववाद के दर्शन से कबीर का कितना परिचय था यह बता पाना पर्याप्त कठिन है. इस दर्शन से उनके विचारों का मेल वह्दतुल्वुजूद के दर्शन के प्रति उनकी आस्था का परिणाम प्रतीत होता है.
इब्ने-अरबी (1165-1240) ने वह्दतुल्वुजूद के दर्शन को उस पूर्वकालिक आस्था के आधार पर विकसित किया था जो परम सत्ता के मूलभूत एकत्व पर विशवास रखती थी और उस से इतर किसी भी सत्ता को अमान्य ठहराती थी. इब्ने अरबी के मतानुसार एकान्तिक सत्ता एकान्तिक जगत से अभिन्न है और समस्त विद्यमान जगत का मूल स्रोत है. वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिए ग्राह्य नहीं है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं जानता. वह अपने एकत्त्व से ही आच्छादित है. उसकी सत्ता ही उसका आवरण है. उसे उसके अतिरिक्त कोई नहीं देख सकता, चाहे वह देखने वाला नबी, वली या फ़रिश्ता ही क्यों न हो (डी.एम्. मथेसन, ऐन इंट्रोडकशन टू सूफी डाक्टराइन [लाहौर,1963], पृ0 23-24). इब्ने अरबी की दृष्टि में अल्लाह वुजूदे-मुतलक़ (एकान्तिक सत्ता) है जिसने स्वयं को समस्त विद्यमान रूपों में व्यक्त किया है. उसकी उच्चतम अभिव्यक्ति पूर्ण मानव (इन्साने-कामिल) अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम या सिद्ध पुरूष है.
यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि जीली ने पूर्ण मानव को परम सत्ता की प्रतिमूर्ति बताया है. उसकी दृष्टि में पूर्ण मानव एक ऐसा दर्पण है जिसमें परम सत्ता के समग्र गुण झलकते हैं. वह परमात्मा और जीवों के बीच की कड़ी है. (आउटलाइन आफ इस्लामिक कल्चर पृ0 406). जीली का यह भी मानना है कि सभी मनुष्यों में पूर्णता की यह शक्ति थोडी-बहुत पायी जाती है. किंतु वास्तव में पूर्ण मानव कोई बिरला होता है. पूर्णता का स्तर प्रत्येक व्यक्ति द्बारा दैवी आलोक ग्रहण करने की सामर्थ्य पर निर्भर करता है (आर.ए. निकाल्सन, स्टडीज़ इन इस्लामिक मिस्टिसिज्म, पृ0 80)
इब्ने अरबी की दृष्टि में आध्यात्मिक संयोग अथवा सम्मिलन परम सत्ता के साथ एक हो जाना या उस सत्ता में विलयन नहीं है अपितु पहले से विद्यमान एकत्व को पहचानना और महसूस करना है. इसके लिए चित्त का परिष्कृत रखना अनिवार्य है. इल्म अथवा शास्त्र-ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है, जबकि 'मारिफा' अथवा आत्म ज्ञान का सम्बन्ध चित्त से है. चित्त की स्थिति दर्पण की है. इस दर्पण में ही उसे देखा जा सकता है. यह जगत प्रत्येक क्षण नवीनता की और अग्रसर है और उसकी सम्पूर्ण गतिशीलता एकान्तिक सत्ता तक पहुँचने का प्रयास है. 'फ़ना' बाह्य रूप का विनाश है और 'बक़ा' परम सत्ता में स्थायित्व. उसकी उपासना, प्रेम या इश्क में ही सम्भव है जो उस एकान्तिक सत्ता का उच्चतम रूप है.(एम्.एम्. शरीफ संपादित ‘अ हिस्ट्री आफ मुस्लिम फ़िलासफी’ [1966] पृ0 413).
सच पूछिए तो इब्ने अरबी ने अपनी आस्था बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दी है -
“मेरा ह्रदय मूर्तियों का देवालय और हाजियों का काबा है
यहाँ तौरैत की पट्टिका और कुरआन है
मैं इश्क के धर्म का अनुयायी हूँ
अब ऊंट चाहे किसी करवट बैठे
मेरा धर्म और मेरी आस्था यही है.”

(अ हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम फिलासफी,पृ0 144)
कबीर और इब्ने अरबी के विचारों का साम्य देखने योग्य है. कबीर के यहाँ भी 'प्यंजर प्रेम प्रकासया, अंतरि भया उजास' की स्थिति है. कारण यह है कि वे भी इश्क ही को धर्म स्वीकार करते हैं. और परम सत्ता के इश्क का बादल बरस कर उनकी अंतरात्मा तक को भिगो चुका है -'कबीर बादल प्रेम का हम पर बरस्या आई / अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई बनराई'. कबीर के लिए भी इंसाने कामिल अर्थात पूर्ण मानव परम सत्ता और सद् गुरु को प्रतीकायित करता है. जभी तो वे 'पूरे से परिचय भया,' तथा 'कहै कबीर मैं पूरा पाया' की घोषणा करते हैं. यहाँ 'पूरा' शब्द विचारणीय है.
कबीर के निकट मन मथुरा, ह्रदय द्वारका और काया काशी है तथा मन ही गोरख और मन ही गोविन्द है. वे मन को काबा और काया को कर्बला देखने के भी पक्षधर हैं. 'जो मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोई' कि स्थिति इब्ने अरबी के इंसाने कामिल कि स्थिति से भिन्न नहीं है. यह पूर्ण मानव या इंसाने-कामिल बे-हद अर्थात असीम है. इसलिए जो इस ‘बेहद’ के साथ जुड़ कर स्वयं 'बे-हद’ हो गए हैं, कबीर उन्हीं के समक्ष अन्तर खोलने की बात करते हैं -"जो लागे बेहद्द सों, तिन सूं अन्तर खोलि'. और यह ‘बेहद्द’ स्वभाव, कर्म और चरित्र से संत है, वली है, परम सत्ता का अभिन्न मित्र है, उसका राज़दाँ है. कबीर इसी आधार पर संत और राम में अभेदत्व की स्थिति मानते हैं -"संत राम हैं एकौ."
इब्ने अरबी ने 'मारिफ़ा' अर्थात आत्म ज्ञान या परम सत्ता की प्रेमानुभूति का सम्बन्ध चित्त से माना है और चित्त की स्थिति उनकी दृष्टि में दर्पण की है. कबीर भी "हिरदै भीतर आरसी" की बात करते हैं और "जो दरसन देखा चहै, तौ दर्पन मंजत रहै" का उपदेश देते हैं. उर्फी ने एक स्थल पर इखा है -
निशाने-जाँ हमी जू, ता निशाँ अज़ बेनिशाँ याबी
मकाने-दिल तलब कुन,ता मकां दर लामकां बीनी [क़सायादे-उर्फी, पृ0 77]

अर्थात - तू अपने प्राणों के चिह्नों (निशाने-जाँ) की खोज कर ताकि उन चिह्नों से चिह्न-मुक्त परम सत्ता को प्राप्त कर सके. तेरा ह्रदय ही वह आवास-स्थल या मकान है जिसे तू यदि स्वच्छ और निर्मल रख सके तो उसमें तू आवासमुक्त (लामकां) परम सत्ता का दर्शन कर सकता है.
ध्यान पूर्वक देखा जाय तो कबीर दो सत्ताओं के एकमेक होने की बात नहीं करते. परम सत्ता उनकी दृष्टि में एकान्तिक या मुतलक है. चित्त की मलिनता (दर्पन लागै काई) और मन की दुविधा के कारण मनुष्य अपने चित्त के भीतर उस एकान्तिक सत्ता का दर्शन कर पाने में असमर्थ है. जीव इस एकान्तिक सत्ता या वुजूदे-मुतलक से उसी प्रकार एकत्व रखता है जिस प्रकार तिल के भीतर विद्यमान तेल और चकमक में आग. बात सुषुप्तावस्था से जाग्रतावस्था में आने की है. सुषुप्तावस्था द्वैत के भाव को जन्म देती है और जाग्रतावस्था परम सत्ता के एकत्व का बोध कराती है - "जो सोऊँ तो दोई जणा, जो जागूं तौ एक." तिल और चकमक रूप को प्रतीकायित करते हैं और तेल तथा आग अर्थ को. यह संसार उसी एकान्तिक सत्ता का व्यक्त रूप है. इस व्यक्त रूप के अर्थ पर यदि दृष्टि डाली जाय, तो सम्पूर्ण विद्यमान जगत एकान्तिक सत्ता से इतर कुछ नहीं है. प्रख्यात सूफी कवि फरीदुद्दीन अत्तर (1142-1220 ई0) इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त करते हैं –
आसमांहां वो ज़मींहा वो फ़लक / जुमला रा यक्दानो-बेगुज़रत ज़ि शक.
सूरतो-मानी बहम तौ ज़ात दां / जुमला अशया मुसहफ़ो- आयात दां [रुशद-नामा , हस्त-लिखित]
अर्थात, संदेह की सीमा से निकल कर आकाश, धरती और देवलोक को अभिन्न समझने का प्रयास कर. सम्पूर्ण पदार्थों को पवित्र आसमानी किताब और उसकी आयतें समझ.
स्पष्ट है कि वह्दतुल्वुजूद के दर्शन में जगत मिथ्या न होकर परम सत्ता का ही व्यक्त रूप है. कबीर भी जगत को मिथ्या नहीं मानते. उनकी दृष्टि में यह संसार काजल की कोठरी जैसा है -'काजल केरी कोठडी, तैसा यह संसार,' और यह काजल की कोठरी मिथ्या नहीं है. बात तो जब है कि उसमें रहते हुए साधक उसके प्रभावों से अछूता निकल आए. -'बलिहारी ता दास की, पी सर निकसण हार.' स्रष्टा ने इस संसार को वणिक के हाट की भाँती पसार रखा है -'जैसे बनिया हाट पसारा, सब जग का सो सिरजन हारा' और कबीर इस हाट में खड़े कर दिए गए हैं. किंतु कबीर इस तथ्य से परिचित हैं कि वही परमात्मा ग्राहक भी है और वही बेचने वाला भी."आनि कबीरा हाट उतारा, सोई ग्राहक सोई बेचन हारा." ***************क्रमशः

बुधवार, 30 जुलाई 2008

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे / जगन्नाथ आज़ाद

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह दामने-मशरिक़ में सेहर होती है
ज़र्रे-ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जैसे गुलशन में दबे पाँव बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिए ले के निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है कि हर मौजे-सबा
अपने दामन में लिए गर्दो-गुबार आती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह महवे-सफर हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई खियाबाँ आ जाय
चन्द लम्हों में खियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वही दुनियाए-बियाबाँ आ जाय
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे
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वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

चाँद सितारों की मईयत को
सूरज के ताबूत में रख कर
शाम के सूने कब्रिस्तान में गाड़ आते हैं
वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं
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तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं / जावेद अख़तर

मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो, कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नही
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं
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वज़ीर आगा की एक ग़ज़ल

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं
पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं
मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं
किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं
खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं
लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं
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शआरे-वफ़ा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सरे-रहगुज़र मुझको कीलों से जड़ दो
पिन्हाकर मुझे
पाँव में आहनी बेड़ियाँ क़ैद कर लो
पिलाओ मुझे
अपने सफ्फाको-बे-रहम हाथों से
ज़ह्रे-हलाहल
अज़ीयत मुझे चाहे जितनी भी पहोंचाओ
थक-हार कर बैठ जाओगे इक दिन
कि मैं आशनाए -शआरे-वफ़ा हूँ।
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तू मुझे इतने प्यार से मत देख / अली सरदार जाफ़री

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साए में
धूप भी चांदनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे न रहे
कौन दश्ते-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
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फ़राग़त / बलराज कोमल

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे-बिठाए
वीरानिए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढे, बातें बनायी थीं हज़ारों
ये इश्क का अफसाना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उसको सुनूँ मैं
जब तुमको फ़रागत न थी, अब मुझ को नहीं है।
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