विषय रोचक भी है और चिंताजनक भी. रोचक इस दृष्टि से है कि इसमें मुस्लिम साहित्यकारों के विदेशी होने का एहसास अपने पूरे नैरन्तर्य के साथ बना हुआ है । यदि वे भी हिन्दू हो चुके होते तो भारतीय होना उनकी स्वाभाविक प्रकृति समझ ली जाती। अपने मूल की दृष्टि से जो लोग शक, तातारी, हूण, मंगोल आदि थे और आक्रमणकारियों के रूप में विदेशों से आये थे, अपनी पहचान खो कर, हिंदुत्व के साथ घुल-मिल जाने के कारण उनका विदेशीपन विलुप्त होगया और वे विशुद्ध भारतीय समझे जाने लगे। इसलिए उनके योगदान पर पृथक रूप से कोई चर्चा कभी नहीं की गयी । यहीं से यह विषय चिंताजनक भी हो जाता है ।
1947 में रेलवे स्टेशनों पर हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी के बोर्ड लगे रहते थे। यानी ज़मीन से निकलने वाला पानी, पिलाने वालों के धर्मानुकूल हिन्दू और मुसलमान हो जाया करता था। साहित्य और भाषा को भी धर्मों में बाँट कर देखना एक ऐसी ही अलगाववादी मानसिकता का संकेत है। उन्नीसवीं शताब्दी में यह मानसिकता इस प्रकार जड़ पकड़ती गयी कि हिंदी हिन्दुओं की भाषा और उर्दू मुसलामानों की भाषा के रूप में स्वीकार की जाने लगी [1] और बेचारा हिन्दुस्तान बिना किसी भाषा के गूंगा बन कर रह गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में पंडित प्रताप नारयण मिश्र के "जपौ निरंतर एक ज़बान / हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान"[2] जैसे मादक महामंत्र ने विद्वानों की सोच का धरातल ही बदल दिया। साहित्येतिहास जब लिखा गया तो बंटवारे की यह मानसिकता प्रखर रूप में दिखाई दी । सिद्ध, नाथ, जैन, संत, सूफी आदि नामों से, साहित्य को लेखकों की धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप बांटा गया और भक्ति काव्य की मुख्य-धरा से अलग, हाशिये पर रख कर उनका मूल्यांकन किया गया ।. यानी हमारा अभीषट सिद्धों, नाथों, सूफ़ियों, सन्तों, जैनियों आदि को पढ़ना रह गया, साहित्य को नहीं।
हिंदी साहित्य की मुख्य-धारा के दावेदार तथाकथित मठाधीशों ने अछूतों की तरह बरते जाने वाले इन रचनाकारों को अपने विशाल और भव्य भवन में बित्ता भर जगह देकर अपनी उदारता पंजीकृत कराते हुए गर्व से गर्दन टेढी कर ली। कबीर को स्वीकार किया गया तो रामनामी दुपट्टे में वैष्णवत्व की भीनी-भीनी सुगंध डालकर और कंठी, माला, तिलक और मोरपंख से अलंकृत कर के। उनकी ‘अलिफ़ नामा’ शीर्षक रचना को प्रामाणिक मानते हुए भी कबीर-ग्रथावली में कहीं स्थान नहीं दिया गया।[3] रसखान की चर्चा की गयी तो इस छौंक-बघार के साथ कि अंतिम दिनों में वे वैष्णव धर्मावलम्बी हो गए थे, जबकि रसखान के नबीश्री हज़रत मुहम्मद तथा हज़रत अली की प्रशंसा में भी पद उपलब्ध हैं [4]। रहीम का गुणगान किया गया तो रामचरित मानस के प्रशंसक के रूप में। रोचक बात यह है कि इन मान्यताओं को किसी ठोस प्रामाणिकता के बिना स्वीकार भी कर लिया गया। मुसलमानों को धार्मिक दृष्टि से अमानवीय समझने के साथ ही स्वधर्म-वर्चस्व का भाव इतना गहरा था कि आचार्य शुक्ल जैसे गंभीर आलोचक ने भी जायसी का विवेचन करते हुए त्रिवेणी में लिख दिया –“कुतुबन ने मुसलमान होते हुए भी अपनी मनुष्यता का परिचय दिया।“ गोया मनुष्यता का मुसलमानों से कोई रिश्ता ही नहीं है।
हिन्दी भाषा के विकास में भी मुसलमानों की जो सशक्त भूमिका रही है, उसे बहुत हलकेपन से लिय गया। 18वीं शताब्दी के अन्त तक इलाक़ाई बोलियों से इतर भारत में जितनी भी मान्य साहित्यिक भाषाएं थीं उनकी पहचान किसी भी प्रान्त, इलाक़े या धर्म के आधार पर नहीं थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दवी, हिन्दी, देहलवी, भाखा, रेख्ता, उर्दू आदि ऐसी ही भाषाएं थी। इस दृष्टि से दकनी पहली भाषा कही जा सकती है जिसने अपनी पहचान इलाक़े के आधार पर बनाने का प्रयास किया। संभवतः इसी लिए उसका साहित्य दक्षिण की चौहद्दियां नहीं लांघ पाया। आज जिन भाषाओं को हम ब्रज या अवधी के नामों से जानते हैं, उनके रचनाकारों ने 18वीं शती के लगभग अन्त तक उनका ब्रज या अवधी होना कभी स्वीकार नहीं किया । जो रचनाकार फ़ारसी साहित्य और भाषा के संस्कारों से जुडे थे और अपनी रचनाएं नस्तालीक़ [वर्तमान उर्दू लिपि] में लिखते थे, वे अपनी भाषा को हिन्दवी/हिन्दी, और देहलवी कह्ते थे। जिन रचनाकारों पर संस्कृत के संस्कारों का प्रभाव था और जो अपनी रचनाएं नागरी या कैथी लिपि में लिखने के अभ्यस्त थे, वे अपनी भाषा को ‘भाखा’ कह्ते थे। बाबा फ़रीद [1173-1265 ई0], हमीदुद्दीन नागौरी [1193-1274 ई0], बू अली क़लन्दर [मृत्यु 1323 ई0], अमीर खुसरो [1256-1325 ई0], यह्या मनयरी [मृत्यु 1380 ई0], शम्स बलखी [1325-1386 ई0], मुल्ला दाऊद [रचना काल 1380 ई0],शेख मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी आदि इसी हिन्दवी के कवि थे। हिन्दवी में ब्रज या अवधी जैसी कोई विभाजक रेखा नहीं थी।
अमीर खुस्रो ने स्वयं अपनी भाषा को हिन्दवी कहा है। मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी ने चन्दायन की भाषा को हिन्दवी कहा [5]। नुसरती ने शेख मंझन के सम्बंध में लिखा है- ह्ज़ारां आफ़्रीं बर शेख मंझन / ज़शेरे-हिन्दवी बूदस्त पुर फ़न अर्थात –शेख मंझन को हज़ारों बधाई कि वे हिन्दवी कव्य-रचना में सिद्धहस्त थे। मलिक मुहम्मद जायसी ने –अरबी तुर्की हिन्दवी, भाषा जेती आहि। / जामें मारग प्रेम का, सभै सराहैं ताहि। लिखकर हिन्दवी में व्याप्त प्रेम तत्त्व का संकेत किया। बीजापुर के कवि बुल्बुल ने ‘हरीरे-हिन्दवी पर कर तूं तस्वीर। / लिबासे-पारसी है पाये-ज़ंजीर। लिखकर फ़ारसी की तुलना में हिन्दवी का वर्चस्व घोषित किया। शेख शरफ़ुद्दीन अशरफ़ ने नवसिरहार [1503 ई0] में स्पष्ट लिखा – ‘बाचा कीना हिन्दवी मैंन । / क़िस्सा मक़तल शाह हुसैन्। / नज़्म लिखी सब मौज़ूं आन । यों मैं हिन्दवी कर आसान।‘ क्लिष्ट भाषा की तुलना में आसान भाषा को तर्जीह देना संप्रेष्णीयता के महत्त्व को दर्शाता है।
अमीर खुसरो ने मसनवी नुह्सेपहर में भारत की बारह महत्त्वपूर्ण भाषाओं के साथ ‘देहलवी’ की भी गणना की है [6]। निश्चित रूप से यह देहलवी हिन्दवी या भाखा से अलग एक स्वतंत्र भाषा थी। महाराष्ट के कवि अब्दुल ग़नी ने इब्राहीम आदिलशाह की प्रशंसा में इब्राहीमनामा लिखा जिसमें इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख किया कि मैं अरब और अजम [ईरान] की कृत्रिम भाषाएं नहीं जानता। मैं केवल हिन्दवी और देहलवी जानता हूं- ‘ज़बां हिन्दवी मुझसों हौर देहलवी। न जानूं अरब हौर अजम मसनवी।‘ स्पष्ट है कि हिन्दवी के साथ ‘और देहलवी’ लिखना इस तथ्य को स्पष्ट संकेतित करता है कि देहलवी एक स्वतंत्र भाषा थी। यही भाषा, हिन्दवी/हिन्दी [जो नस्तालीक़ लिपि में लिखी जाती थी] के सहयोग से आगे चलकर उर्दू कहलायी [7]। महमूद शीरानी ने लिखा है कि शेख़ बहाउद्दीन बाजन [1388-1506ई0] ने अपनी भाषा का देहलवी होना स्वीकार किया है [8]।
मीर अब्दुल जलील [1662-1726 ई0] ने ऐसी चतुष्पदियां लिखकर जिनमें एक चरण अरबी का, एक फ़ारसी का, एक हिन्दवी का और एक तुर्की का होता था, हिन्दवी के सार्वभौमिक महत्त्व को दर्शाया था [9]। निज़ामुल्मुल्क आसफ़ जाह वज़ीर फ़र्रुखसियर बादशाह की प्रशंसा में मीर जलील ने लिखा था – ‘असीस दे के कही हिन्दवी मों यों संबत / रहे जगत में अचल बास ये वज़ीर सदा ।‘
हिन्दवी [नस्तालीक़ लिपि में लिखी जाने वाली भारतीय भाषा] को हिन्दी कहने का भी प्रचलन था जो आगे चलकर देहलवी/उर्दू के लिए भी जारी रहा। वसीयतुल्हादी, मनफ़िअतुल-ईमान, इर्शादनामा इत्यादि काव्य ग्रंथों के रचयिता शाह बुरहानुद्दीन जानम [1543-1590 ई0] ने लिखा था – हिन्दी भाषा करूं बखान / जिह प्रताप का मुझ ग्यान । शेख अब्दुल्लाह अंसारी [रचनकाल 1663 ई0] ने इस्लामी शरीअत पर ‘फ़िक़ए-हिन्दी’ शीर्षक पुस्तक लिखी जिसकी भषा को हिन्दी बताया – केते मसले दीन के,अबदी कहैं अमीन्।/फ़िक़ा हिन्दी ज़बान पर, बूझो करो यक़ीन। झज्झर निवासी शेख महबूब आलम [17वीं शतब्दी ई0] ने ‘मसाइले-हिन्दी’ में लिखा – क़यामत के अहवाल में हिन्दी कही किताब। अथवा ‘तलब बहुत उस यार की देखी साँची सूझ।/लिखी किताब इस वास्ते हिन्दी बोली बूझ।‘, मीरज़ा ग़ालिब अपनी उर्दू ग़ज़लों के लिए भी हिन्दी शब्द का प्रयोग करते थे । 30 जनवरी 1855 ई0 को सैय्यद बदरुद्दीन के नाम अपनी चिटठी में लिखते हैं – “ आप हिन्दी और फ़ारसी की ग़ज़लें मांगते हैं, फ़ारसी ग़ज़ल तो शायद एक भी नहीं कही। हां हिन्दी ग़ज़लें क़िले के मुशायरों में दो-चार कही थीं।“[10]।
स्पषट है कि ग़ालिब के समय तक आते-आते हिन्दी/हिन्दवी,देहलवी और उर्दू एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे। हिन्दवी, हिन्दी अथवा देहलवी कही जाने वाली भाषा का जो नस्तालीक़ लिपि में लिखी जाती थी, पालन-पोषण मुस्लिम साह्त्यकारों ने ही किया। 13वीं शताब्दी ई0 से ही समा [सूफ़ी गायन-वादन] की महफ़िलों में फ़ारसी शेरों की तुलना में हिन्दवी के दोहे अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे। हज़रत बख्तियार काकी [मृत्यु 1235 ई0] के समकालीन शेख अहमद नहरवानी हिन्दवी दोहों के प्रसिद्ध गायक थे। ख्वाजा गेसू दराज़ [मृत्यु 1422 ई0] से एक बार किसी ने समा की महफ़िलों में हिन्दवी की लोकप्रियता का कारण पूछा । ख्वाजा साहब ने उत्तर दिया – ‘हिन्दवी बडी कोमल एवं ललित भाषा है। इसमें खोलकर बात कही जा सकती है। इसका संगीत मन को अपनी ओर खींचता है। इसमें मनुष्य की दीनता, नम्रता, तथा दोषों की ओर सकेत होता है [11]।
हिन्दवी को ‘भाखा’ कहने और इसे देवनागरी में लिखने वाले लेखकों की स्थिति कुछ भिन्न नहीं थी। ‘संसकिरत है कूप जल, भाखा बह्ता नीर’ लिखकर कबीर ने संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में भाखा का वर्चस्व घोषित किया। ‘का भाखा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच’ कहकर तुलसी ने प्रेम के महत्व को रेखांकित किया। गुरु गोविन्द सिंह ने कृष्णावतार की रचना के लिए भाखा को अभिव्यक्ति का ज़रिया बनाया – ‘दसम कथा भागवत की, भाखा करी बनाय’। किन्तु न तो हिन्दवी के पक्षधरों ने और न ही भाखा प्रेमियों ने अपनी भाषा को किसी क्षेत्र-विशेष से जोडा, न ही उसमें धर्म-विशेष की गंध देखने का प्रयास किया।
यहां एक बात और भी स्पष्ट कर दूं। प्रारंभ से उत्तर मध्यकाल तक हिन्दवी/हिन्दी या देहलवी के मुस्लिम साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं नस्तालीक़ लिपि में ही लिखीं। इस लिपि में एराब [स्वर-चिह्न] नहीं लगाये जाते। फलस्वरूप अध्ययन की जिज्ञासा से जब इन साहित्यकारों ने प्राचीन अपभ्रंश को नस्तालीक़ में लिप्यान्तरित किया तो तशदीद [द्वित्त्व-चिह्न] और एराब न होने के कारण अनेक शब्दों के रूप परिवर्तित हो गये और ध्वनियां भी अपेक्षाकृत कोमल हो गयीं। उदाहरण्स्वरूप हेमचंद्रकृत [1088-1172] ‘हेमचंद्र शब्दानुशासन’ से अपभ्रंश के एक बहुचर्चित दोहे का पहला चरण लीजिए – ‘भल्ला हुआ जु मारिया भैंणी म्हारा कन्त’। अब इसे नस्तालीक़ लिपि में लिखिए [12]। और इसी लिपि में पढिये । भल्ला शब्द भला, जु शब्द जो, भैंणी शब्द बहनी, म्हारा शब्द हमारा पढा जायेगा। अर्थात इस चरण को इस प्रकार पढेंगे – भला हुआ जो मारया बहनी हमारा कन्त । यह अपभंश की तुलना में एक विकसित भाषा है और हिन्दवी से कहीं अधिक देहलवी [तथाकथित खडी बोली] के निकट है।
प्रारंभिक भरतीय मुस्लिम साहित्यकार वैचारिक दृष्टि से सूफ़ी थे और पारस्परिक प्रेम तथा सौहार्द में विश्वास रखते थे। सूफ़ियों और सिद्ध योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान का सिल्सिला बहुत पहले से चला आ रहा था। बौद्धों के प्रति ब्रह्मणों का वह घृणा भाव जिसका उल्लेख मृच्छ कटिका के सातवें-आठवें अध्यायों में हुआ है, 9वीं-10वीं शताब्दी तक ठंडा पड चुका था। शंकर, कुमारिल और उदयन की बौद्ध धर्म विरोधी भूमिकाएं [13] भी इस समय तक लगभग अर्थहीन हो चुकी थीं। 7वीं शताब्दी की ब्राह्म्णों की यह मान्यता भी कि ब्राह्मणेतर सभी चिन्तन पद्धतियां ब्राह्मण विरोधी हैं, सिद्ध योगियों के वैचारिक सैलाब की लपेट में आ गयी थी। साधना पद्धतियों में वैषम्य के बावजूद सूफ़ियों और सिद्धों के वैचारिक फलक की आधार भूमि, जीव, ब्रह्म और जगत के पारस्परिक रिश्तों से निर्मित थी। यही स्थिति जैन रचनाकारों की भी थी। हुजवेरी के प्रसिद्ध ग्रथ कशफ़ुलमहजूब से पता चलता है कि 10वीं शताब्दी ई0 में लाहौर ब्रह्मणों, बौद्धों, और सिद्ध योगियों, का केंद्र था । मुलतान की सूफ़ी खानक़ाहों में सिद्ध योगियों का आना-जाना भी था। धार्मिक आस्थाएं इनकी चाहे जो भी रही हों, कथ्य और शिल्प की दृष्टि से इनकी रचनाओं में पर्याप्त वैचारिक साम्य दिखायी देता है। प्रारंभिक सूफ़ी कवियों ने मसनवियाँ अथवा कथा काव्य नहीं लिखे। उनकी हिन्दवी रचनाएं दोहों की शक्ल में ही उपलब्ध हैं । फिर भी अब्दुर्रहमान कृत 'संनेह रासउ' [सन्देश रासक] को, जिसकी रचना 1213 ई० के आस-पास हुई, प्रेमाख्यानक पर आधारित एक विरह काव्य कहा जाना चाहिए। प्रेम-विह्वल विरहिणी का सन्देश ही इसका मूल विषय है.[14] इस ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि प्राकृत और अपभ्रंश जैसी भाषाओं पर भी मुस्लिम रचनाकारों ने अधिकार प्राप्त कर लिया था। जैन मंदिरों के संग्रहालय से सन्देश रासक की पांडुलिपियों का प्राप्त होना यह संकेत करता है कि तत्कालीन जैन रचनाकारों की सूफ़ियों की रचनाओं में गहरी रूचि थी।
तेरहवीं शताब्दी ई० से पूर्व की किसी भी मुस्लिम रचनाकार की कोई छुट-पुट रचना भी उपलब्ध नहीं है. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए की मुसलमानों ने, जबकि दसवीं शताब्दी में ही लाहौर अनेक सूफी चिंतकों का केंद्र बन चुका था, अपभ्रंश या हिन्दवी में रचनाएँ नहीं कीं. सूफ़ियों के मल्फूजात और चिट्ठियों में जो दोहे उपलब्ध हैं, निश्चय ही उनमें से कुछ एक तेरहवीं शताब्दी से पूर्व के हैं. जैन और सूफी कवियों के अनेक दोहे कथ्य की दृष्टि से परस्पर मेल खाते हैं. प्रेम में संयोग वियोग की स्थितयां दोनों में ही पायी जाती हैं.
उदाहरण्स्वरूप जैन आचार्य मेरु तुंग द्वारा संपादित ‘प्रबंध चिंतामणि’ [1303 ई0] से कवि मुंज का एक दोहा देखिए जिसे आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में उद्धृत किया है – ‘बाँह बिछुडवै जाहि तौँ , हौँ तै देइं कौ दोस । / हिया ठिए जइ नीसरहि, जानौँ मुंज सरोस ।‘ अब फ़रहंगे-आसफ़िया के प्रथम खंड से इसी युग के एक मुस्लिम रचनाकार का लगभग इसी आशय का एक दोहा प्रस्तुत है – ‘बाँह छुडाए जात है, निबल जानि के मोहि। / हिर्दय में से जाय तो, मरद बदूंगी तोहि।‘ मुस्लिम रचनाकारों के यहाँ प्रेम का यही आदि बीज निरन्तर फलता फूलता रहा।
प्रारंभिक मुस्लिम साहित्यकारों ने जिनका आम जनता से सीधा सरोकार था, धर्माचार्यों के पौरोहित्य और शरीअत आधारित संकीर्ण जकड़नों से आम जनता को मुक्त करने का प्रयास किया, और प्रेम के माध्यम से उनके ईश्वर-भीरु हृदय में विश्वास जगाकर उन्हें सुषुप्तावस्था से निकाला। प्रेम ही एक ऐसा बीज तत्त्व था, जिसके माध्यम से जहाँ एक ओर मनुष्य और मनुष्य के बीच की खाईं पट सकती थी, वहीं दूसरी ओर परम सत्ता से नैकट्य की भी संभावनाएं बनती थीं। अब्दुर्रह्मान [12वीं-13वीं शताब्दी ई0] से लेकर मुल्ला असदुल्लाह वजही [मृत्यु 1659 ई0] और उनके समकालीनों तक सभी मुस्लिम साहित्यकार इसी दिशा में अपने रचना कर्म को गतिशील देखने के पक्षधर थे। इस आलेख में अधिक विस्तार की गुंजाइश नहीं है, इसलिए पहले केवल 1650 ई0 तक के कुछ ऐसे रचनाकारों के उदाहरण दे रहा हूं जिनकी रचनाओं से हमारा बहुत अधिक परिचय नहीं है। ध्यान रहे कि मुग़ल काल में हिन्दवी के प्रति सम्राटों का विशेष लगाव होने के कारण फ़ारसी के अनेक प्रतिष्ठित कवियों ने भी हिन्दवी/हिन्दी को समृद्ध करने का प्रयास किया। अबुलफ़ैज़ फ़ैज़ी [जन्म 1574 ई0] की हिन्दी रचनाएं इसका ज्वलंत प्रमाण हैं।
1200 ई0 से 1650 ई0 तक की रचनाएं : एक एक उदाहरण [*]
अब्दुर्रहमान [रचनाकाल 1213 ई0]
माणुस्सदुव्वविज्जाहरेहिं णहमग्गि सूर ससि बिंबे ।
आएहिं जो णमिज्जइ तं णयरे णमह कत्तारं ।
[हे नागरजनों ! उस कर्तार को नमस्कार करो जो मनुष्यों, देवताओं, विद्याधरों और आकाश मार्ग पर गतिशील सूर्य-चन्द्र-बिम्बों तथा अन्य द्वारा नमस्कृत होता है।]
बाबा फ़रीद [1173-1265ई0]
साईं सेवत गल गई, मास न रहिया देह।
तब लग साईं सेवसाँ, जब लग हौं सो गेह।
[हसन निज़ामीकृत फ़वाइदुलफ़ुवाद [बुलन्दशहर 1855 ई0] से पता चलता है कि सिद्ध और नाथ योगी बड़ी संख्या में बाबा की ख़ानक़ाह पर एकत्र होते थे और उनसे अनेक विषयों पर बाबा की बातचीत होती थी।]
शेख़ हमीदुद्दीन नागौरी [1193-1274 ई0]
औषदि भेजन धनि गई, ओउ भई बिरहीन ।
औषदि दोस न जानई, नारि न चेतै तीन॥
[शेख़ हमीदुद्दीन पहले कवि हैं जिन्होंने अपने समकालीन सुविख्यात फ़ारसी कवि निज़ामी गन्जवी [मृत्यु 1209 ई0] की फ़ारसी ग़ज़ल का हिन्दवी में काव्यानुवाद किया]
बू अली क़लन्दर [मृत्यु 1323 ई0]
सजन सकारे जायेंगे, नयन मरेंगे रोय।
बिधना ऐसि रैन कर, भोर कधूं नहि होय॥
शेख़ फ़तहुल्लाह [हमीदुद्दिन नगौरी के पौत्र और सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के दामाद]
मेरा हियरा दहदहा, जी जानै डेह जाउं ।
सागर फूंक करैला खा,खालिक़ से नेह लगाउं॥
[डेह शेख़ साहब के गाँव का नाम था जहाँ वे अपना शेष जीवन व्यतीत करने के इच्छुक थे।]
अमीर ख़ुसरो [1253-1325 ई0]
ख़ुसरो रैन सुहाग की , जागी पी के संग ।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग ॥
यह्या मनयरी [मृत्यु 1380 ई0]
काला हंसा निरमला, बसै समुन्दर तीर।
पंख पसारै बिख हरै, निरमल करै सरीर॥
शम्स बलख़ी [1325-1386 ई0]
बाट भली पर साँकरी, नगर भला पर दूर।
नाँह भला पर पातला, नारी कर हिय चूर॥
शेख़ अहमद अब्दुलहक़ [मृत्यु 1434 ई0]
बाझ पियारे साइयाँ, और न देखूं चुक्ख्।
जिद्धर देखूं हे सखी, तिद्धर साईं मुक्ख॥
शाह मीरानजी [ख़ुशनामा नामक काव्य के रचयिता मृत्यु 1496 ई0]
केते ग़्यान भगत बैरागी केते मुरख गँवार।
एकै जन इक मानुस कीता,एक पुरुस इक नार॥
सैय्यद मुहम्मद जौनपुरी [1423-1504 ई0]
हियरा नित्त पखाल तौं, काँपड़ धोय मधोय।
ओझल होय न छूटसै, अस निंदरी मत सोय॥
[सैय्यद मुहम्मद जौनपुरी मेहदवी सिलसिले के प्रवर्तक थे। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने मेहदवी होने का स्पष्ट उल्लेख किया है]
शेख़ बहाउद्दीन बाजन [1388-1506 ई0]
भँवरा लेवै फूल रस, रसिया लेवै बास।
माली सींचै आस कर, भँवरा खड़ा उदास॥
सैय्यद ख़ून्दमीर [मृत्यु 1523 ई0]
एक मलामत भूख दुख, आलमगीरी बार।
चलन तमाम रसूल के, जिनके ये अख़्त्यार॥
क़ाज़ी महमूद दरयाई [ 1469-1534 ई0]
मन में गरब तूं मत करै, तुझ से हैं कई लाख।
तेरा कहना कों सुनै, महमुद सेवों माख॥
शेख़ अब्दुलक़ुद्दूस गंगोही [1455-1538 ई0]
एक अकेला साइयाँ, दुइ-दुइ कहौ न कोय।
बास फूल में एक है, कह क्यों दूजा होय॥
शेख़ पियारा [15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान]
मुझ ही ते अति नीयरा, सखि ए मेरा कन्त।
तन मन जोबन देख मैं, सब ही आप इकन्त्॥
शेख़ शाह मुहम्मद [रचनाकाल 1530 ई0]
मृग नैनी मृगराज कटि,मृग बाहन मुख जाहि।
मृग अंगी मृग मद तिलक, मृग रीझत सुरताहि॥
मीर अब्दुल वाहिद [मृत्यु 1608 ई0]
पापहि पाप दई जब दीन्हा । नमस्कार सब देवन कीन्हा ॥
पाप कै पाप बेल सभ गावै । पाप लेन बैकुंठौ जावै ॥
‘वाहिद’ जी पापहि तें परबस। नासी पाप बिनासी सरबस ॥
शाह अली मुहम्मद जीव [मृत्यु 1565 ई0]
ढूंढन निकली पीउ कों, आपुस गयी सो खोय।
जीव जो देखूं एक हो, मुझ बिन और न कोय॥
शाह बुरहानुद्दीन जानम [मृत्यु 1582 ई0]
पंथ अकास का व्यंगम जानै, जल का मारग मीन।
साधू का अन्त साधू जानै, दूजे को नहिं चीन॥
शेख़ अबुलफ़ैज़ फ़ैज़ी [जन्म 1547 ई0]
कहूं-कहूं थोर-थोर पात गिरै रूखन तें/कहूं-कहूं पातिन में आयी पियराई है।
कहूं-कहूं सारी पीरी पातिन बिलोकति हैं/कहूं-कहूं झरन की झर सी लगाई है।
कहूं-कहूं ठाड़े द्रुम देखियत दिगंबर से/ कहूं-कहूं कोउ-कोउ डार हरियाई है॥
फ़ैज़ यह बस होत पेखि-पेखि प्रान हा-हा/ बेगि कहौ ‘बीर’ यह कौन रितु आई है॥
[यहाँ बीरबल के लिए ‘बीर’ शब्द का संबोधन उल्लेख्य है]
मुबारक [जन्म 1583ई0]
कनक बरन बाल नगन लसित भाल/मोतिन की माल उर सोहे भली भाँति है।
चन्द के चढ़ाइ चारु चन्दमुखी मोहिनी सी/प्रात ही अन्हाइ पगु धारे मुसकाति है।
चूनरी बिचित्र स्याम सजिके मुबारकजू/ ढाँकि नख सिख तें निपट सकुचाति है।
चन्द्र में लपेटि के समेटि के नखत मानो/दिन को प्रनाम किये रात चली जाति है।
सैय्यद ग़ुलाम मुहम्मद रसखान [जन्म 1590 ई0]
सिंधु समान जहान के बीच में सीप बिदीथ कै राजथली है।
साईं सेवाती को बूंद परो रस को रसखान की भाँति भली है॥
नूर कौ नीर परो तहँ जाइ जहाँ अब्दुल्ल्ह जी की गली है।
पारो बिचारो निहारो सभै मिलि मोती मुहम्मद अन्त अली है।
ख़ूब मुहम्मद चिश्ती [1539-1614 ई0]
पिंगल गुन सब कह रह्या, अब उरूज़ गति आख।
मिसरे ख़ूब उनीस के जुदी-जुदी बिधि भाख॥
ख़ान मुहम्मद [मृत्यु 1619 ई0]
चिन्ता आनो पंथ की, लोहू हुआ सो जीउ।
ना जानौं किस पथ में, मुझे चलावे पीउ॥
हाजी मुहम्मद नौशा [-1551-1653 ई0]
प्यारे तन मन दोउ जला दे बेसबरी की आग।
सबर सुबूरी नौशा वा करें मस्तक जिनके भाग॥
सैय्यद निज़मुद्दीन मधनायक [जन्म 1591 ई0]
कोउ कहै चन्द के मृगंक अंक देखियत/कोउ कहै छाया छित भूतल प्रकास की।
कोउ कहै अन्धकार पीयो है सो पेखियत/कोउ कहै कालिमा कलंक उन्यास की॥
कहै मधनायक सत हर लीन्हों करतार/ताही की संवारी भामा कान्ह के बिलास की।
तादिन ते छाती छेदि परी है छपाकर की/बार-बार देखियत नीलिमा अकास की॥
सर्वेक्षण एवं निष्कर्ष
उपर्युक्त जितने भी उदाहरण दिये गये हैं, अज्ञात या अल्प परिचित कवियों की रचनाओं के हैं। कबीर, मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम ख़ाने-ख़ाना आदि की रचनाओं से हिन्दी के लगभग सभी अध्येता भली प्रकार परिचित हैं। यह और बात है कि इन कवियों का तटस्थ एवं न्याय-संगत मूल्यांकन होना अभी शेष है। मैंने जिन कवियों के उदाहरण दिये हैं उनसे साहित्येतिहास की अनेक टूटी हुई कड़ियाँ जुड़ती हैं । यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कबीर जैसे रचनाकारों के लिए पहले से पृष्ठभूमि तैय्यार हो चुकी थी। मुल्लाओं और पंडितों की वैचारिक जकड़न से समाज को मुक्त रखने का कार्य प्रारंभ से ही ये साहित्यकार कर रहे थे। ये साहित्यकार सही अर्थों में डिस्सेन्टर्स थे । रूढ़िवादी धार्मिक चिन्तन से इनकी घोर असहमति थी। इश्क़ की आग सभी में बराबर से दहक रही थी। शायद इसलिए भी कि यह आग छोटे-बड़े, ऊंच-नीच का विभाजन नहीं करती। यह आग सत्य, निष्ठा और प्रेम के मार्ग में सूली के ऊपर भी सेज बनाने का सुझाव देती है। पुर्जा-पुर्जा होइ रहै तऊ न छाड़ै खेत के माध्यम से प्रेम के मार्ग में शहीद का दर्जा निश्चित करती है। कबीर से पहले हिन्दी में ‘शहीद’ की कोई कल्पना भी नहीं थी। कलाल, भटठी,शराब और इसके लिए सिर तक न्योछावर कर देने की आमादगी पहली बार कबीर के ही माध्यम से हिन्दी साहित्य में प्रवेश करती है। उत्तरी भारत में अनन्य भक्ति का आदि बीज इन्ही मुस्लिम रचनाकारों ने रोपा और उसकी भरपूर सिंचाई की। प्रपत्ति एव अनुग्रह का जो घोल इन मुस्लिम रचनाकारों ने तैय्यार किया, आगे चलकर भक्तिकाल का सगुण साहित्य उस से शराबोर दिखाई दिया। एक बात और स्प्ष्ट हो जाती है कि कृष्ण और गोपियों की सौन्दर्य-मूलक क्रीड़ाओं के प्रति मुस्लिम साहित्यकारों की रुचि 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक विकसित हो चुकी थी। किन्तु इसका आधार कृष्ण भक्ति न होकर अध्यात्मपरक था। नबीश्री के प्रवचन अल्लाहु जमीलुन व युहिब्बुल जमाल [अल्लाह सौनदर्यशील है और सौन्दर्य को प्रिय रखता है] की प्रेरणा से ये मुस्लिम कवि कृष्ण और गोपियों के इश्क़ में परमसत्ता के सौन्दर्यमूलक गूढ़ रह्स्यों का आनन्द ले रहे थे। मीर अब्दुलवाहिद [मृत्यु 1608 ई0] ने इसी तथ्य को स्पष्ट करने के उद्देश्य से हक़ाइक़े-हिन्दी नामक ग्रंथ लिखा [15]।
प्रेमाख्यानक काव्यों में विभिन्न आलोचकों ने रुचि अवश्य ली है। किन्तु उनकी दृष्टि कथानक के भारतीय अभारतीय होने, हिन्दू या मुस्लिम संस्कारों की अभिव्यक्ति का जायज़ा लेने, और इन्हें शृंगारपरक सिद्ध करने तक ही सीमित रही है।इस तथ्य पर भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया कि चन्दायन [1379 ई0] और क़ुतुबनकृत 'मृगावती'[1503 ई0] के बीच लगभग 124 वर्षों क अन्तराल क्यों है। इस बीच क्या कोई प्रेमाख्यानक काव्य नहीं लिखा गया ? इश्क़ के विवेचन को स्थूल दृष्टि से देखना भी इन रचनाओं के मूल्यांकन में बाधक रहा है। वास्तविक इश्क़ भारतीय अभरतीय नहीं होता। उसकी अपनी संस्कृति होती है।मौलाना रूम ने इस रहस्य को बहूत पहले व्यख्यायित कर दिया था- ख़ुश्तर आँ बाशद कि सिर्रे दिलबराँ / गुफ़्ता आयद दर हदीसे-दीगराँ। अच्छा यह है कि प्रियतम का मर्म दूसरों की कथाओं के माध्यम से कहा जाय।
1650 ई0 से 1850 ई0 तक के मुस्लिम साहित्यकार
16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों तक अनेक प्रेमाख्यानक काव्य लिखे गये। शेख़ रिज़क़ुल्लाह राजनकृत प्रेम बन, दोस्त मुहम्मद्कृत 'प्रेम कहानी', उस्मानकृत 'चित्रावली', शेख़ नबीकृत ' ज्ञानदीप,' [1614ई0], मलिक यूसुफ़कृत 'प्रेम संग्राम',[1680 ई0], नूर मुहम्मदकृत ‘अनुराग बाँसुरी’ तथा इन्द्रावती, सैय्यद हसनकृत 'तेजनामा;[1685ई0], क़ासिमशाहकृत 'हंसजवाहर'[1736ई0],सैय्यद पहाड़कृत 'रस रत्नाकर', शाह नजफ़ अलीकृत 'चिंगारी[1809-1845 ई0] इत्यादि अनेक ऐसी कृतियाँ है जिनके अध्ययन से मुस्लिम साहित्यकारों के योगदान को बख़ूबी परखा जा सकता है।
17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रेमाख्यानक काव्यों से इतार, मुस्लिम साहित्यकारों की रुचि मथुरा और वृन्दावन की इश्क़िया फ़िज़ा से जो आध्यात्मिक आत्मतोष की सामग्री प्राप्त कर रही थी, वह श्रृंगारकालीन रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्यों के बढ़ते रुजहान के साथ, इस दिशा में अग्रसर दिखायी दी। राधा और कृष्ण अपनी दिव्य अलौकिक लीलाओं के आवरण से निकलकर रा्ष्ट्रीय धरातल पर स्वच्छन्द खड़े प्रतीत हुए। कविता को लौकिक प्रेम के अनुभवगत फलक पर रंगीनियाँ बिखेरने का एक बहाना सा मिल गया। जहाँ देव,मतिराम,चिन्तामणि, बिहारी घनानन्द आदि ने लक्षण ग्रंथों और मुक्त स्वच्छन्द रचनाओं से काव्य की समृद्धि में अपनी ज़बर्दस्त भूमिका पंजीकृत की, वहीं उसी के समानान्तर मुस्लिम साहित्यकारों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह और बात है कि उनके मूल्यांकन में हिन्दी आलोचकों ने वह दिल्चस्पी नहीं दिखायी जिसकी उनसे अपेक्षा थी। सैय्यद बरकत उल्लाह 'पेमी' [1659 ई0] की महत्व्पूर्ण काव्य-कृति 'पेमप्रकाश' [रचनाकाल 1698 ई0] की प्रकृति अपने युग की काव्य प्रवृत्तियों को रेखांकित करती है जहाँ भक्तिकालीन चिन्तन का अभी अवसान नहीं हुआ था और श्रृंगारकालीन सोच पनपने लगी थी। वे जप [तस्बीह] की घास, तपस्या [इबादत] के बाँस, और सत्य धर्म की थूनी से प्रेम नगर में एक ऐसी 'राम मड़ई' का निर्माण करते हैं जो ध्यान [मुराक़ेबा]और ज्ञान [इरफ़ान]के बधनों से बांधी गयी है और जिसमें दुख का ताप और पाप की आँधी का प्रवेश सभव नहीं है। [16] मीर अब्दुल जलील [जन्म 1650 ई] की रचनाएं विशेष रूप से उनके बरवै भाषा की सहजता और नायिका की मनोदशा के स्वभावगत सारल्य को रेखांकित करते हैं -'भले गइन पनघटवा पनिया लेन।/जल न भरी गगरिया भरि गये नैन। या 'कसकन कासों कहिए कसक न कोय।/कस-कस होत करेजवा कस कस होय।[17]।
रीतिकालीन आचार्यों की परम्परा में हरदोई जनपद के बिलग्राम नामक एक छोटे से नगर में ही कम-से-कम चार ऐसे मुसलमान कवि हुए जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सैय्यद रहमत उल्लाह [1650-1706 ई0] के 'पूर्ण्ररस' नामक ग्रथ का उल्लेख भर मिलता है किन्तु आचार्य चिन्तामणि को ‘काव्यकुल कल्पतरु’ में अनन्वय अलंकार के लक्षण स्वरूप रचित दोहे में कवि रहमत के सुझाव पर जो संशोधन करना पड़ा[18] उससे पता चलता है कि काव्यशास्त्र में इनकी पैठ कितनी गहरी थी। सैय्यद निज़ामुद्दीन मधनायक [जन्म 1591 ई0] के कव्य-ग्रंथ 'मधनायक श्रृंगार' में यद्यपि रस और नायक-नायिका भेद का विधिवत निरूपण नहीं हुआ है फिर भी इन प्रसंगों के शास्त्रीय महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।[19].जहाँ तक सैय्यद ग़ुलाम नबी रसलीन [1699-1750ई0]के आचार्यत्त्व का प्रश्न है रीतिकाल के सभी विशेषज्ञों ने उसे स्वीकर किया है। रसप्रबोध में उनका रस विवेचन और नायक-नायिका भेद निरूपण कई दृष्टियों से मौलिक भी है और तर्कयुक्त भी। 'अमी हलाहल मद भरे, स्वेत श्याम रत्नार' वाला दोहा एक ल्म्बे समय तक बिहारी के नाम से चर्चित रहा, किन्तु जब यह तथ्य सामने आया कि इस दोहे के रचयिता सैय्यद ग़ुलाम नबी रसलीन हैं, हिन्दी के अध्येताओं को आश्चर्य भी हुआ और रसलीन के विषय में जानने की उत्सुकता भी बढ़ी । मुहम्मद आरिफ़ जान [1710-1773ई0] का उल्लेख हिन्दी के किसि भी साहित्येतिहास में नहीं है । किन्तु उनके 'रसमूरत','अंग शोभा',मदन मूरत और मंगल चरन ऐसे ग्रंथ हैं जो कवि जान के आचार्यत्त्व का स्पष्ट संकेत करते हैं।
सम्राट औरग्ज़ेब को कव्य और कला का विरोधी स्वीकार किया जाता है, जबकि वह स्वयं हिन्दी में 'आलमगीर' और 'शाह औरंगज़ेब' उपनामों से कविताएं रचता था।[20]। उसने हिन्दी कवियों को अपेक्षित प्रोत्साहन भी दिया । कवि वृन्द को उसकी ओर से प्रति दिन दस रूपये पुरस्कार स्वरूप मिलते थे [21]। वृन्द के अतिरिक्त ईश्वर, सामन्त, कृष्ण, कालिदास,मीरज़ा रौशन ज़मीर 'नेही',निज़ामुद्दीन मधनायक, मीर अब्दुल जलील,हिम्मत खां मीर ईसा 'मीरन' आदि अनेक हिन्दी कवियों को उसका आश्रय प्राप्त था। रघुनाथ तथा ईश्वरदत्त आदि संस्कृत कवि भी उसके आश्रय में थे। सम्राट ने अपने ज्येष्ठ पुत्र आज़म शाह को हिन्दी काव्य की शिक्षा देने का समुचित प्रबंध किया था। मीरज़ा ख़ाँ ने इसी उद्देश्य से 'तुहफ़तुलहिन्द' नामक ग्रंथ की रचना की थी। सम्राट की पुत्री ज़ैबुन्निसा भी हिन्दी की एक अच्छी कवयित्री थी।
अन्त में किसी निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले दो मुस्लिम कवियों का उल्लेख आवश्य करना चाहूंगा । पहले कवि हैं मीर ईसा मीरन [मृत्यु 1681 ई0] जिन्हें सम्राट औरंगज़ेब ने हिम्मत ख़ाँ की उपाधि से सम्मानित किया था और जो सम्राट के राज्य काल में उन्नति करते-करते इलाहाबाद के गवर्नर नियुक्त हुए। समयुगीन हिन्दी कवियों को उन्होंने जितना अधिक प्रोत्साहित किया उसका कोई दूसरा उदाहरण दुर्लभ है। गुणशील कवि और कलाकार प्रत्येक दिशा और क्षेत्र से इनकी सेवा में उपस्थित होते थे और योग्यतानुसार पुरस्कृत किये जाते थे।[22] हिन्दी कवि श्रीपति भटट पर उनकी विशेष कृपा थी। श्रीपति ने उन्ही की प्रेरणा से 'हिम्मत प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना की। कवि बलबीर और कृष्ण को तो मीर ईसा का आश्रय ही प्रप्त था [23]। मीर ईसा ;मीरन; के 'नख-शिख' नामक केवल एक ग्रंथ का उल्लेख मिलत है। उनकी रचनाओं में प्रभावोत्पादकता है जहाँ संपूर्ण चित्र पहले हलकी-हलकी लकीरों से उभरता है और फिर यह लकीरें जब एकत्र होती हैं तो सभी रेखाएं एकदम से गहरी हो उठती हैं।[24]।
दूसरे कवि हैं मीरज़ा रौशन ज़मीर 'नेही' [मृत्यु 1656 ई0]। पच्चीस वर्ष की अवस्था में ईरान से भारत आकर सम्राट औरंगज़ेब के शाही मंसबदारों में शामिल होना और शीघ्र ही हिन्दवी सीखकर उसपर अधिकार प्रप्त कर लेना साधारण बात नहीं थी। मीरज़ा ने फ़ारसी भाषा में एक रुबाई रचकर सम्राट औरंगज़ेब के पास भेजी जिसे पढ़कर बादशाह इतना मुग्ध हुआ कि उसने पुरस्कार स्वरूप मीरज़ा को सात हज़ार रूपए प्रदान किये [25]। मीरज़ा रौशन ज़मीर को संस्कृत भाषा पर भी अधिकार था। उन्होंने अहोबलकृत 'संगीत पारिजात' का फ़ारसी भाषा में अनुवाद करके अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन किया।[26]। मुहावरों और लोकोक्तियों से अलंकृत मीरज़ा रौशन ज़मीर नेही की कव्य भाषा सरल, सहज और प्रभावक है।[27]।सम्राट औरंगज़ेब के पुत्र मुअज़्ज़म के आश्रय में आलम ने रीतिमुक्त स्व्च्छन्द कविताओं की रचना की और पर्याप्त लोकप्रिय हुए। हिन्दी कविता की यह स्वच्छन्द धारा रीति कवियों से कुछ भिन्न अपनी पहचान बना रही थी।
1850 ई0 तक तनाव मुक्त रहते हुए हिन्दी के मुस्लिम साहित्यकार काव्य रचना में सक्रीय रूप से मग्न थे। हिन्दी आलोचकों ने किसी रचना में अल्लाह रसूल जैसे श्ब्दों को देख कर भले ही ऐसी कविताओं से परहेज़ किया हो, और वैष्णवेतर आस्थाओं को पाठयक्रम में रखना उन्हें अच्छा न लगा हो, पर इन संकीर्णताओं से ऊपर उठकर यदि देखा जाय तो अनेक ऐसे मुस्लिम कवि हैं जो हिन्दी साहित्य के इतिहास को समृद्ध करते हैं और उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।मैं यहाँ कुछ कवियों की रचनाओं से केवल एक-एक उदाहरण दे रहा हूं-
क़ाज़ी अब्दुलग़फ़्फ़र [रचनाकाल 1705 ई0]
भेजा पोथी प्रेम की नाँव धरा क़ुरअन्।
मानक माथ समाइके आपै माजै आन॥
मीर जाफ़र ज़टल्ली [मृत्यु 1713 ई0]
भूख गए भोजन मिलै, जाड़ा गए क़बाय।
जोबन गए तिरिया मिलै, तीनों देओ बहाय॥
बलहे शाह [मृत्यु 1757 ई0]
उसका मुख इक जोत है, घूंघट है संसार ।
घूंघट में वह छुप गया, मुख पर आँचल डार॥
मीरज़ा मुहम्मद रफ़ीअ सौदा [मृत्यु 1781 ई0]
ले-ले तेरा नाम अब, रोती हूं दिन रैन ।
ऐसा बैरी कौन था, जिसने छीना चैन ॥
[सौदा की गणना उर्दू के प्रसिद्ध कवियों में की जाती है।]
शाह आयत उल्लाह जौहरी मृत्यु [1796 ई0]
जिसका बाबा मर गया, छूरी खाय हुसैन ।
तिसका बेटा आबिदीं, रोवत है दिन रैन्॥
जुरअत [मृत्यु 1810 ई0]
नींद भूख औ सुख गया, दुख पर दुख हम पाय।
किस बिपता में पड़ गये, पड़ी आँख की हाय ॥
नज़ीर अकबराबादी [1735-1830 ई0]
देह सुमन तें ऊजरी, मुख तें चन्द लजाय।
भौहें धनुकी तान कें, कमलन तान चलाय॥
शाह नियाज़ बरेलवी [मृत्यु 1834 ई0]
दरस भिकारी जग में होके दर्शन भिच्छा पाऊं ।
तन मन जोबन उनपर वारूं तब मैं न्याज़ कहाऊं॥
बहादुर शाह ज़फ़र [1775-1862 ई0]
मोहे है यह सकत कहाँ जो तुमसे लगाऊं लाग।
आपही तुमने मोह लगाया, धन-धन मेरे भाग्॥
उपर्युक्त उदाहरणों में भाषा के बदलते रूप को सहज ही देखा जा सकता है। किन्तु पहले 1857 की महाक्रान्ति की विफलता ने हिन्दुओं मुसलमानों के मध्य की एकता के धागे को जगह-जगह से तोड़कर बिखेर दिया और फिर जो कुछ बचा-खुचा था वह देवनागरी आन्दोलन के प्रभाव से, जो आगे चलकर हिन्दी आन्दोलन के रूप में उर्दू के विरोध में सक्रीय दिखायी दिया, टूटता चला गय। हिन्दी के मुस्लिम साहित्यकारों का मोह भंग हो गया और हिन्दी के धर्म-नियत्रित नये रूप और तेवर को देख कर वे स्तब्ध से रह गये। लगभग सौ वर्ष का समय ऐसा निकल गया जिसमें हिन्दी के दुर्ग में प्रवेश करने का मुस्लिम साहित्यकारों ने साहस भी नहीं किया। भारत की स्वाधीनता के बाद जब आपसी तनाव के बादल लगभग छंट से गये,मुस्लिम साहित्यकारों ने बड़ी संख्या में हिन्दी लेखन में रुचि दिखायी।
अन्त में हम केवल इतना कह सकते हैं कि प्रारंभ से ही हिन्दी भाषा और उसके साहित्य को रूप और आकार तथा सार्थकता प्रदान करने में मुस्लिम साहित्यकारों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। मेरा विश्वास है कि जब हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी रिशते और मज़बूत होंगे इस योगदान को और गहराई से याद किया जयेगा।
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संदर्भ :
1. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा – “कचहरियों में उर्दू अपना दबदबा जमाये हुए है। अपने सहोदर पुत्र मुसलमानों के सिवा हिन्दू जो उसके सौतेले पुत्र हैं उन्हें भी ऐसा फंसाय रखा है कि उसीके असंगत प्रेम में बंध ऐसे महानीच निठुर स्वभाव हो गये हैं कि अपनी निजी जननी सकल गुण आगरी नागरी की ओर नजर उठाय भी अब नहीं देखते।“ [हिंदी प्रदीप, अक्तूबर 1884, अंक 15], श्रीधर पाठक ने लिखा – “ हिंदी हिन्दुओं की ज़बान, बेजान्। उर्दू से कटाए कान्। कमर टूटी हुई, लाठी पुरानी हाथ में, बे मदद, बे आका।“ [हिन्दोस्तान की चन्द भाषाओं की समालोचना शीर्षक लेख, हिन्दी प्रदीप, अक्तूबर 1884, अंक 15]
2. सुधा, वर्ष 3, खंड 1, संख्या 6, पृष्ठ 674
3. विस्तार के लिए देखिए – शैलेश ज़ैदी, हिन्दी के मधय-युगीन मुस्लिम कवि, विश्वविद्यालय प्रकाशन केन्द्र, ‘कबीर और उनका युग’ शीर्षक लेख ।
4. विस्तार के लिए देखिए – शैलेश ज़ैदी, हिन्दी के मधय-युगीन मुस्लिम कवि, विश्वविद्यालय प्रकाशन केन्द्र, सैय्यद गुलाम मुहम्मद रसखान शीर्षक लेख ।
5. मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी, मुन्तखिबुत्तवारीख, भाग 1, [कल्कत्ता 1869], पृ0 250
6. अमीर ख़ुसरो, मसनवी नुह सिपह्र संपादक वहीद मिर्ज़ा कलकत्ता,1948ई0, पृ0 179 ।
7. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देवनागरी आन्दोलन ने जब हिन्दी आन्दोलन का नाम ग्रहण कर लिया, देहलवी और उर्दू जैसे शब्दों से बचने के लिये हिन्दी के विद्वानों ने ‘खडी बोली’ का एक नया नाम गढा लिया और उसकी प्राचीनता खोजते हुए उससे वर्तमान हिन्दी का विकास तलाश करने में जुट गये। जबकि तथ्य यह है कि किसी रचनाकार ने अपनी भाषा को 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक, खडी बोली कभी नहीं कहा। भार्तेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस सच्चाई को एक प्रकार से स्वीकार भी किया है। वे खडी बोली का अर्थ उर्दू मानते थे। अग्रवालों की व्युत्पत्ति शीर्षक पुस्तक में उन्होंने 1881 ई0 में लिखा भी था –“इनका [अग्रवालों का] मुख्य देश पश्चिमोत्तर प्रान्त है और बोली स्त्री और पुरुष सबकी खडी बोली अर्थात उर्दू है।“[भार्तेन्दु समग्र, हिन्दी प्रचारक संस्थान,1987 ई0, पृ0 583]। शैलेश ज़ैदी
8. मक़ालाते-शीरानी, जिल्द 1, पृष्ठ 170
9. ज़ाअन्नि रूज़ी बिन्निशातिल औफ़ा / फ़ी खैरि क़ुदूम। [अरबी]
[नव वर्ष का दिवस बडे हर्ष के साथ आया / मंगल आगमन के साथ]
फूले द्रुम, बेल लहलहै, बन ऊल्हा / तरुवर रहे झूम। [हिन्दवी]
[शाखाएं पुष्पित हो उठीं,लताएं लहाहा गयीं,वन उल्लासयुक्त,/ वृक्ष झूम उठे]
नेकी कंदीज़ कलदी बुज़ी बुअदी / यश क़ुतलग़ बुअसूम्। [तुर्की]
[नव वर्ष के अवसर पर वन उपवन हरे भरे हो गये / मुबारक सिद्ध हो]
चूं शहपरे-ताऊस गुल अन्दर सेहरा / आवुर्द हुजूम्। [फ़ारसी]
[मोर की फैली हुई दुम की तरह जंग के पुष्प / एकत्र हो गये]
-मीर ग़ुलाम अली आज़ाद, सर्वे-आज़ाद, पृ0 284
10. दीवाने-ग़ालिब, संपादक इम्तियाज़ अली खां अरशी, पृष्ठ 16
11. जवामेउल्किलम [हस्तलिखित] , 1337-1338 ई0 , पृष्ठ 172-73
12. همارا كنت بهلا هواجو ماريا بهني
13 विस्तार के लिए देखिए - फ़र्क़ुहर, आब्स्क्योर रेलीजस कल्टस [1962], पृ0 33-34
14. विस्तृत अध्ययन के लिए देखिये - शैलेश जैदी, हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि, अद्दहमाण [अब्दुर्रहमान] और उनका 'संनेह रासउ' [सन्देश रासक] शीर्षक लेख ।
[*] रचनाओं के मूल संदर्भ मेरी पुस्तकों – 1: अलखबानी, भारत प्रकाशन मदिर, अलीगढ़ 1971, 2: बिलग्राम के मुसलमान हिनदी कवि, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1969 और हिन्दी के मध्य्युगीन मुस्लिम कवि, विश्व्वविद्यालय प्रकाशन केन्द्र, अलीगढ़,2002 में देखे जा सकते हैं।
15 अब्दुल वाहिद, हक़ाइक़े-हिन्दी, [हिन्दी अनुवाद तथा संपादन : प्रो0 अतहर अब्बास रिज़वी], नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
16.हम तो राम मंडैया पाई।/दुख कै अगनि, पाप कै आँधी तहाँ न नेकु समाई॥/जप कै घास, बाँस भए तप कै बात बूझ सुहाई॥/सत्त धरम की थूनी बेंडी,साधु साधना छाई॥/ध्यान ज्ञान कै बंधन लागे, सुनो कान दै भाई॥/पेम नगर में ठाँव बनायो,गुरु परसाद उठायी॥/नेम नीति कौ जल भरि राख्यो,पेम धुनी सुलगाई॥/पेमी बेग भडारौ दीजे,कीजे अनद बधाई॥[शैलेश ज़ैदी,बिलग्राम के मुसलमान हिन्दी कवि, पृष्ठ 62]
17. वही, पृष्ठ[132]।
18.कृष्णबिहारी मिश्र, साहित्य समालोचक, भाग 2, पृष्ठ 124-125
19.विस्तार के लिए देखिए-शैलेश ज़ैदी, बिल्ग्राम के मुसलमान हिन्दी कवि, पृष्ठ 283 ।
20.सगीत राग कल्पद्रुम प्रथम खंड,पृष्ठ 134 ।
21.जनार्दन राव चेलेर, वृन्द और उनका साहित्य,पृष्ठ 49-50
22.शाह नवाज़ ख़ाँ, 'मआसिरुल उमरा', [1888ई0],खंड 3, पृष्ठ 946 ।
23.ह्स्त लिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण, प्रथम खंड, पृष्ठ 628 ।
24.एक उदाहरण द्रष्टव्य है - 'पौढ़ी हुती पलिका पर हौं निसि ग्यान सौ ध्यान पिया मन लाए।/लागि गयीं पलकैं पल सों पल लागत ही पल में पिय आए।/ज्यों ही उठी उनके मिलिबे हौं सु जागि परी पिय पास न पाए।/'मीरन' और तो सोई के खोवत हौं सखि प्रीतम जागि गँवाए॥
25.शेर ख़ाँ लोदी, मिरातुलख़याल, 1831 ई0, पृष्ठ 229 ।
26.यदे बैज़ा [हस्तलिखित], ज़ख़ीरए-अहसन 920/7 फ़ारसी,मौलाना आज़ाद लाइबरेरी,ए।एम्।यू।
27.विस्तार के लिए देखिए - शैलेश जैदी, हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि, मीरज़ा रौशन ज़मीर 'नेही' शीर्षक लेख ।
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