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मंगलवार, 10 जून 2008

शैलेश ज़ैदी के दोहे

बादल से सम्पर्क मैं करता झरनों से संवाद
साथ जो होती गाँव की गोरी, मैं होता आज़ाद
गदराया गदराया, सुंदर सेबों का यह पेड़
मेरे गिर्द बनाता क्यों है, मर्यादा की मेड़
इन्द्र धनुष के रंगों में है, बिम्बों की भरमार
किंतु नहीं वह बिम्ब, तुम्हारा दे जो रूप उभार
वाम-पंथ की सारी बातें हों स्वीकार, सहर्ष
निर्णय लेने से पहले यदि, करलें कभी विमर्श
कभी भाजपा, कभी विश्व हिन्दू परिषद् की बात
लोग, घरों में करते हैं क्यों आधी-आधी रात
राष्ट्रवाद ने, किया सभी को देश भक्ति से मुक्त
मातृभूमि के न्यायलय में, हैं नेता अभियुक्त.
भगत सिंह ने नहीं पिया था, राष्ट्रवाद का जाम
हंसकर अपनी बली चढ़ा दी, देश-भक्ति के नाम
हुए उच्चतम न्यायाधीश भी, भ्रष्टाचार का अंग
परा-संस्कृति ने दिखलाये कैसे-कैसे रंग
'सरस्वती-सम्मान' तलाशे, मैत्री का आधार
रचनाओं के स्तर में भी, छुपा है भ्रष्टाचार
नृत्य कलाएं भूल गई हैं, कला के सब प्रतिमान
कत्थक और भरत नाट्यम का, नहीं रहा सम्मान
रचना-कर्मी आज हुए हैं, काव्यशास्त्र से मुक्त
समयुगीन साहित्य जगत में, सभी लोक-आयुक्त
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