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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो नज़्में

1- यक़ीन


हवाएं लाई हैं कसरत से पत्तियाँ हमराह,
बिछा रही हैं जिन्हें वो तमाम राहों में,
हरेक सम्त जिधर भी उठा रहा हूं निगाह,
सिवाय पत्तियों के कुछ नहीं निगाहों में,
मगर यक़ीन है मुझको बदन की ख़ुश्बू से,
निशाने-मज़िले-जानाँ तलाश कर लूंगा ॥
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2-हमसफ़र

मैं उस रोज़ कश्ती में बिल्कुल अकेला सफ़र कर रहा था,
समन्दर था ख़ामोश
सन्जीदा नज़रों से लेकिन
मेरे ज़्ह्न में जो मज़ामीन थे, पढ रहा था।
उसी तर्ह जैसे-
वो घर जब भी आती थी,
ख़ामोश नज़रों से इक टक मुझे देखती थी,
मेरे ज़ह्न में जो मज़ामीन महफ़ूज़ थे,
उन को पढती थी,
हैरत-ज़दा हो के, मासूम लहजे में कहती थी,
सच जानिए, आप अच्छे बहोत हैं।
समन्दर से उस को मुहब्बत थी बेहद,
वो ख़ुद इक समन्दर थी जिस में
वो तनहा मेरी हमसफ़र थी॥
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