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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

एक गन्दा कमरा / शेल सिल्वर्स्टीन / तर्जुमा ; ज़ैदी जाफ़र रज़ा

एक गन्दा कमरा

चाहे जिस का भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उस्के लिए

लैम्प पर झूलता है यहाँ

एक अन्डरवियर

रेनकोट उसका, पहले से बेहद भरी,

उस जगह

वो जो कुरसी है उस पर पड़ा है,

और कुरसी नमी,गन्दगी से है बोझल,

उसकी कापी दरीचे की चौखट पे औन्धी पड़ी है,

और स्वेटर ज़मीं पर पड़ा है अजब हाल में,

उसका स्कार्फ़ टी वी के नीचे दबा है

और पैन्ट उसके

दरवाज़े पर उल्टे-पुल्टे टंगे हैं,

उसकी सारी किताबें ठुंसी हैं यहाँपर ज़रा सी जगह में

और जैकेट वहाँ हाल में रह गयी है

एक बदरंग सी छिपकिली

उसके बिस्तर पे लेटी हुई सो रही है

और बदबू भरे उसके मोज़े हैं दीवार की कील पर

चाहे जिसका भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उसके लिए

वो हो डोनाल्ड, राबर्ट या हो विली ?

ओह ! तुम कह रहे हो ये कमरा है मेरा

मेरे दोस्त सच कहते हो

जानता था ये मैं

जाना-पहचाना सा मुझको लगता था ये।

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