हमारा बचपन रहा हो जैसा भी
ख़ूब्सूरत बहोत था शायद।
हमारे छोटे से शह्र में
कंकरों की कच्ची सड़क पे कुछ लैम्प पोस्ट होते थे,
जिनकी मद्धम सी रोशनी में भी
हमको दुशवारियों का अहसास कुछ नहीं था।
घरों में मिटटी के चूल्हे थे,
जिनको सुबह होते ही लीप कर ताज़ादम बना देती थीं
सुघड़ औरतें घरों की।
कभी हमें नाशते में मिलती थी
रोग़नी मीठी सुर्ख़ टिकिया,
कभी थी बेसन की प्याज़ आलूद, हल्की नमकीन
कोयले पर सिकी हुई ज़र्द-ज़र्द रोटी,
डुबो के घी की कटोरियों में हम अपने लुक़मे,
ख़ुशी-ख़ुशी, बैठ कर वहीं चूल्हे से ही लग कर,
मज़े से खाते थे।
पढ़ने-लिखने क शौक़ ऐसा था,
लालटैनों में या चराग़ों की रोशनी में भी,
कोई दिक़्क़त कभी न आयी।
सुलगती गर्मी की दोपहर में,
सुनाती थीं दादी जब कहानी,
तो शाहज़ादों की ज़िन्दगी के कई मसाएल,
हमें भी उल्झन में डाल देते थे,
और परियों का तख़्त पर बैठकर फ़लक से ज़मीं पे आना,
कुछ ऐसा लगता था,
गुदगुदी सी दिलों में होती थी,
हम भी परियों के साथ ख़ुद को,
बलंदियों पर फ़लक की महसूस करने लगते थे,
लू भरी दोपहर की गर्मी का
कोई अहसास तक नहीं था।
मगर उसी शह्र में गया मैं
जब एक मुद्दत पे,
शह्र दफ़नाय जा चुका था,
हमारा बचपन भी उसके हमराह
गुमशुदा था,
कहीं भी मदफ़न का उसके नामो-निशाँ नहीं था।
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