अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ डाक से मुझे एक पुस्तक प्राप्त हुई 'निर्वाण'. इसकी प्रतीक्षा मैं पहले से कर रहा था. मेरे अग्रज और मित्र महाकवि हरिशंकर आदेश जी ने अमेरिका से मुझे फोन पर इसके सम्बन्ध में बताया भी था. अस्वस्थ होते हुए भी और डाक्टरों के निर्देश के बावजूद कि वे हिलें-डुलें और बातें न करें, उन्होंने मुझे फोन किया. मैंने भी उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की. बहत्तर-तिहत्तर वर्ष की अवस्था में जितना कार्य महाकवि आदेश कर रहे हैं, बिरला ही कोई व्यक्ति कर सकता है. अबतक तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं वे, जिनमें चार तो महाकाव्य हैं - 'अनुराग', 'शकुंतला', 'महारानी दमयंती' और 'निर्वाण'. वे आदेश आश्रम त्रिनिदाद के कुलपति हैं, कनाडा और अमेरिका में मिनिस्टर आफ रेलिजन हैं, अखिल हिन्दू समाज, अमेरिका एवं विद्या मन्दिर कनाडा के आध्यात्मिक गुरु हैं और भारत के भूतपूर्व सांस्कृतिक दूत भी रह चुके हैं. फिर सबसे बड़ी बात ये है के वे मेरे मित्र हैं, हितैषी हैं, शुभ-चिन्तक हैं.
नवम्बर 1999 में जब मुझे मयामी फ्लोरिडा [अमेरिका] में महाकवि तुलसीदास पर आयोजित त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहाँ की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थे महाकवि हरिशंकर आदेश.मैत्री का यह जुडाव निरंतर गहराता गया. शायद इसलिए कि इसकी आधारशिला मज़बूत थी.
आजके हिनुदुत्ववादियों के मध्य हिंदुत्व-प्रेमी महाकवि हरि शंकर आदेश का क्या स्थान है, यह मैं नहीं जानता. किंतु इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि महाकवि आदेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सुविज्ञ, अध्ययनशील लेखक, कवि,समजोद्धारक, महापुरुष हैं. भारत के प्रति अटूट प्रेम उनके चिंतन का आधार है. संवेदनशीलता से उनकी वैचारिकता को ऊर्जा मिलती है. सर्व धर्म सम भाव उनके मन को शांत रखता है. हिंदुत्व के प्रति प्रेम उनमें आत्मविश्वास जगाता है और जिम्मेदारियों का एहसास भरता है. उनका ह्रदय पारदर्शी है, स्वच्छ है, कलुषताओं से मुक्त. धर्म के बीज वहाँ अंकुरित हो ही नहीं सकते जिनके ह्रदय में राग-द्वेष पलता है और मलिनाताएं कसमसाती हैं.
मुझे स्वयं आश्चर्य है कि इन छे-सात दिनों में सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य- निर्वाण', मैं कैसे पढ़ गया. आपके हाथों में भी यह पुस्तक आजाय तो शायद आप भी इसे इसी प्रकार पढ़ जायेंगे. आज, जबकि हिन्दी कविता किसी बालिका की चुन्नी की तरह सिमट-सिकुड़कर हाइकू में शरण ले रही है, महाकाव्य लिखना कोई सरल कार्य नहीं है. महाकवि आदेश को भी समय के अंतराल के साथ इसे लिखने में चालीस वर्ष लग गए. किंतु इसे पढ़ते हुए केवल यही चालीस वर्ष नहीं, बल्कि महाराजा शुद्दोधन से अबतक का समय, प्रतीत होता है जैसे लेखक की मुट्ठियों में बंद हो गया हो और वह उसे आहिस्ता-आहिस्ता खोल रहा हो.
निर्वाण में कोई इतिहास नहीं है जो भीतर से झाँक रहा हो, इसमें कवि की सोच है जो अपना एक अलग इतिहास गढ़ रही है. पात्रों की गरिमा का ध्यान रखते हुए, आस्थाओं के बारीक शीशों को बिना चटकाए. बी.ए. के छात्र-जीवन में मैथिलि शरण गुप्त की यशोधरा ने भले ही लेखक के मन में स्थान बनाया हो, किंतु निर्वाण की रचना ने यशोधरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. यहाँ कोई दर्शन नहीं है जो गूढ़ शब्दावली में प्रस्तुत किया गया हो. यहाँ दर्शन और इतिहास समर्थित कल्पनाएँ हैं जो मंद गति से तरलीकृत होकर पाठक के मन में स्थान बना लेती हैं. महाराजा शुद्दोधन ने सिद्धार्थ को भले ही इस भय से वेदों के अध्ययन से दूर रखा हो कि उसके लिए आत्मा-परमात्मा, जीवन मृत्यु आदि का ज्ञान अनिवार्य है और यह सिद्धार्थ के हित में नहीं होगा, निर्वाण के रचनाकार का दृढ़ विश्वास है कि वेद प्रतिपादित सिद्धांतों और महात्मा बुद्ध प्रतिपासित सिद्धांतों में कोई टकराव या वैषम्य नहीं है.महाकवि की दृष्टि में वेदानुयायी तथा बौद्ध, दो पृथक लगने वाली प्रणालियाँ यथार्थ में एक ही हैं.
महाकवि आदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य की भाषा को इतना सरल कर दिया है कि वह लोक मानस में सहज ही अपनी समूची लयात्मकता के साथ प्रवेश करती है और कथानक की सभी बारीकियों को सरलीकृत कर देती है. यहाँ दुखवाद अनास्तिकता को प्रतीकायित नही करता.शैशव, कैशोर्य, प्रेमानुभूति,विवाह, मिलन-महोत्सव के प्रसंग सांस्कृतिक धरातल पर पाठक के साथ एकस्वर रहते हैं. जहाँ सिद्धार्थ के गृह-त्याग का प्रसंग है वहीं यशोधरा के आंसू भी हैं, राहुल का शैशव भी है, कपिलवस्तु कि स्थिति का अवलोकन भी है. महात्म बुद्ध का धर्म प्रसार, परिनिर्वाण और कपिलवस्तु लौटकर यशोधरा से मिलने का प्रसंग, पूरी गरिमा के साथ व्यक्त किया गया है.
महाकवि आदेश के इस महाकाव्य को नटराज प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है और पुस्तक का मूल्य आठ सौ रूपए है.
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नवम्बर 1999 में जब मुझे मयामी फ्लोरिडा [अमेरिका] में महाकवि तुलसीदास पर आयोजित त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहाँ की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थे महाकवि हरिशंकर आदेश.मैत्री का यह जुडाव निरंतर गहराता गया. शायद इसलिए कि इसकी आधारशिला मज़बूत थी.
आजके हिनुदुत्ववादियों के मध्य हिंदुत्व-प्रेमी महाकवि हरि शंकर आदेश का क्या स्थान है, यह मैं नहीं जानता. किंतु इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि महाकवि आदेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सुविज्ञ, अध्ययनशील लेखक, कवि,समजोद्धारक, महापुरुष हैं. भारत के प्रति अटूट प्रेम उनके चिंतन का आधार है. संवेदनशीलता से उनकी वैचारिकता को ऊर्जा मिलती है. सर्व धर्म सम भाव उनके मन को शांत रखता है. हिंदुत्व के प्रति प्रेम उनमें आत्मविश्वास जगाता है और जिम्मेदारियों का एहसास भरता है. उनका ह्रदय पारदर्शी है, स्वच्छ है, कलुषताओं से मुक्त. धर्म के बीज वहाँ अंकुरित हो ही नहीं सकते जिनके ह्रदय में राग-द्वेष पलता है और मलिनाताएं कसमसाती हैं.
मुझे स्वयं आश्चर्य है कि इन छे-सात दिनों में सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य- निर्वाण', मैं कैसे पढ़ गया. आपके हाथों में भी यह पुस्तक आजाय तो शायद आप भी इसे इसी प्रकार पढ़ जायेंगे. आज, जबकि हिन्दी कविता किसी बालिका की चुन्नी की तरह सिमट-सिकुड़कर हाइकू में शरण ले रही है, महाकाव्य लिखना कोई सरल कार्य नहीं है. महाकवि आदेश को भी समय के अंतराल के साथ इसे लिखने में चालीस वर्ष लग गए. किंतु इसे पढ़ते हुए केवल यही चालीस वर्ष नहीं, बल्कि महाराजा शुद्दोधन से अबतक का समय, प्रतीत होता है जैसे लेखक की मुट्ठियों में बंद हो गया हो और वह उसे आहिस्ता-आहिस्ता खोल रहा हो.
निर्वाण में कोई इतिहास नहीं है जो भीतर से झाँक रहा हो, इसमें कवि की सोच है जो अपना एक अलग इतिहास गढ़ रही है. पात्रों की गरिमा का ध्यान रखते हुए, आस्थाओं के बारीक शीशों को बिना चटकाए. बी.ए. के छात्र-जीवन में मैथिलि शरण गुप्त की यशोधरा ने भले ही लेखक के मन में स्थान बनाया हो, किंतु निर्वाण की रचना ने यशोधरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. यहाँ कोई दर्शन नहीं है जो गूढ़ शब्दावली में प्रस्तुत किया गया हो. यहाँ दर्शन और इतिहास समर्थित कल्पनाएँ हैं जो मंद गति से तरलीकृत होकर पाठक के मन में स्थान बना लेती हैं. महाराजा शुद्दोधन ने सिद्धार्थ को भले ही इस भय से वेदों के अध्ययन से दूर रखा हो कि उसके लिए आत्मा-परमात्मा, जीवन मृत्यु आदि का ज्ञान अनिवार्य है और यह सिद्धार्थ के हित में नहीं होगा, निर्वाण के रचनाकार का दृढ़ विश्वास है कि वेद प्रतिपादित सिद्धांतों और महात्मा बुद्ध प्रतिपासित सिद्धांतों में कोई टकराव या वैषम्य नहीं है.महाकवि की दृष्टि में वेदानुयायी तथा बौद्ध, दो पृथक लगने वाली प्रणालियाँ यथार्थ में एक ही हैं.
महाकवि आदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य की भाषा को इतना सरल कर दिया है कि वह लोक मानस में सहज ही अपनी समूची लयात्मकता के साथ प्रवेश करती है और कथानक की सभी बारीकियों को सरलीकृत कर देती है. यहाँ दुखवाद अनास्तिकता को प्रतीकायित नही करता.शैशव, कैशोर्य, प्रेमानुभूति,विवाह, मिलन-महोत्सव के प्रसंग सांस्कृतिक धरातल पर पाठक के साथ एकस्वर रहते हैं. जहाँ सिद्धार्थ के गृह-त्याग का प्रसंग है वहीं यशोधरा के आंसू भी हैं, राहुल का शैशव भी है, कपिलवस्तु कि स्थिति का अवलोकन भी है. महात्म बुद्ध का धर्म प्रसार, परिनिर्वाण और कपिलवस्तु लौटकर यशोधरा से मिलने का प्रसंग, पूरी गरिमा के साथ व्यक्त किया गया है.
महाकवि आदेश के इस महाकाव्य को नटराज प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है और पुस्तक का मूल्य आठ सौ रूपए है.
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