ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / सडकों की भीड़ में है लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

सडकों की भीड़ में है बियाबान का वुजूद.

सडकों की भीड़ में है बियाबान का वुजूद.
है महवे-रक़्स दस्तो-गरीबान का वुजूद.
इस चमचमाते शह्र की आबादियों के बीच,
महफूज़ रह सकेगा न ईमान का वुजूद.
दहशत में है तशाद्दुदो-जुल्मो-सितम का फ़न,
जिस्मे-बशर में है किसी हैवान का वुजूद.
अब जेबे-दास्ताँ है फ़क़त, गेसुओं का ख़म,
अब गुम-शुदा है ज़ुल्फ़े-परीशान का वुजूद.
ये शौक़े-खुदनुमाई है या है फ़रेबे-ख्वाब,
गुम है तिलिस्मे-ज़ात में इंसान का वुजूद.
ये झोंपडे, ये फूस के छप्पर, ये भूके लोग,
जैसे किसी इबारते-बेजान का वुजूद.
दशरथ का इश्क़ मौत की वादी में खो गया,
आबाद कैकेई के है रूमान का वुजूद।
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