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गुरुवार, 4 सितंबर 2008

बात निकली और गुल के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बात निकली और गुल के मौसमों पर आ गयी।
ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी ग़ज़ल उसके लबों पर आ गयी।
सरफ़रोशी के लिए मखसूस थे जो रास्ते,
ज़िन्दगी बेसाख्ता उन रास्तों पर आ गयी।
लोग कहते हैं कि अब फूलों में वो रंगत नहीं,
चूक माली से हुई , तुहमत गुलों पर आ गयी।
ये इमारत पहले तो इस शह्र के मरकज़ में थी,
हादसा कैसा हुआ ? क्यों सरहदों पर आ गई ?
कैसे कर सकती थी मौसीकी ज़माने से गुरेज़,
जैसी फरमाइश हुई, वैसी धुनों पर आ गयी।
बेहिसी की बदलियों में, धड़कनें तक खो गयीं,
क्या मुसीबत प्यार में टूटे दिलों पर आ गयी।
मरघटों ने जबसे मेरे घर पे कब्जा कर लिया,
साँस मेरे जिस्म की ख़ुद मरघटों पर आ गयी।
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