ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / जुनूँ-खेजी में दीवानों से लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शनिवार, 4 जुलाई 2009

जुनूँ-खेजी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है.

जुनूँ-खेजी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है.
के जिसके फैज़ से क़ौमों का सर ऊंचा भी होता है.

सफ़ीने की मदद को खुद हवाएं चल के आती हैं,
सहूलत के लिए ठहरा हुआ दरिया भी होता है.

मेरी राहों में लुत्फे - नकहते - बादे-बहारी है,
मेरे सर पर महो-खुर्शीद का साया भी होता है.

बजाहिर वो मेरी जानिब से बे-परवा सा लगता है,
मगर एहसास उसको मेरे ज़खमों का भी होता है.

ये मज़्लूमी की चादर मैं जतन से ओढे रहता हूँ,
के लग्जिश से मेरा महबूब कुछ रुसवा भी होता है.

उसी का है करम इस हाल में भी सुर्ख-रू हूँ मैं,
बरतने में वो अक्सर हौसला अफजा भी होता है.

नज़र के सामने रहता है वो कितने हिजाबों में,
मगर ख़्वाबों में जब आता है बे-पर्दा भी होता है.
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