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बुधवार, 3 सितंबर 2008

उस समंदर के कनारे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उस समंदर के कनारे था दरख्तों का हुजूम।
गाँव के तालाब पर जिस तर्ह बच्चों का हुजूम।
उनकी ताबीरें थीं कैसी इसका कब आया ख़याल
देखकर मैं डर गया ख़ुद अपने ख़्वाबों का हुजूम।
फिर्कावारीयत का जंगल किस क़दर सर-सब्ज़ था
शहर में फैला था हर जानिब दरिंदों का हुजूम।
जिनकी बद-आमालियाँ दुनिया से पोशीदा न थीं
हमको दिखलाया गया ऐसे फरिश्तों का हुजूम।
भूक, गुरबत, मुफलिसी के नाम पर यकजा थे सब
उस सियासी धूप में था सिर्फ़ सायों का हुजूम।
किससे कहिये दर्दे-दिल, किससे शिकायत कीजिये
ज़िन्दगी में हर क़दम पर जब हो गैरों का हुजूम।
एक शायर घिर गया है नंगी तलवारों के बीच,
वो है तनहा, सामने उसके है लाखों का हुजूम।
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