ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.
सागर को सूंघता हुआ शोला निकल पड़ा.
आकाश की लगाम समंदर के पास थी,
बारिश की चाह में कोई बादल मचल पड़ा.
पर्वत के गर्भ में किसी झरने का शोर था,
इच्छा हुई जगत की तो बाहर उछल पड़ा.
थोडी सी जान शेष है अब भी पठार में,
छूकर शरीर देखिये कबसे है शल पड़ा.
धरती का वक्ष फट गया कुछ ऐसी प्यास थी,
मालिश फुहारें करती रहीं पर न कल पड़ा.
पेड़ों में कितनी आग थी चिंतित न था कोई,
हलकी रगड़ हुई तो ये जंगल ही जल पड़ा.
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.
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