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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.
पर स्वयं को इस तरह देते हैं क्यों धोखे सभी.
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रेलवे स्टेशनों पर अब कुली मिलते नहीं,
अपना-अपना बोझ अच्छा है कि हैं ढोते सभी.
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आजके नेताओं की है सोच कैसी अटपटी,
बूँद भर पानी में खाते रहते हैं गोते सभी.
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राजनीतिक धर्म हो या धार्मिक हो राजनीति,
दोनों स्थितियों में केवल ज़ह्र हैं बोते सभी.
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प्रेम मानवता से हो या देश के भू-भाग से,
प्रेम अमृत है, इसे हैं मुफ़्त में खोते सभी.
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धार्मिकता के नशे में शत्रुता का बोध है,
आयातों, मंत्रों में रख लेते हैं हथगोले सभी.
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एकता की बात सदियों से किया करते हैं हम,
एकता के सूत्र में फिर भी नहीं बंधते सभी.
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