ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा /हुकूमतों के है जूदो-करम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।

हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।
कोई लगाये गा अहले क़लम की क्या क़ीमत्॥

जुनूने-इश्क़ की दौलत से सर्फ़राज़ हैं हम ,
हमारी नज़रों में जाहो-हशम की क्या क़ीमत्॥

ये दिल के दाग़ हैं गुलहाए-ताज़ा से बेहतर,
हमारे सामने बाग़े-इरम की क्या क़ीमत ॥

तेरे दिये हुए ग़म ज़ीस्त का हैं सरमाया,
ज़माना देता रहे ग़म, है ग़म की क्या क़ीमत्॥

समन्दरों ने कभी गिरिया तो किया ही नहीं,
समन्दरों के लिए चश्मे-नम की क्या क़ीमत्॥

जो अपनी ज़ात से बाहर निकल नहीं सकते,
सियासियात के उस पेचो-ख़म की क्या क़ीमत्॥

भरम ये है के मैं ज़िन्दा भी और ख़ुश भी हूं,
मैं ज़ब्ते-अश्क को दूं इस भरम की क्या क़ीमत्॥
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