कैसी चहल-पहल सी है ख़ाली मकान में ।
किस-किस की गूंजती है सदा सायबान में॥
मसरूफ़ अपनी जान बचाने में हैं सभी,
लेता नहीं कोई भी किसी को अमान में ॥
तालीम तो है तमग़ए आराइशे-ख़याल,
ताजिर सियासियात के हैं ख़ान्दान में ॥
राइज न होने देंगे इसे मुल्क में कभी,
कितनी मिठास क्यों न हो उर्दू ज़बान में ॥
जिन की जड़ें ज़मीन की गहराइयों में हैं,
ऊँची उड़ानें भरते नहीं आसमान में ॥
आँखें सजा रही हैं मनाज़िर नये-नये,
वुसअत बहोत है पलकों के इस सायबान में॥
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