ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / मैं बारिशों से भरे बादलों लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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बुधवार, 22 जुलाई 2009

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूं

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूं ।
फिर अपने खेतों के तश्ना लबों को देखता हूं॥

तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देख्ता हूं ।
हया से सिमटी हुई दह्शतों को देखता हूं ॥

दिलों को बाँट दिये और ख़ुद रहीं ख़ामोश,
तअल्लुक़ात की उन सरहदों को देखता हूं ॥

न आयी हिस्से में जिनके ये रोशनी ये हवा,
चलो मैं चलके ज़रा उन घरों को देखता हूं ॥

जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आँखों से उन ताक़तों को देख्ता हूं॥

बहोत थे सहमे हुए लब के बोल तक न सके,
मैं थरथराती हुई काविशों को देखता हूं॥

न जाने कब से फ़िज़ाओं की सुर्ख़ हैं आँखें,
मैं उनमें पलते नये हादसों को देखता हूं॥
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