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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।
मैँ उस से इस क़दर क्यों बेख़बर था ॥

मेरी सांसों में थी सहरा-नवरदी,
मेरी आँखों में दरया का सफ़र था ॥

उजालों का वो कैसा कारवाँ था,
क़याम उस का बहोत ही मुख़्तसर था॥

यहाँ आँसू की क़ीमत कुछ नहीं थी,
वहाँ आँसू का हर क़तरा गुहर था ॥

गुलों ने क्यों मेरा सदक़ा उतारा,
चमन में क्यों मैं इतना मोतबर था ॥

वहाँ थे रेगज़ारों के समन्दर,
मैं उन के दरमियाँ मिस्ले शजर था ॥

जहाँ अब राख का इक ढेर सा है,
वहाँ पहले मेरा भी एक घर था ॥
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