मकान कितने बदलता रहा मैं घर न मिला।
तमाम उम्र जो दे साथ हम-सफ़र न मिला ॥
ग़ज़ल के फ़न पे क़लम नाक़िदों के चलते रहे,
मगर किसी का भी मेयार मोतबर न मिला ॥
शऊरो-फ़ह्म है तख़्लीक़-कार की दुनिया,
यहाँ फ़सानए-दिल कोई बे-असर न मिला ॥
ठहर के साए में जिसके ज़रा सा दम लेते ,
हमारी राह में ऐसा कोई शजर न मिला ॥
निकालीं सीपियाँ कितने ही ग़ोता-ख़ोरों ने,
जो आबदार हो ऐसा कोई गुहर न मिला ॥
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