ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / न जाने क्यों तेरे कूचे में लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही

न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही।
हमारे दिल के तड़पने में वो कशिश न रही॥

सजे हुए हैं उसी तर्ह अब भी मयख़ाने,
मगर शराब के प्याले में वो कशिश न रही॥

हुनर के सारे ख़रीदार हो गये नापैद,
किसी ख़मोश इशारे में वो कशिश न रही॥

ज़रा सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी बातें,
दिलों को छू सके, बच्चे में वो कशिश न रही॥

बदन से आती है अरक़े-गुलाब की ख़ुश्बू,
ये बात कहिए, तो कहने में वो कशिश न रही॥

ज़मीन ढलती हुई उम्र से परीशाँ है,
के इसके जिस्म के साँचे में वो कशिश न रही॥

कुछ ऐसा नक़्शो-निगारे-ग़ज़ल बदल सा गया,
रिवायतों के इलाक़े में वो कशिश न रही॥
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