शजर की तर्ह जहां भी हैं सर उभारना है॥
जो पत्थरों का जिगर चीर कर निकलता है,
उस आबशार का दिल में हुनर उभारना है ॥
सुलूक शम्सो-क़मर का हरेक से यकसां है ,
मआशरे को इसी राह पर उभारना है ॥
समन्दरों में हैं पोशीदा कितने ही गौहर,
लगा के ग़ोता वो सारे गुहर उभारना है॥
कलीमी बख़्श के तोड़े ग़ुरूरे-फ़िरऔनी,
इसी ज़मीं पे इक ऐसा शजर उभारना है ॥
सियाह दौलतें जितनी हैं ग़ैर मुल्कों में,
किसी तरह भी वो सब मालो-ज़र उभारना है ॥
बचा के रखना है इस राख की हरारत को,
के इस के बत्न से ताज़ा शरर उभारना है॥
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